मुंबई के श्री भागवत परिवार द्वारा प्रकाशित राममय भारत ग्रंथ के विमोचन के अवसर पर तुलसी जयंती की पूर्व संध्या पर जाने माने कलाकार, नाटककार, संगीतकार और गायक शेखर सेन के एकांकी नाटक तुलसी का मंचन एक ऐतिहासिक प्रस्तुति बन गया। शेखर सेन के तुलसी एकांकी की ये 168 वीं प्रस्तुति थी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार श्री वासुदेव कामथ । श्री वीरेन्द्र याज्ञिक ने कार्यक्रम की भूमिका पर प्रकाश डाला। श्री शेखर सेन ने पूरी प्रस्तुति में हर एक संवाद सीधा मंच पर प्रस्तुत किया इसके लिए उन्होंने किसी तरह के बैकग्राउंड स्कोर या लिखित संवाद नहीं पढ़ा। कार्यक्रम के अंत में उन्होंने सप्रमाण दर्शकों को बताया कि पूरी प्रस्तुति का एक एक संवाद उन्होंने मौखिक ही प्रस्तुत किया है।
शेखर सेन तुलसी के रूप में मंच पर आते हैं और ठाकुर कॉलेज के खचाखच भरे सभागृह में उपस्थित दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। तुलसी के जन्म के 500 साल बाद आकर तुलसी के शब्दों में जब उनके बचपन से लेकर विवाह, रामचरित मानस के लिखने तक की गाथा कारुणिक प्रसंगों, भावपूर्ण अभिनय और तुलसी को साक्षात प्रस्तुत कर करते हैं तो ऐसा लगता है मानों दर्शक किसी टाईम मशीन में यात्रा करते हुए 500 साल पहले के उस दीन हीन तुलसी से साक्षात संवाद कर रहे हैं जिसने अपनी एक पुस्तक से पिछले पाँच सौ वर्षों से भारतीय सनातन परंपरा, राम के चरित्र और रामलीला की संस्कृति में प्राण फूँक रखे हैं।
शेखर सेन की यह पूरी प्रस्तुति अभिनय, कला, संवाद भावभंगिमा, इतिहास संस्कृति और भाषा के प्रवाह से दर्शकों के मन मस्तिष्क से ऐसे गुजरती है मानों वे खुद इस पूरे कालखंड के गवाह बन गए हैं। फिल्म, टीवी और मनोरंजन के फूहड़ता से भरे कार्यक्रमों की भीड़ में शेखर सेन जिस आत्मविश्वास से तुलसी के संघर्षमयी जीवन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के इस लुप्त प्राय अध्याय को जीवंत करते हैं उसका अनुभव और स्वाद एक अलौकिक आनंद का गवाह बन जाता है।
शेखर सेन तुलसी के रूप में उनके जीवन के विविध अध्यायों को परत-दर-परत जब सामने लाते हैं तो कई बार दर्शक ये जानकर हैरान रह जाता है कि जिस रामचरित मानस की वजह से गाँव गाँव में पाँच सौ साल से रामलीलाएं चल रही है, टीवी पर रामायण के नाम से कई धारावाहिक बन गए हैं उनको देखने के बाद उसे कभी इस बात का एहसास ही नहीं हो पाता है कि रामचरित मानस के रचयिता तुलसी का संघर्ष और समर्पण किस सीमा तक था।
शेखर सेन की यह प्रस्तुति इस बात का भी एहसास दिलाती है कि जिस मध्य काल में मुगलों का आतंक, युध्द की विभिषिका के बीच भारतीय जनमानस गुलामी की जिंदगी जी रहा था और तलवारों का दौर था उस युग में अपनी एक कलम से तुलसी ने पूरे इतिहास, भविष्य और संस्कृति के पन्नों पर एक नया अध्याय लिख दिया।
नाटक के सधे हुए मार्मिक संवाद शेखर सेन ने स्वयं लिखे हैं और इसे संगीतबध्द भी किया है। एक-एक संवाद तुलसी की विवशता, जीजिविषा और संकल्प की सिध्दि का गवाह सा बन जाता है। पूरे मंचन में वे 52 बार गायन गायन प्रस्तुत करते हैं और हर दोहे और चौपाई के साथ स्वरों और संगीत का आरोह अवरोह पूरी प्रस्तुति में रस घोल देता है।
