पहेलियां सदियों से न केवल बच्चों का वरन बड़ों का भी मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम रहा है। पहले पहली बूझ कर उत्तर न मिलने पर बच्चों के चेहरे खुशी से नाच उठते थे। पूछने वाला कहता था अच्छा कुछ अता पता बताओ या हिंट दो, तब बच्चों के होठों की मुस्कान देखते ही बनती थी। उत्तर मिलने पर वे तारीफ के पुल बांध देते थे। सबसे ज्यादा खुशी उत्तर नहीं मिलने पर होती थी। आज इसका रूप बदल कर पत्र – पत्रिकाओं में वर्ग पहली का हो गया है,जिसे भरने में बच्चें क्या बड़े बड़े भी मशक्कत करते नजर आते हैं। पहेलियों ने साहित्य में भी अपना स्थान बना लिया है। पहेली साहित्य, पहेली का प्रचलन, इसका महत्व आदि पर मैंने बाल साहित्य में डॉक्टरेट करने वाली साहित्यकार डॉ. कृष्णा कुमारी से साक्षात्कार के रूप में लम्बी चर्चा की। चर्चा से जो प्रमुख बिंदु उभार कर आए उन्हें यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
साक्षात्कार की शुरुआत करते हुए कहती हैं
एक लोक प्रचलित पहेली देखिए जो मक्का के भुट्टे को लेकर बनाई गईं है…..
“हरा था मन भरा था , हजार मोती जड़ा था
राजाजी के बाग़ में, दुशाला ओढ़े खड़ा था।”
पहेली साहित्य पर इस पहली से अपनी चर्चा शुरू करते हुए साहित्यकार डॉ . कृष्णा कुमारी बताती हैं पहेलियां अन्यान्यं विधाओं की तरह ही अत्यंत प्राचीन विधा है, जो रोचकता ,ज्ञान , जिज्ञासा और स्वस्थ मनोरंजन से भरपूर होने के कारण आदिकाल से लोक जीवन का अभिन्न अंग रही हैं । पहेलियाँ लोक व्यवहार में मनोरंजन के संदर्भ में अहम् भूमिका निभाती हैं, चाहे शादी –ब्याह हो ,तीज – त्योहारों हो या इसी प्रकार का अन्य समारोह । बिटिया को जंवाई राजा और ससुराल वाले लिवाने आते हैं, तब रात को महिलाएं पहले उन में मीठी – मीठी गालियां गाती हैं तत्पश्च्चात उन से पहेलियाँ पूछती हैं और सही उत्तर नहीं देने पर मीठी सी धमकी भी दी जाती है | यह दौर आधी–आधी रात तक चलता रहता है । यह हमारी परम्परा रही है । इसी बहाने जंवाई सा की बुद्धि का परिक्षण भी जाया करता है । विदेशों में भी यह कला पाई गई है ।
कृष्णा जी डॉ देवसरे का संदर्भ देते हुए बताती हैं उन्होंने लिखा है, ” पहेली बूझने की कला को यदि ज्ञानवृद्धि का एक माध्यम या सामान्य ज्ञान को बालोपयोगी परीक्षा कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी । वास्तव में यह ऐसा खेल कि इसमें बच्चों को आनंद भी आता है और ज्ञान वर्द्धन भी होता है’।”
