Tuesday, December 3, 2024
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स्वामीमारायण के अलौकिक बचपन से लेकर स्वामीमारायण संप्रदाय की स्थापना की रोमांचक गाथा

एतिहासिक पृष्ठभूमि

अनादि काल से ही भारत अवतारों, ऋषियों और साधुओं से सुशोभित होता रहा है। जब-जब दुष्ट तत्व धर्म का दमन करते हैं, तब-तब भगवान धर्म की पुनः स्थापना के लिए धरती पर अवतार लेते हैं। त्रेता के युग में भगवान रामचंद्र और द्वापर के अंत में भगवान कृष्ण दो सबसे उल्लेखनीय अवतार रहे हैं।

भगवान कृष्ण के निधन के पाँच हज़ार वर्ष बाद, कलियुग में, दुष्टता का राक्षस अपने निर्वासन से बाहर निकल आया था, एक बार फिर लोगों के दिलो-दिमाग अंधकारमय होने लगा था। भारत भूमि जीवनदायी नैतिक और आध्यात्मिक पोषण से वंचित होने लगा था। धर्म, सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य के शाश्वत मूल्यों में निरन्तर बाघा आने लगी थी।

कलियुग के दौरान बुराई और आगजनी ने समाज पर अखण्ड राज किया और लोगों में अत्याचार और अविश्वास पैदा किया । तबके शासक अपने राजनीतिक संघर्षों में व्यस्त थे, लोग आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से पीड़ित थे। भगवान नर नारायण देव के तत्वावधान में बद्रीकाश्रम में मर्यादिक ऋषि उद्धवजी धर्मदेव और भक्तिमाता के समागम में पृथ्वी की स्थिति पर चिंता व्यक्त की गई। कैलाश की श्रृंखलाओं से ऋषि दुर्वासा वहां आए और सभी को यह कहते हुए भगा दिया कि चूंकि उन्होंने उनका अपमान किया है, इसलिए उन्हें मानव रूप धारण करना होगा और दुष्टों के हाथों कष्ट भोगना होगा।

इस पर धर्मदेव और भक्ति माता ने विनम्रता पूर्वक ऋषि को शांत किया और ऋषि के दर्शन की अपरिवर्तनीयता की घोषणा करते हुए दुर्वासा ने स्पष्ट किया कि धर्मदेव भक्ति माता के ब्राह्मण परिवार में जन्म लेंगे और उन सभी को मुक्त करेंगे और बुराई से उनकी रक्षा भी करेंगे।

नारायण ऋषि ने स्पष्ट किया कि वे धर्म के रक्षक के रूप में जन्म लेंगे और बुराई को मिटा देंगे। इस प्रकार घनश्याम के जन्म के साथ एक युग की शुरुआत हुई, जिन्होंने बुराई को मिटाने और धर्म की रक्षा करने के लिए विभिन्न रूपों में जन्म लेकर विविध लीलाओं का मंचन किया।

अनेक नामो वाले हैं स्वामीनारायण

स्वामीनारायण भगवान का बचपन का नाम घनश्याम पांडे है। जिन्होंने स्वामी नारायण संप्रदाय की स्थापना की थी। जिनके अन्यानेक नाम इस प्रकार है- श्रीहरि कृष्ण, हरिकृष्ण महाराज, श्रीकृष्ण, श्री हरि, सहजानंद स्वामी, घनश्याम शर्मा , सरजू दास, न्याय कारण, नीलकंठ वर्णी, नारायण मुनि देव, श्रीजी महाराज इत्यादि।

 इसके अलावा और भी नाम को उनके लिए प्रयुक्त हुआ है। पद्मपुराण’, ‘सप्तकन्दपुराण’ और ‘भागवत पुराण’ में नारायण के अवतार के बारे में संकेतात्मक जानकारी  मिलती है।