बाल्यकाल से लेकर रामबोला और उसके बाद तुलसी नाम पड़ने का कारण, राम को 14 वर्ष वनवास का कारण, पत्नी रत्नावली से मिली उलाहना से उपजे ज्ञान जैसे तमाम प्रसंग शेखर जी ने जिस भावप्रवणता से प्रस्तुत किए और मंच से दर्शकों के साथ तादात्म्य बनाए रखा वह उनके अभिनय और प्रस्तुति का चरमोत्कर्ष था।
तुलसीदास जी का विवाह 1526 ई. (वि.सं. 1583) में बुद्धिमती या रत्नावली नाम की एक सुन्दर लड़की से हुआ था। वे राजापुर नामक गांव में अपनी पत्नी के साथ रहते थे।
उनका एक बेटा भी था जिसका नाम तारक था। बचपन में ही उसका निधन हो गया। तारक की मौत के बाद तुलसीदास जी को अपनी पत्नी से बहुत अधिक आसक्ति हो गई थी। वे उससे कभी दूर नहीं रह सकते थे। एक दिन रत्नावली रक्षा बंधन के लिए अपने भाई के साथ मायके चली गई। तुलसीदास जी उस समय बाजार में पत्नी के लिए मिठाई लेने गए थे लेकिन लोगों को रामकथा सुनाने में इतने मगन हुए कि ये भूल ही गए कि उनको मिठाई लेकर घर जाना है। जब तुलसीदास जी को इसका पता चला तो वे रात में ही अपनी पत्नी को देखने के लिए उसके घर पहुंच गए। रत्नावली ने उन्हें कहा कि यह उनका शरीर है जो मांस और हड्डियों से बना है। अगर वे उसके प्रति जो मोह रखते हैं, उसका एक भाग भी राम की भक्ति में लगाएं तो वे संसार की माया से मुक्त होकर अमरत्व और आनंद का अनुभव करेंगे। रत्नावली के इन शब्दों सुनकर तुलसीदास के मन में राम भक्ति का उदय हुआ।
शेखर सेन ने इन सभी घटनाओँ के एक एक दृश्य को अपने कुशल आंगिक अभिनय और चेहरे के भावों से इस सजीवता से प्रस्तुत किया कि दर्शकों को पूरे समय यही एहसास होता रहा कि एक पात्र में कई पात्र समाए हुए हैं। खासकर महिला स्वर और अलग अलग पात्रों की आवाजों को उके रही अंदाज में प्रस्तुत करना दर्शकों के लिए एक रोमांचकारी अनुभव था।
राम और हनुमान के साथ उनका सीधा संवाद इस शाम को यादगार बना दिया। मनसुखा की आवाज लगाते तुलसीदास, प्रभु श्रीराम के बाल रूप का दर्शन और बजरंग बली का हर समय साथ पाकर तुलसीदास ने श्रीराम चरित मानस लिखा। विनय पत्रिका रची। श्री हनुमान चालीसा गढ़ी। इन सभी रचनाओँ के सृजन की प्रेरणा तुलसी को कैसे मिलती गई और वे कैसे लिखते गए ये सब कुछ शेखर सेन ने इतनी लयात्मकता, भावप्रवणता और भावभंगिमा से व्यक्त किया कि अगर तुलसी भी कहीं ये कार्यक्रम देख रहे होते तो अपने इस रूपांतरण को देखकर चौंक जाते।
शेखर सेन का जन्म 1961 में हुआ था और उनका लालन-पालन छत्तीसगढ़ के रायपुर में एक बंगाली परिवार में हुआ। उनके पिता स्वर्गीय डॉ. अरुण कुमार सेन इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में कुलपति थे। उनके पिता और माता और स्वर्गीय डॉ. अनीता सेन ग्वालियर घराने के प्रसिध्द शास्त्रीय गायक और संगीतज्ञ थे।
उन्होंने अपने माता-पिता से संगीत सीखा, 1979 में संगीतकार बनने के लिए मुंबई चले गए और 1984 में गजल व भजन गाना शुरू किया। उन्होंने दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों से लेकर रसखान, रहीम, ललितकिशोरी, भूषण, बिहारी, कबीर, तुलसीदास, सूरदास जैसे कवियों की रचनाओँ का गायन से अपनी पहचान बनाई 1983 से कई महत्वपूर्ण भजन एल्बम प्रस्तुत किए हैं। वह अपने एकल अभिनय से संगीतमयी नाटकों “तुलसी”, “कबीर”, “विवेकानंद”, “सनमति”, “साहब” और “सूरदास” के कई मंचन देश और दुनिया में कर चुके हैं और लगातार कर रहे हैं।