Friday, January 31, 2025
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रामचरितमानस में शृंगार

आनंद मानव जीवन का प्रमुख ध्येय माना गया है। आनंद शब्दों से परे एक ऐसी अद्भुत, अकथनीय महानुभूति है जिसे मात्र आत्मसात ही किया जा सकता है ।आनंद का आस्वाद इतना अपूर्व है कि इसका आज तक कोई विलोम शब्द तक नहीं मिल पाया है। सच पूछा जाये तो आनंद अर्थात रस ही जीवन है । जीवन के साथ  – साथ काव्य में भी रस भी भूमिका सर्वोपरि है, निर्विवाद है। सर्व प्रथम आचार्य भरत मुनि ने रस को काव्य की आत्मा कहा है । उनके पश्चात् कई दार्शनिकों, मनीषियों ने रस सिद्धांत के संदर्भ में अपने- अपने तर्क प्रस्तुत किये, सारांशत:, काव्य में नौ रसों का निरूपण किया गया है, जिन में शृंगार रस को रसराज की उपाधि से सुशोभित किया गया है।
शृंगार के दो पक्ष हैं, संयोग और  वियोग या विप्रलम्भ । इस  रस का  स्थाई भाव  है रति । नायक और नायक के प्यार, अनुराग, प्रीति, प्रणय के वर्णन  में शृंगार रस की निष्पत्ति  होती है। दोनों के मिलन को संयोग एवं बिछुड़ने पर वियोग रस कहा गया है | आदि काल से अध्यतन प्राय: सभी काव्य मनीषियों ने अपने महाकाव्यों, खंड काव्यों या अन्य रचनाओं में शृंगार रस का निरूपण  कमोबेश किया है । हम तुलसीकृत महाकाव्य रामचरितमानस के संदर्भ में दृष्टिपात करें तो इस में सभी रसों का विवरण  मिलता है, जो कि  महाकाव्य के लिए अनिवार्य तत्त्वों में शामिल है।
 अन्य रसों के साथ मानस में शृंगार रस की बहुत सरस, अभिराम, मर्यादित धारा प्रवाहित हुई है।
तुलसी ने काव्य के नायक श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम के स्वरुप में दर्शाया है | राम विष्णु के अवतार हैं, जो मानव के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं, अत: साधारण  मनुष्य की तरह लीला करते  है। मानस में तुलसी ने शृंगार रस को बहुत सौम्यता, मर्यादा, अलौकिकता और माधुर्यता के साथ चित्रित किया है । महाकाव्य के नायक श्रीराम और  नायिका सीता का प्रथम संयोग मिथिला की पुष्प वाटिका में होता है, जहाँ राम गुरु – आज्ञा से वाटिका का अवलोकन करने जाते हैं, उसी समय गौरी- पूजन के लिए  सीता का प्रवेश होता है। उस समय सीता की एक चंचल सखि वाटिका को देखने के लिए इधर -उधर भ्रमण करती है , तभी उसकी दृष्टि राम एवं लक्ष्मण राजकुमारों पर पड़ती है और  उनके अलौकिक , अनुपम सौन्दर्य  के देख कर भाव विभोर होकर चकित रह जाती है । बेसुध सी होकर सीता के पास आकर  कहती है कि मैंने दो राजकुमारों को देखा है, जिनके सौन्दर्य का बखान असंभव है क्योंकि –
स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।- अयोध्याकांड
सखि की बात सिया को बहुत सुहाती है और उसके नैत्र भी राजकुमारों के दर्शन हेतु अकुलाने लगते हैं-
तासु वचन अति सियहि सोहाने |दरस लागि लोचन अकुलाने ।। -बालकाण्ड