स्वामीनारायण मंदिर छपिया की स्थिति

उत्तर भारत के अवध प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के अयोध्या धाम से कुछ ही किमी की दूरी पर गोंडा नामक एक अत्यन्त पिछड़े जिले में यह पावन भूमि स्थित है। स्वामी नरायन छपिया, गोंडा जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूरी पर मनकापुर तहसील में पड़ता है। यहां स्वामी नरायन मंदिर प्रशासन यात्रियों के रहने व खाने के लिए खास इंतजाम करता है। परिसर में ही वातानुकूलित कक्ष के साथ ही अन्य इंतजाम भी हैं। छपिया स्वामी नारायण संप्रदाय के प्रर्वतक घनश्याम महाराज की जन्म और बचपन की कर्मस्थली है। यहां हर साल देश व विदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन-पूजन करने आते हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर यहां भारी भीड़ होती है। यहां गो-सेवा के साथ ही तालाब का दृश्य काफी आकर्षक है।

गोण्डा प्राचीन काल में कोशल महाजनपद का भाग था। अयोध्या राज्य का यह गोचारण क्षेत्र हुआ करता था। मुगलों के शासन में यह फरवरी 1856 ई . तक अवध का हिस्सा होते हुए मुगलों के आधीन आ गया था जो बाद में अंग्रेजों के कब्जे में आ गया।

स्वामीनारायण भगवान के पिता का नाम हरि प्रसाद पांडे (जिन्हें धर्मदेव के नाम से भी जाना जाता है) था। उनके पिता की जन्म तिथि  कार्तिक सुद 11, वि.स. 1796 थी । पिता का जन्मस्थान इटार , सहजनवा , गोरखपुर में स्थित था। जो बाद में छपिया मे आकर बस गए थे। गोरखपुर जिले के सहजनवा तहसील अंतर्गत ग्राम सभा इटार पांडेय से जुड़ी यह रहस्यमई बात भी है ।

सदियों पहले प्राचीन काल  में बांसी के राजा जब शिकार करने निकले थे। उस समय एक हिरण को अपना निशाना बनाये थे, लेकिन हिरण भागते भागते बाबा टेकधर के पास जा पहुंचा। बाबा टेकधर ब्राह्मण परिवार के तपस्वी तेजस्वी एवं महान ऋषि थे। उन्हे बरम बाबा भी कहा जाता है। जब राजा ने ब्राह्मण ऋषि से हिरन को अपना शिकार बताया तो बाबा टेकधर हिरण के रक्षा के लिए राजा से कहा, “हे राजन हम अपने प्राणों की आहुति दे देंगे लेकिन अपने जीते जी हिरण का शिकार होते हुए नहीं देख पाएंगे।” यह सुनते ही राजा क्रोधित होकर के बाबा टेकधर के गांव ईटार पांडे को आग लगा कर जलवा दिए। इस कारण पूरा इटार पांडे गांव जलकर भस्म हो गया था । बरम बाबा बांसी के राजा को श्रापित कर दिये । उसी कारण राजा का सात पुस्त तक बासी में वंश नहीं चला।

कुछ वर्षों बाद राजस्व गांव इटार के पावन भूमि पर एक ऐसे वीर, सन्यासी, पराक्रमी,  योद्धा  का जन्म हुआ जी ने पूरे विश्व में पूजा जाता है । भगवान स्वयं ईटार पांडेय के वंश कुल में अवतार लिए थे। जिन्हें बाद में भगवान स्वामी नारायण छपिया के नाम से जाना जाने लगा है।

 

स्वामीनारायण भगवान के माताजी का नाम भक्ति-माता , मूर्ति देवी ( बाला, प्रेमवती) (कृष्ण-शर्मा और भवानी की बेटी) है। माता की जन्म तिथि कार्तिक सुदी 15, वि.स. 1798 है । माता का जन्मस्थान तरगांव कहा जाता है। तरगांव निवासी उनकी माता भक्ति देवी ब्राहमणों की उपजाति बड़गइयां दूबे से थीं। घन श्याम के माता-पिता का विवाह 250 साल पहले तरगांव के जिस मंडप में हुआ था, उसके अवशेष आज भी यहां विद्यमान हैं। बचपन में ज्यादातर प्रभु ननिहाल में रहे। इसलिए इसी चबूतरे पर 08 वर्ष की अवस्था में भगवान स्वामी नारायण का जनेऊ संस्कार भी किया गया। उनके पिता और माता के विवाह का यह मंडप (अब चबूतरा) भी उस दौर की याद दिलाता है। (बाल प्रभु का ननिहाल का उल्लेख बल्लम पधरी के रुप में भी मिलता है । यहां उनका यज्ञोपवीत संस्कार कहा जाता है। इस पर इस पर इस सम्प्रदाय के विद्वान बंधुओं के मार्ग दर्शन की आवश्यकता है?)