बच्चों के लिए पहेली का क्या महत्व है के उत्तर में वे कहती हैं पहेली साहित्य की ऐसी विधा है जो बालकों को चीजों की विशेषताओं के संदर्भ में जानकारी देती है एवं खेल–खेल में आनंद और ज्ञान भी प्रदान करती हैं ।पहेलियाँ जीवन में रस ही नहीं घोलती हैं अपितु चिंतन–मनन के अनंत द्वार भी खोलती हैं | ये हास्य- विनोद और जिज्ञासा का से भरपूर होती हैं , इसीलिए बालकों की सब से प्रिय विधा है। पहेलियाँ जहाँ जिज्ञासा जाग्रत करती हैं वहीँ बुझा देने पर परम संतुष्टि की अनुभूति भी करवातीं हैं, एक बार ये सिलसिला प्रारम्भ होने के बाद निरंतर चलता रहता है क्योंकि पहेलियों का अपना अलग ही महत्त्व है। पहेलियाँ बच्चों और बड़ों को परम आनंद प्रदान करती हैं, लेकिन बालकों को तो उल्लास से भर देती हैं । बालकों की दुनिया कल्पना लोक में विचरती है , जहाँ रोमांच , रहस्य , रोचकता ,मनोरंजन नृत्य करते हैं |शायद इसी लिए उन्हें सब से जियादा आनंद पहेलियाँ बुझाने में आता है । पहेली होती ही ऐसी है जब तक न बुझे बालक उसे नहीं छोड़ पाते । चाहे जितनी भी माथापच्ची करनी पड़े और उत्तर मिलते ही , ख़ुशी से नाच उठते हैं | किलकारियां भरने लगते हैं |
अपनी बात को आगे बढ़ाती हुई वह कहती हैं कहानी और कविता के बाद पहेलियाँ बच्चों की प्रिय विधा है , कुछ पहेलियाँ तो जैसे जीवन का हिस्सा ही बन गई हैं जैसे – ‘ उल्टा सीधा एक समान तीन अक्षर का मेरा नाम ‘ , इस पहेली के कई–कई उत्तर हैं । इसी प्रकार एक पहेली पर आधारित एक प्रचलित फ़िल्मी गीत –‘ तीतर के दो आगे तीतर , तीतर के दो पीछे तीतर , आगे तीतर , पीछे तीतर , बोलो कितने तीतर ‘ | ( तीन ) इसीलिए पं .रामनरेश त्रिपाठी ने पहेलियों को ‘ बुद्धि का खेल’ बताया है – ” न जाने किस युग से चली आ रही ज्ञान की घुमावदार नदी को अभी तक लोग आगे ही बहाए लिए जा रहे हैं , उसे उन्होंने सूखने नहीं दिया है।”
साहित्य की दृष्टि से आप पहेली के अर्थ को कैसे देखती हैं के प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि ‘पहेली’ शब्द का ‘शिक्षार्थी हिंदी शब्दकोश’ सम्मत अर्थ है –
1 – प्रश्नात्मक उक्ति जिसमें बात का लक्षण बतलाते हुए यह कहा जाता है कि बताओ वह कौन सी बात है ।
२ –कोई गूढ़ बात जिसका निराकरण सहजपूर्ण हो ।
उपर्युक्त संदर्भ के अनुसार पहेली एक ऐसी उक्ति है जिस में प्रश्नात्मक भाव निहित होता है एवं बात के लक्षण बताते हुए इस प्रकार घुमा–फिरा कर प्रस्तुत किया जाता है कि लोग आसानी से उत्तर नहीं दे सकें। इस के लिए उन्हें मानसिक श्रम करना पड़ता है , और कई बार तो बात को इतनी गूढ़ता के रखा जाता है कि सामने वाला निरुत्तर हो जाता है और वह प्रश्न कर्ता से उत्तर बताने के लिए खुशामद करता है क्योंकि उत्तर जानने की उस की जिज्ञासा बहुत बलवती हो उठती है ।जिज्ञासा उत्पन्न करना पहेली की अति विशिष्टता मानी गई है ।