नारद जी के वचन याद करके सीता के मन में पवित्र प्रीति के अंकुर प्रस्फुटित होने लगते हैं । दरस की उत्कंठा में सीता डरी हुई मृगछौनी की भाति इधर- उधर देख रही है-
 सुमिरि सिय नारद बचन । उपजी प्रीति पुनीत ।।
चकित बिलोकत सकल दिसि। सिसु मृगी सभीत ।।बालकाण्ड
उधर कंगन, करधनी, पाजेब की मधुर ध्वनि सुनकर श्रीराम, लक्ष्मण से कहते हैं कि ऐसी ध्वनि आ रही मानो कामदेव ने  विश्व को जीतने के लिए डंके पर चोट मारी हो । ऐसा कह कर  राम ने फिर उस ओर देखा , सीता के मुख रूपी चंद्रमा को निहारने के लिए उनके नैत्र चकोर बन गये। सिया की रम्य, चारू  छवि देख कर राम को बहुत सुख मिला , जिसकी सराहना के लिए राम स्वयं निशब्द हो गये ।
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा |सिय मुख ससि भए नयन चकोरा ।।
देखि सीय सोभा सुख पावा| ह्रदय सराहत  बचनू न आवा ।।- बालकांड
उधर सीता राम की अभिराम के  दर्शन के लिए बहुत व्याकुल है- तब सखियों ने  लता की ओट से में सुंदर और गौर कुमारों को दिखलाया ।उनके रूप को देख जनकनंदिनी के नैत्र ललचा उठे , ऐसे प्रसन्न हुए कि मानो उन्होंने अपने खजाना को पहचान लिया ।
 थके नयन रघुपति छबि देखें | पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें  ।।
अधिक सनेहं  देह भै मोरी |सरद ससिहि जनुचितव चकोरी ।।- बालकाण्ड
रघुनाथ की आभा को  देख कर सिया के नैत्र थकित हो गये । पलकों ने गिरना छोड़ दिया । अधिक स्नेह के कारण तन विव्हल हो गया । मानों शरदऋतु के चंद्रमा को चकोरी (बेसुध हुई) देख रही हो।
कुछ देर बाद जब दोनों भाई लतामंडप में से प्रकट हुए और सखियों ने सीता से कहा कि गिरिजा का ध्यान बाद में करना, अभी राजकुमारों को देख लो। तब सीता ने सकुचा कर नैत्र खोले और  रघुकुल के दोनों सिंहों को सामने खड़े देखा –
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे | सन्मुख दोउ रघुसिन्धु निहारे ।।
इस प्रकार राम और सीता के ह्रदय में प्रथम बार परस्पर प्रणय की निर्मल , दिव्य धारा प्रवाहित हुई। वे एक दूजे को  प्रथम बार निहारते हैं , परस्पर आकर्षित होते हैं| मन ही मन राम और सिया का चित्त एक दूसरे की ओर सहज आकृष्ट हो उठता है । तुलसीदास जी ने यहाँ शृंगार रस का  पूरी तन्मयता , पवित्रता , समर्पण के साथ उद्रेक किया है जो अतुलनीय है।
जब श्रीराम को वनवास की खबर सुनते ही सीता के हृदय में दु:सह संताप छा गया,वह अकुला उठी, विलाप करने लगी । अंतत:,  तब सीता राजभवन के सारे सुखों को त्यागकर राम के साथ वनवास को जाती है, सीता ने पलंग के ऊपर, गोद और हिंडोले  को छोड़ कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा,  वो सीता कंटकों से भरे जंगल में अपने परम स्नेहिल  श्रीराम के साथ जाने को तत्पर हो जाती है, उसी में परम आनंद मानती है।  –
पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा  । सिय न दीन्ह  पगु  अवनि कठोरा ।।- अयोध्याकाण्ड