धर्मदेव ने अपने सबसे बड़े पुत्र रामप्रताप का विवाह पारिवारिक रीति-रिवाजों के साथ परम्परागत रूप से किया था। ब्राह्मण बलदेव ने अपनी सुसज्जित एवं अलंकृत इकलौती पुत्री सुवासिनी को परम्परागत तरीके से रामप्रताप को विवाह में दान कर दिया था। वह गुणवती थी, उसने योग्य धार्मिक पति प्राप्त किया, प्रेम और सद्गुणों से उसका अनुसरण किया, एक आदर्श पत्नी के रूप में रहकर उनकी सेवा करती रही। युवा घनश्याम को अपनी भाभी सुवासिनी से बहुत लगाव था। घनश्याम उसे बहुत प्रिय था। बड़े भाई रामप्रताप भाई का स्वभाव क्रोधी था। छोटी-छोटी बातों में भी वे घनश्याम को मारने के लिए हाथ उठा देते थे। इसलिए जब भी घनश्याम को कुछ चाहिए होता तो वे अपनी भाभी से पूछते थे।

 

अपना पंच भौतिक शरीर त्यागते समय स्वामीनारायण ने अपना संदेश दूसरों तक पहुंचाने और अपने साथी, स्वामी नारायण संप्रदाय को संरक्षित करने के लिए पूरे पंथ को दो भागों ( गद्दी ) में बांट दिया था।

प्रत्येक गदी में एक आचार्य नियुक्त किया।   उन्होंने औपचारिक रूप से अपने दो भाइयों में से प्रत्येक के एक- एक पुत्र को गोद लिया और उन्हें आचार्य के पद पर नियुक्त किया। स्वामीनारायण के बड़े भाई रामप्रताप के पुत्र अयोध्या प्रसाद और उनके छोटे भाई इच्छाराम के पुत्र रघुवीर को क्रमशः अहमदाबाद गदी और वडताल गदी का आचार्य नियुक्त किया गया था । स्वामी नारायण ने आदेश दिया कि यह पद वंशानुगत होना चाहिए ताकि आचार्य अपने परिवार से रक्त वंश की सीधी रेखा बनाए रखें। उनके अनुयायियों के दो क्षेत्रीय सूबाओं में प्रशासनिक विभाजन को स्वामीनारायण द्वारा लिखे गए एक दस्तावेज़ में विस्तार से बताया गया है, जिसे देश विभाग लेख कहा जाता है ।

स्वामीनारायण ने सभी भक्तों और संतों से कहा कि वे दोनों आचार्यों और वंश के बाहर के एक आचार्य गोपालानंद स्वामी के निर्देशों का पालन करें , जिन्हें संप्रदाय के लिए मुख्य स्तंभ और मुख्य तपस्वी माना जाता था। नित्यानंद स्वामी को वड़ताल मंदिर की देखभाल का कार्य दिया गया और ब्रह्मानंद स्वामी को अहमदाबाद मंदिर की देखभाल का कार्य दिया गया। लेकिन सभी धार्मिक नियंत्रण और मध्यस्थता गोपालानंद स्वामी को दी गई।  उनका दोनों भतीजों को गद्दी देना लोगों को रास नहीं आया।इसे लेकर विरोध शुरू हुआ।विरोध के बाद स्वामीनारयण संप्रदाय दो खेमों में बंट गया।घनश्याम पांडे के खेमे ने वंश परंपरा को स्वीकार किया और दूसरे खेमे ने साधु परंपरा को अपनाया।