पहेलियों को लेकर कई मुहावरे भी लोक जीवन में प्रचलित हैं – ‘पहेलियाँ मत बुझाओं’, ‘जीवन एक पहेली है’ आदि । पहेलियाँ गद्यात्मक और पद्यात्मक दोनों प्रकार की होती हैं और यह लक्षणा शब्द शक्ति से ओतप्रोत होती हैं।| पहेलियाँ आकार –प्रकार , रंग – रूप , स्वभाव , गुण- धर्म , गणित , समान धर्म वाले शब्दों के आधार पर कई प्रकार की हो सकती हैं । पहेली का विषय कुछ भी हो सकता है यथा –प्रकृति,घरेलू चीजें , खाने – पीने की चीजें, शिक्षा – ज्ञान ,शारीर के अंग आदि – आदि । पहेली गढ़ना बच्चों का खेल नहीं है इस के लिए बहुत श्रम करना होता है, क्योंकि इसे गढ़ने में उचित भाषा और सशक्त प्रस्तुतीकरण जरुरी है। हाँ , इनका उत्तर निश्चित होता है।
पहेलियों के उदय के के बारे में कुछ बताएं ये कब से प्रचलन में आई पर वे कहती हैं, सुनिश्चित, पहेलियों का जन्म भी मानव सभ्यता के प्रादुर्भाव के साथ साथ ही हुआ होगा। खेल ही खेल में इन का सृजन हुआ होगा । किसी एक ने दूसरे व्यक्ति के ज्ञान का परिक्षण करने के भाव से बात को घुमा – फिरा कर या गूढ़ बना कर पूछा होगा , उत्तर मिलने पर भी और नहीं मिलने पर भी , दोनों व्यक्ति अन्य लोगों से आनंद लेने के लिए पूछते गए होंगे और यह क्रम बनता गया होगा , जिस का आधुनिक स्वरुप आज हमारे समक्ष है । डॉ.नागेश पांडेय ‘संजय’ के अनुसार – ” विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में बाल पहेलियाँ प्राय देखने को मिल जाती हैं । कहना अनुचित न होगा कि पहेलियाँ किसी सफल बाल पत्रिका का महत्वपूर्ण घटक हैं । कहानी और कविता के बाद बच्चों का रुझान पहेलियों की ओर ही अग्रसर होता होता है । यह भी संभव है कि वे सब कुछ छोड़कर सर्वप्रथम पहेलियों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें और अपनी घ्यान स्थिति का परिक्षण करके आल्हादित हों । “
आगे बताती हैं वर्गीकरण की दृष्टि से राधेश्याम प्रगल्भ ने पहेलियों को पांच प्रकार से विभक्त किया है –
1-जिन का उत्तर पहेलियों में ही छिपा हो ।
२-जिन का उत्तर सरलता से पकड में आ जाये ।
3-गणितीय शिक्षा में सहायक ।
4-शब्द के आदि , मध्य और अंत के लोप पर आधारित पहेलियाँ ।
5-दो प्रश्नों के एक उत्तर वाली पहेलियाँ ।
अन्य विधाओं की भाति पहेलियों का जन्म भी संस्कृत भाषा से हुआ है । संस्कृत में इन्हें प्रहेलिका कहा जाता है । आदि ग्रन्थ ऋग्वेद , ब्राह्मण ग्रन्थ , उपनिषदों तथा अन्य ग्रंथों में भी इन का उल्लेख मिलता है । विदेशों में भी यह कला पाई गई है । देवसरे जी ने इस संदर्भ में लिखा है – ‘’ मिश्र में इस का बहुत प्रचलन था । अरब और फारस में भी काफी पुरानी पहेलियाँ मिलती हैं। फांस में अठारहवीं शताब्दी में एक ऐसा संग्रह मिला है जिसमें डेढ़ हजार पहेलियाँ संग्रहीत हैं ।
पहेली पर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं जहाँ तक हिंदी भाषा का प्रश्न है, लगभग सभी विद्वानों और विचारकों ने अमीर खुसरो को हिंदी में पहेलियों का जन्मदाता माना है । बाल साहित्य के आदि समीक्षक निरंकार देव सेवक ने तो अमीर खुसरो को हिंदी में बच्चों का पहला कवि माना है । आज भी अमीर खुसरों की पहेलियाँ समाज में सर्वाधिक प्रचलित और लोक प्रिय हैं ।सामान्यतया किसी भी व्यक्ति से खुसरो की पहेलियों को सुनी और पूछजा सकती हैं । अमीर खुसरो की पहेलियों का महत्व साहित्यिक दृष्टि से भी है , भाव , भाषा और प्रस्तुतिकरण उत्तम है । इन की सब से अधिक प्रचलित पहेलियों में से कुछ दृष्टव्य है —