दशानन द्वारा सीताहरण के प्रसंग में जब श्रीराम सीता के बारम्बार अनुनय, विनय, निवेदन  करने पर स्वर्ण-  मृग के आखेट के लिए जाते हैं और राम के पुकारने की आवाज़ (मायावी) सुनकर सीता लक्ष्मण को भी राम के पीछे जाने को विवश करती हैं। जब लक्ष्मण  सहित राम गोदावरी तट पर आते हैं और सीता विहीन आश्रम देख कर साधारण मनुष्य की भाति दीन और व्याकुल होकर विलाप करने लगते हैं । लक्ष्मण अपने अग्रज श्रीराम को बार -बार समझाने के प्रयास भी करते हैं किन्तु राम का विचलित होना स्वाभाविक है ।
आश्रम देखि जानकी हीना ।भय विकल जस प्राकृत दीना ।
हा गुन खानि जानकी सीता । रूप सील ब्रत नेम पुनीता ।।
लछिमन समुझाए बहु भांती| पूछत चले लता तरु पांती ।।-  अरण्यकांड
सिया के वियोग में राम इतने विकल हो जाते हैं कि पशु – पक्षियों , वृक्षों, लताओं, भौरों  अर्थात वन के प्रत्येक जर्रे – जर्रे से,  सब से सीता के लिए पूछते  हैं कि तुमने कहीं जानकी को देखा है । खंजन, तोता, कबूतर , हिरन , मछली, भौरों का समूह, कोयल आदि पशु – पक्षी आज अपनी प्रशंसा  सुन रहे हैं। यहाँ  तुलसी के .गरिमापूर्ण, अद्वितीय ,विलक्षण विप्रलंभ शृंगार का कोई सानी नहीं| अत्यंत , सजीव ,अद्भुत , रुचिर, अतुल्य वर्णन संत तुलसी ने किया है| ऐसा शृंगार रस हिंदी साहित्य में दुर्लभ ही है-
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी । तुम्ह देखि सीता मृगनैनी ।।
खंजन सुक  कपोत मृग मीना । मधुप निकर कोकिला प्रबीना ।। अरण्य कांड
वर्षा ऋतु मनभावन , अभिराम, सौन्दर्य , माधुर्य , प्रेम से भरपूर , रमणीय  होती है|अखिल चराचर प्रकृति खिल उठती है । बालि और सुग्रीव की कथा के पश्चात वर्षा ऋतु का आगमन होने वाला देख कर राम प्रवर्षण पर्वत पर निवास करते हैं  जहाँ सुंदर वन फूला हुआ है । भौंरें गुंजार कर रहे हैं, इस मनोरम एवं सुंदर पर्वत पर सारे देवगण  भौंरे, पशु , पक्षी बन कर प्रभु की सेवा करते हैं|l । सारा वन मंगलमय हो उठा, राम एक स्पटिकमणिकी उज्ज्वल शिला पर लक्ष्मण के साथ सुखपूर्वक विराजमान हैं । पावस का सुहाना दृश्य उपस्थित है।  श्रीराम लक्षण से कहते हैं, देखो भौंरों के झुँड बादलों को देख कर नाच रहे हैं| आकाश में बादल उमड़ -घुमड़  कर घोर गर्जना कर रहे हैं। ऐसे में प्रिया जनकसुता के बिना मेरा मन  बहुत डर रहा है, अधीर हो रहा है । बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं , जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती। तात्पर्य है कि  राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम भी सीता का विरह  सह नहीं पाते-
 घन घमंड नभ गरजत घोरा ।प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।।
दामिनी दमक रह न घन माहीं । खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ।। किष्किन्धा कांड
 यहाँ  तुलसी ने ‘घन – घमंड’ शब्द का बादलों के लिए प्रयोग किया है, जो हिंदी साहित्य में अभी तक संभवत: नहीं हुआ है, यह पंक्ति लोक में मिथक बन चुकी है, जुबान पर चढ़ चुकी है, अद्भुत, अद्वितीय , अकल्पनीय कल्पना ….!