20वीं शताब्दी में साधु परंपरा के शास्त्री महाराज ने नई गद्दी चलाई।इस गद्दी को नाम दिया गया बोचासनवासी अक्षय पुरुषोत्तम संप्रदाय। यह संप्रदाय आधुनिक समय में बाप्स नाम से लोकप्रिय है. बाप्स परंपरा के लोगों को ही साधु परंपरा वाला कहा जाता है।

 

1अहमदाबाद की नर नारायण देव गद्दी 

स्वामी नारायण ने अपनी मृत्यु से पूर्व दो गदियों (नेतृत्व की सीटें) की स्थापना की।

एक सीट अहमदाबाद ( नर नारायण देव गदी ) में स्थापित की गई।स्वामीनारायण के बड़े भाई रामप्रताप के पुत्र अयोध्या प्रसाद को इस गद्दी का प्रमुख बनाया गया। स्वामी नारायण के बड़े भाई रामप्रतापजी छपिया मे ही पैदा हुए थे। उनका सुवासिनी-बाई से हुआ था। प्रभु की बाल लीला में इस भाभी ने बहुत अहम रोल किया था। बाद में वे इन्हें अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन भी कराए थे। इन्हीं के सुपुत्र आचार्य अयोध्या प्रसाद महाराज छपिया धाम के प्रथम पीठाध्यक्ष हुए और धाम को दिव्य रूप देने में महती भूमिका निभाये हैं। छपिया के मुख्य भवन में धर्म देव , मूर्ति देवी के साथ प्रथम आचार्य अयोध्या प्रसाद महाराज की छवि भी प्रतिष्ठित की गई है। अहमदाबाद गादी के वर्तमान आचार्य कोशलेंद्र प्रसाद पांडे जी हैं।

 

2.वडताल की लक्ष्मी नारायण देव गद्दी

स्वामी नारायण के छोटे भाई इच्छारामजी थे जिनकी वरियारी-बाई से विवाह हुआ था। स्वामी नारायण द्धारा दूसरी वडताल (लक्ष्मी नारायण देव गदी ) में 21 नवंबर 1825 को स्थापित की गई थी। छोटे भाई इच्छाराम के पुत्र रघुवीर को इस गद्दी का प्रमुख बनाया गया। वडताल गादी के अजेंद्रप्रसाद पांडे हैं।

 

घनश्याम प्रभु का जन्म और बचपन की लीलाएँ

उत्तर भारत के अवध प्रान्त(उत्तर प्रदेश) के अयोध्या के पास गोंडा जिले के छपैया( छवि का धाम) नामक छोटे गाँव में घन श्याम पांडे के रूप में कृष्ण के कलयुगी अवतार स्वामी नारायण भगवानअवतारित हुए थे । उस समय अंग्रेजों की गुलामी का दौर था। इस मुश्किल भरे समय के बीच सोमवार, 3 अप्रैल, 1781 ई. को रात्रि 10 बजकर 10 मिनट पर भगवान स्वामी नारायण का अवतरण चैत्र सुदी नवमी संवत् 1837 को पिता हरि प्रसाद पांडे (जिन्हें धर्मदेव के नाम से भी जाना जाता है) और माता प्रेमवती (जिन्हें भक्तिमाता या मूर्तिदेवी के नाम से भी जाना जाता है) के घर में हुआ था। ये सरयूपारीण ब्राह्मण थे। उनका सावर्णी गोत्र और कौमुधी शाखा थी।

 रात्रि की दस घड़ी चौदह पल के उस समय ने पूरे भूमंडल को मांगल्य से भर दिया था। देवों और ईश्वरों ने दिव्य रूप से आकाश से पुष्पों की वर्षा की थीं। चतुर्दिक मंगल ही मंगल छा गया था। संयोगवश उस दिन रामनवमी भी थी । इसलिए इस दिन को स्वामी नारायण संप्रदाय के लोगों द्वारा स्वामि नारायण जयंती के रूप में भी मनाया जाता है।