‘ एक थाल मोती से भरा ,सब के सर पर औंधा धरा
चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे’ ( उत्तर आकाश)
एक अत्यंत लोक प्रिय ‘कह मुकरनी’ जो पहेली का ही रूप है —
वो आये तो शादी होय , उन बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें उन के बोल , क्यों सखि सजन, ना सखि ढ़ोल ‘
डॉ. भोला नाथ तिवारी ने अमीर खुसरो के पहेलियों के निम्न रूप निर्धारित किये हैं –
1– इन का उत्तर पहेली में हो।
२ – जिन का उत्तर पहेली में न हो ।
रोचकता , मनोरंजन , जिज्ञासा और आनंद से भरपूर ये पहेलियाँ बाल साहित्य की अनमोल थाती हैं। बाल पहेलियों की उपयोगिता के संदर्भ मे पद्मश्री लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने दीन दयाल शर्मा की कृति ‘इक्कावन बाल पहेलियाँ’ की भूमिका में लिखा है – ” पहेलियाँ केवल बच्चों का मनोरंजन ही नहीं करती वरन उन में जिज्ञासा भी जगाती हैं । पहेलियाँ बच्चों की स्मरण शक्ति बढाती है।|ज्ञान बढाती है ।अपने परिवेश को सीखने –समझने का अवसर प्रदान करती है। बौद्धिक क्षमता बढाती है तथा बच्चों को तर्कशील बनाती हैं । इसलिए ये विधा बालोपयोगी मानी जाती है ।”
वे कहती हैं कि इस प्रकार अमीर खुसरो से प्रारंभ होकर पहेलियों की यात्रा अनेक रंग – रूपों में आज अनवरत जारी है । खुसरो के बाद भारतेंदु हरिश्चचंद्र ने पहेलियों की परम्परा को आगे बदाया । इन्होनें ‘कह मुकरनियाँ’ (पहेलियों का ही एक रूप ) लिखीं जिन्हें बालकों ने खूब पसंद किया | ऐसी एक कह मुकरनी प्रस्तुत है –
‘ सतएं – अठएं मा घर आवे , तरह – तरह की बात सुनावै
घर बैठे ही जोड़े तार , क्यों सखि सज्जन, नहिं अखबार ‘
इसी श्रृखंला में घासीराम , खागीनियां , पंडित ने भी पहेलियों की विधा को खूब समृद्ध किया । प्रस्तुत है घासीराम की कौतुहल जाग्रत करने वाली अत्यंत लोकप्रिय एक पहेली —-
‘कारो है पर कौआ नाहिं, रुख चढ़े पर बंदर नाहिं
मुहं को मोटो बिडवा नाहिं , कमर को पतलो चीता नाहिं ‘। (चींटा )
पत्रिकाओं के उद्धरण देते हुए अपनी बात को पुष्ट करते हुए बताती हैं, स्वाधीनता के पूर्व प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं ने जैसे – ‘ शिशु’(1915) , ‘बालसखा’ ( 1917) , ‘वानर’ ( 1931)‘बालक’ (1926 ) , किशोर’ (1938) , बाल बोध’ (1947), आदि ने भी पहेलियों को स्थान देकर इस विधा को बहुत समृद्ध किया ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्च्चात बाल पहेलियों के विकास ने और गति पकड़ी और अन्य विधाओं की पहेलियों