वर्षा बीत जाने पर राम, लक्षमण के कहते हैं कि – बरसात बीत गई, निर्मल शरद ऋतु आ गयी । परन्तु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली |एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीत कर जानकी को ले आऊँ ।
बरषा गत निर्मल ऋतु आई ।सुधि न तात सीता कै पाई।।
एक बार कैसेहुं सुधी जानौं । कालहु जीति निमिष महुं आनौं ।। -किष्किन्धाकांड
अहा, कितना मनोरम वियोग शृंगार रस की छटा तुलसी ने यहाँ उकेरी है, जो अतीव श्लाघनीय है|
सीता का हरण करके दशानन उसे लंका की अशोक वाटिका में ले जाता है जहाँ सीता राम के विरह में बहुत विकल है, जिसे तुलसी ने यूँ उदृत किया है। जनकनंदिनी अपने प्रिय श्रीराम का निमिष-  निमिष स्मरण करती रही , जब तक लंका में रही । इधर दशानन सीता को अपनी पटरानी बनने के लिए बार – बार विवश करता है,भय दिखता है । एक बार तो रावण  के मजबूर करने जनकतनया त्रिजटा से कहती  है कि रावण की शूल के सामान दुःख देने वाली वाणी नहीं सुनी जाती । वह इतनी विचलित हो जाती है कि शरीर छोड़ने को तक को तैयार हो जाती है, कितुं यह भी संभव नहीं हो पाता क्योंकि –
कह सीता विधि भा प्रतिकूला ।मिलिहि न पावक मिटीहि न सूला ।।
देखिअत प्रकट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकऊ तारा ।। -सुन्दरकांड
सीता मन ही मन कहने लगीं कि क्या करूं विधाता ही विपरीत हो गया। न अग्नि मिलेगी न पीड़ा मिटेगी । आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता। तब त्रिजटा राक्षसी अपने स्वप्न को सुनाते  देते हुए सीता को बहुत प्रकार से धीरज बंधाती है, आश्वस्त करती है।
जब पवनसुत सिया की खोज करके आते हैं और  श्री राम को सीता की विरह -विधग्ध हालत का बखान करते हुए कहते हैं –
विरह अगिनि तनु तूल समीरा ।स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ।।
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी । जरैं न पाव देह बिरहागी ।। -सुन्दरकांड
विरह अग्नि है, शरीर रुई है और श्वास पवन , इस प्रकार यह शरीर क्षण मात्र में जल सकता है। किन्तु नैत्र अपने हित के लिए , प्रभु का स्वरुप देख कर सुखी होने के लिए जल (आँसू )बरसाते हैं, जिस से विरह की अग्नि से देह जलने नहीं पाती।
सीता का दुःख एवं दीन दशा को सुनकर सुख के धाम श्रीराम के कमल नेत्रों में जल भर आया ।
सुनि सीता दुःख प्रभु सुख अयना ।भरि आऐ जल राजीव नयना ।।- सुंदरकांड
उधर श्रीलंका में राम के वियोग में अशोक वाटिका में सीता का एक -एक निमिष  युगों सम व्यतीत होता है। सीता के हर श्वास में  राम का नाम ही समाया  होता है । एक क्षण भी वह अपने परम प्रिय श्रीराम को विस्मृत नहीं कर पाती| जब -जब भी रावण सीता के निकट आने की कोशिश करता है , उसे  धमकाता है ,हर बार सीता एक तिनके की ओट लेकर रावण के बात करती है अर्थात तिनका एक आवरण का प्रतीक बन जाता है ।
 तृण धरी ओट कहती वैदेही , सुमिरि अवधपति  परम सनेही ।
सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ।। सुन्दरकांड
 जनकसुता रावण से कहती है कि रे पापी ! तू मुझे सूने में हर लाया है, । रे अधम !रे निलज्ज ! तुझे लज्जा नहीं आती ?
रामचरितमानस महाकाव्य  में नायक श्रीराम और नायिका  सीता के संयोग और वियोग दोनों रसों उद्रेक अन्यान्य कई  प्रसंगों और  स्थलों में पूरी सजीवता, तन्मयता,रोचकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है । इस के  अतिरिक्त लक्ष्मण एवं उर्मिला के संदर्भ में विप्रलम्भ शृंगार का समुचित निरूपण तुलसीदास जी ने किया है। इस प्रकार रामचरितमानस में रसराज शृंगार रस की निष्पत्ति पूरी दिव्यता, आस्था, पवित्रता, अलौकिकता, उत्कृष्टता  एवं भव्यता के साथ हुई  है।
डॉ. कृष्णा कुमारी
 सी- 368, तलवंडी
 कोटा (राज.)

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