इनके जन्म के पूर्व इनके माता-पिता (भक्तिदेवी और धर्मदेव) काशीपुरी की यात्रा पर गये थे जहाँ स्वामी रामानन्द जी का शिष्यत्व ग्रहण कर, ईश्वर की पूजा आराधना किये, भागवत कथामृत सुने और कई अन्य धार्मिक कार्य किये थे। यात्रा खत्म होने के बाद अपने गाँव छपिया लौटने के बाद वह शुभ दिन आ गया और भगवान श्री स्वामीनारायण का जन्म उनके घर में हुआ और इनका नाम घनश्याम रखा गया। उनके दो भाई और थे, बड़े भाई का नाम रामप्रताप पांडे और छोटे भाई का नाम इच्छाराम पांडे था। घन श्याम ने छपिया के आसपास दर्जनों गांवों के लोगों को अपनी लीला दिखाकर आत्मविभोर किया था।

 

आम बच्चों से एकदम अलग जीवन यापन करने वाला छपिया नामक छोटे से गांव  में जन्मा बालक घनश्याम पांडे आम बच्चों से एकदम अलग और तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी भी था। उनके इस धाम की धरती के पशु पक्षी बेल लता और मछली आदि को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है । उनके प्राकट्य के समय सब दिव्य लक्षण घटित हो रहे थे।पिता जी ने स्नान करके पुत्र का जातकर्म किया। ब्राह्मणों और गरीबों को भोजन दान किया गया था।

 

आषाढ़ संवत 1837 चैत सुदी चौदस दिनांक 8 अप्रैल 1781को छठी के अवसर पर कालीदत्त राक्षस ने अपने मंत्र पुतरियों को उत्पन्न किया था जो बालक को आकाश मार्ग से चलने लगी थी। मां भक्ति देवी ने क्रंदन किया तो सब जग गए। बाल प्रभु ने अपना भार बढ़ा दिया तो पुतरियों ने बालक को जमीन पर रख वहां से भागने लगीं । उसी समय प्रभु की इच्छा से हनुमान जी ने पुतरियों को ताड़ित करना शुरू कर दिया था। वे प्रभु की शक्ति समझ हनुमान जी से प्राण दान मांगी। कालीदत्त को उनने बहुत फटकारा। जो अपनी जान बचाकर जंगल में छिप गया था। हनुमान जी ने बाल प्रभु को उठाकर मां की गोद में सुरक्षित लौटा दिया था।

हनुमान जी का मंदिर गांव का कल्याण सागर नामक तालाब के सामने प्रतिष्ठित है। माता भक्ति उस दिन अपने कर्तव्यों में इतनी व्यस्त थीं कि वे अपने बच्चे को गोद में नहीं ले सकीं थीं । यद्यपि वह उनके लिए उनकी आत्मा से भी अधिक प्रिय था। उन्होंने अन्य छोटे बच्चों को अपने बच्चे की देखभाल करने दिया तथा अतिथि महिलाओं की यथायोग्य सेवा की।

 

 प्रथम साल के एक माह की उम्र पूरा होने पर दूसरे महीने में बैसाख सुदी दशमी दिनांक 4 मई 1781 शुक्रवार को बाल प्रभु को जिह्वा मंजन, मेधा जनन और पय: पान आदि संस्कार संपन्न कराया गया था ।

 