में भाति- भाति के नए–नए विषयों का समावेश हुआ । ज्ञान – विज्ञानं , भूगोल , सामाजिक संदर्भ , धर्म , गणितीय , वर्णनात्मक , पर्यावरण , तकनीक , इंटरनेट , कम्प्यूटर से सम्बंधित पहेलियाँ लिखीं जाने लगीं | मूर्धन्य बाल साहित्यकारों ने नए–नए विषयों पर पहेलियां लिख कर बाल साहित्य को परिपुष्ट किया । डॉ. श्री प्रसाद , जय प्रकाश भारती , रामेश्वर दयाल दुबे , गोपीचंद श्रीनागर ,घमंडीलाल अग्रवाल , कुलभूषण माखीजा , जगदीश तोमर , महेश सक्सेना , अजय शर्मा ,राम वचन सिंह ‘आनंद’ , डॉ अजय जनमेजय , शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी , बाबूलाल शर्मा ‘प्रेम’ , ममता , संकेत , मौ फहीन , डॉ गणेश दत्त सारस्वत, दीनदयाल शर्मा , चाँद मोहम्मद घोसी(वर्ग पहेलियाँ , शब्द ज्ञान पहेलियाँ ) ( आदि ने बाल पहेलियों के संदर्भ में उल्लेखनीय योगदान किया , जो अनवरत जारी है । वर्तमान में कथा पहेलियां और कविता पहेलियाँ भी लिखी जा रही हैं ।
कुछ दैनिक समाचार–पत्रों में ‘शब्द ज्ञान पहेली’ शीर्षक से प्रतिदिन पहेली का प्रकाशन किया जा रहा है जिसे पाठक –गण पूरे मनोयोग से हल करते देखे जा सकते हैं । डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल की कम्प्यूटर के माउस पर लिखी एक पहेली प्रस्तुत है –
‘ कम्प्यूटर भी मुझ से चलता , चाहे मुझे गणेश
मैं हूँ नन्हा किन्तु काम का , बोले पूरा देश ‘
( उत्तर माउस )
पंजाब सौरभ में प्रकाशित अनिल कुमार की कुछ पहेलियाँ –
तीन अक्षर का मेरा नाम’
आता हूँ लिखने के काम ।
आदि कटे हाथी बन जाऊँ,
अंत कटे कौआ कहलाऊँ। ( उत्तर कागज )
बालहंस में प्रकाशित एक पहेली जो बालकों को ‘अंगूर खट्टे हैं’ मुहावरे से भी परिचित करवाती है –
गोल – गोल से छोटे फल हम ,
जो भी खाए वो जाने ।
खाने लगो, ढेर से खा जाओ ,
स्वाद बस लोमड़ी जाने ।’ (उत्तर अंगूर)
पहेली के साथ वर्तमान काल में कह मुकरनियाँ भी लिखीं जा रही हैं, प्रस्तुत है डॉ शशि गोयल की एक कह मुकरनी –
नैन चलावे नाच दिखावे
नए रूप धर मोहे रिझावे
बैठे रूप निहारे बीवी
क्यों सखि साजन , ना सखि टी. वी.
वे बताती हैं बाल साहित्य की लुप्त होती इस विधा को श्री दीनदयाल शर्मा ने ‘इक्कावन बाल पहेलियाँ’ के माध्यम से पुन जीवित करने का सार्थक प्रयास किया है राष्ट्र नायकों, घरेलु चीजों , पशु – पक्षियों , जीव–जंतुओं पर अनेक सुन्दर पहेलियों का सृजन किया है । प्रस्तुत हैं एक पहेली –
माँ स्वरुप रानी थी जिनकी,
पिता थे मोतीलाल ।
फूल गुलाब का जिन्हें प्रिय था,
प्यारे बाल गोपाल ।। ( जवाहरलाल नेहरू )
पहेलियां हमारी संस्कृति , लोक जीवन , साहित्य का अहम् हिस्सा रही हैं, जो आनंद , मनोरंजन देने के साथ साथ बुद्धि का परिक्षण करते हुए ज्ञान के वातायन खोलती हैं ।
संपर्क
डॉ. कृष्णा कुमारी
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