जब वे मात्र तीन माह बारह दिन के थे, तब आषाढ़ बदी सप्तमी दिनांक 13 जुलाई 1781 ई में हिमालय से मार्कंडेय मुनि नामक एक प्रसिद्ध ऋषि धर्मदेव के घर आए । पालने में योग निद्रा में बालक के हाथ में पद्म और पैर से बज्र, ऊर्ध्वरेखा तथा कमल का चिन्ह देखकर ज्योतिषि ने कह दिया कि यह बालक लाखों लोगों के जीवन को सच्चा मार्ग दिखाएगा। मुनि ने बताया कि घनश्याम पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करेंगे। लोगों के जीवन से दुख और पीड़ा को दूर करेंगे। हर जगह प्रसिद्ध होंगे और लोगों को ईश्वर के मार्ग पर ले जाएंगे। ज्योतिषी के शब्दों के अनुसार, घनश्याम ने छोटी उम्र से ही ईश्वर और अध्यात्म के प्रति लगाव दिखाया। कहा जाता है कि उनके पैर में कमल का चिह्न देखकर ज्योतिषियों ने कहा था कि ये बालक लाखों लोगों के जीवन को सही दिशा देगा। उन्होने घन श्याम, कृष्ण, हरि कृष्ण आदि नाम सुझाए।

 

बालक के जन्म के पाँचवें महीने में, आषाढ़ संवत 1838, श्रावण मास सुदी पुत्रदा एकादशी दिनांक 31 जुलाई 1781 ई दिन मंगलवार को सूर्योदय से सातवें शुभ समय में, धर्मदेव  ने बालक को पहली बार भूमि पर गिराने का उपवेशनशा स्त्रीय संस्कार किया। उस दिन धर्म ने शुभ वाद्यों तथा वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ, बड़े हर्ष के साथ वराह अवतार भगवान विष्णु तथा पृथ्वी की पूजा की थीं

छ्ठे मास आषाढ़ी संवत 1838,आश्विन मास में शुक्ल पक्ष द्वितीया दिनांक 19 सितंबर 1781 को बालक का अन्नप्राशन संस्कार हुआ था। बालक को तुला राशि के शुभ समय में धर्म ने पवित्र स्नान कराने के पश्चात् उसे प्रथम बार ठोस आहार (विशेष रूप से उबले चावल) (माँ के दूध के अतिरिक्त) खिलाने का अनुष्ठान सम्पन्न किया गया था। पवित्र अग्नि की स्थापना करके और चरु (आहुति) देकर  प्रक्रिया आरंभ करके , उन्होंने ब्रह्मा और अन्य देव देवताओं की पूजा की थीं।बच्चा मुस्कुराते हुए माता की गोद में सुशोभित हो रहा था। पिता ने शान्त भाव से हाथ में सोने का चम्मच लेकर उसे दही, घी और शहद से मिश्रित शुद्ध भोजन दिया था।

 

बालक घनश्याम अभी रेंगना शुरू ही कर रहा था। एक बार धर्मदेव के मन में विचार आयाः “यह बालक पृथ्वी पर विजयी होगा, लेकिन यह कैसे होगा? क्या यह सम्राट बनेगा? क्या यह सभी देशों पर विजय प्राप्त करके संप्रभु बनेगा? क्या यह सबसे धनवान व्यक्ति बनेगा? क्या यह विदेशों में अग्रणी फर्मों का मालिक बनने वाला महान व्यापारी बनेगा? या यह पूरी दुनिया में ज्ञान का प्रसिद्ध व्यक्ति बनेगा?”

बालक के व्यवसाय के प्रति भावी रुझान का मूल्यांकन करने के लिए, उनकी पहुंच और दृष्टि के क्षेत्र में सभी स्थानों पर विभिन्न वस्तुएं रख दी गईं। पिता धर्मदेव ने घनश्याम की प्रवृत्ति का परीक्षण करने का फैसला किया। उन्होंने घनश्याम को एक प्लेट के सामने रखा, जिसमें एक सोने का सिक्का, एक छोटा खंजर औरश्रीमद्भगवत गीता की एक प्रति रख दिया था। इनमें से प्रत्येक वस्तु किसी विशेष व्यापार या व्यवसाय का प्रतीक था। परंपरा के अनुसार, यदि वह सोने के सिक्के के लिए हाथ बढ़ाता, तो इसका मतलब था कि वह एक व्यापारी या उद्यमी बनने के लिए नियत था। तलवार एक योद्धा का प्रतिनिधित्व करती थी। शास्त्र धार्मिक विद्वान का प्रतिनिधित्व करता था। आकर्षक और चमकदार वस्तुओं को अनदेखा करते हुए, घनश्याम जी ने तुरंत शास्त्र के लिए हाथ बढ़ाया था ।

धर्मदेव ने बहुत प्रसन्नता व्यक्त की, क्योंकि बालक ने उन पुस्तकों को अपने अधिकार में ले लिया था। घनश्याम की पसंद का मतलब था कि वह अपनी बुद्धि से लाखों लोगों के दिलों -दिमागों को प्रभावित करेगा। बालक का बचपन माता पिता और भाई राम प्रताप भाभी सुवासिनी के सानिध्य में छपिया तर गांव बल्लम पधरी और अयोध्या में ही बीता था।

 

सातवें महीने में आषाढ़ी संवत 1838, अश्विन सुदी पूर्णिमा दिनांक 2 अक्टूबर 1781 को गुरुवार को शुभ घड़ी में धर्म ने कुलदेवता का सम्मान करते हुए अपने पुत्र के कान छेदने का संस्कार कराया था । कुशल दर्जी ने चांदी की सुई और दो तह वाले धागे से कुशलता पूर्वक छेदन कार्य किया, तथा पृष्ठभूमि में वैदिक मंत्रों की ध्वनि सुनाई दे रही थी।

 

माता-पिता द्वारा अच्छी तरह से पाला गया बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। वह अपने सभ्य संकेतों और बाल-कला से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता था।

जब माता-पिता श्रीहरि को पुत्ररूप में पालने में लग गए, तब उनके दिन-रात क्षण भर में ही बीत गए। जो भी स्त्री-पुरुष बन्धु आत्मा थे, उन्हें देखकर उनका हृदय सांसारिक क्लेशों से मुक्त हो जाता था।

वृद्ध और ज्ञानी पुरुष उसके प्रेम में पड़कर उसके साथ क्रीड़ा करते हुए अपनी आयु भी भूल जाते थे। शुभ अवतार भगवान ने उन्हें मुक्ति प्रदान करने के लिए उनके मन को अपने अन्दर समाहित कर लिया था।

बच्चे को थपथपाने वाली सभी देखभाल करने वाली स्त्रियाँ ‘मेरा-तेरा’ का विचार किए बिना निष्पक्ष हो गईं थीं ।बड़े-बूढ़े उसे अपने बेटे के पास ले जाते थे। कुछ लोग अपने भाई के पास ले जाते थे। कुछ अपने परिवार की परवाह किए बिना सारा दिन उससे लिपटे रहते थे। बच्चे को दुलारने वाले आपस में इस बात पर छोटी-छोटी बहस करते थे कि बच्चा किसके हाथ में जाए? बच्चे के प्रति प्रेम के कारण वे बच्चे को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को और फिर से दूसरे व्यक्ति को सौंप देते थे।

माता भक्ति के पास अपने बेटे को गोद में लेने के लिए बहुत कम समय था, क्योंकि अन्य स्त्रियाँ कभी-कभी उसे गोद में लेने से मना कर देती थीं। जब बालक बड़बड़ाते हुए मीठी-मीठी बातें करने लगता तो आस-पास की स्त्रियाँ उससे मीठी-मीठी बातें करते हुए प्रायः ‘अम्बा’ (माँ) और ‘ताता’ (पिता) कहतीं। वह अपनी छोटी-छोटी बातों और हाव-भाव से उन महिलाओं को हंसाता था। एक साल पूरा होने से पहले ही उसने बोलना और चलना सीख लिया था। अपनी बाल – लीलाओं से आस-पास के लोगों को सुख प्रदान करते हुए, इच्छापूर्ण मानव-अवतार श्रीहरि ने एक वर्ष पूर्ण किया।

 

तीसरे साल ज्येष्ठ मास में कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि दिनांक 19 जून 1783 शुक्रवार धनिष्ठा नक्षत्र में बाल प्रभु तीन माह 12 दिन के होने पर तारे गांव में चौलकरन (मुण्डन संस्कार) पिता धर्मदेव ने छपिया के पवित्र नारायण सरोवर के किनारे सम्पन्न कराया था। कुछ ग्रंथ में मखौड़ा में मुंडन का जिक्र करते हैं ।चूंकि इसी दिन काली दत्त को मोक्ष भी नारायन सरोवर के निकट छपिया में मिला था। इसलिए मखौड़ा से 8 किमी.दूर एक ही दिन दो प्रमुख बाल लीलाओं की घटनाएं सम्भव प्रतीत नही हो सकती है।

 बाल प्रभु घनश्याम के परिवार और पास पड़ोस के लोग भी इसके साक्षी रहे। उस ब्राह्मण ने वैदिक विद्वानों को बुलाकर, नियमानुसार बालक का प्रथम बार मुंडन संस्कार कराया।

शुभ स्नान करके उसने सात मातृदेवियों का पूजन किया। धार्मिक अनुष्ठान प्रारम्भ किया। पितरों को तर्पण दिया तथा तत पश्चात शुद्धि संस्कार किया गया था। कर्मकाण्डी कुल-पुरोहितों के वचनों का पालन करते हुए, पवित्र अग्नि ‘सभ्य’ की स्थापना करके धर्म ने ‘पात्र आसदनम्’ का अनुष्ठान किया। उन्होंने पवित्र अग्नि के दाहिने भाग में कुशा की इक्कीस पत्तियां तथा बायीं ओर लाल गाय का सूखा कंडा अग्नि में आहुति दी। उन्होंने व्याहृतियों के उच्चारण द्वारा यज्ञ सम्पन्न करके, लोहे के छोटे से छुरे से अपने पुत्र के सिर पर एक जटा छोड़ कर, उसके मुंडन का अनुष्ठान किया।

पारिवारिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उन्होंने अमई नामक नाई को यह शुभ काम सम्पन्न कराने का अवसर दिया था। नाई अपना उस्तरा लिए भक्ति देवी के गोद में बैठे बाल प्रभु का मुण्डन करने लगा। नाई से छुपा छिपी खेलते हुए उसे अपना दिव्य दर्शन भी दिए। बालक के सिर पर बालों का एक गुच्छा छोड़ दिया गया। इस प्रक्रिया में लोगों को गाय व अन्य वस्तुएं उपहार स्वरूप देना होता है।

  तत्पश्चात् उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से सैकड़ों ब्राह्मणों को भोजन कराया, जिसमें घी और चीनी मिला हुआ आम का रस भी था। तत्पश्चात् उन्होंने अपने सम्बन्धियों, नगरवासियों तथा अन्य लोगों को भी भोजन कराया। माता भक्ति उस दिन अपने कर्तव्यों में इतनी व्यस्त थीं कि वे अपने बच्चे को गोद में नहीं ले सकीं, यद्यपि वह उनके लिए उनकी आत्मा से भी अधिक प्रिय था। उन्होंने अन्य छोटे बच्चों को अपने बच्चे की देखभाल करने दिया तथा अतिथि महिलाओं की यथायोग्य सेवा की। इसी दिन हो काली दत्त राक्षस का उद्धार भी बाल प्रभु ने किया था।(बाल प्रभु का ननिहाल का उल्लेख बल्लम पधरी के रुप में भी मिलता है । इस पर इस पंथ के विद्वतवरों के मार्गदर्शन की आवश्यकता है।)

अयोध्या सरयू स्नान कर लौटकर बालक अपने पिता की भांति छपिया में पूजा अर्चना शुरू कर दिया था। पिता जी को बालक द्वारा क्षण भर में तुलसी दल  उपलब्ध कराया गया था। इसी समय देवों द्वारा तुलसी कुमकुम अबीर गुलाल से बाल प्रभु ने अपनी पूजा भी करवा लिया था। उनके पिता जी बाल मुकुंद की मूर्ति की पूजा करते थे। घन श्याम उस मूर्ति में अपनी छवि उतार कर पिता जी को आश्चर्य में डाल दिए थे। पिता जी ने बाल मुकुंद से क्षमा याचना की, कि आज ना जानें क्यों प्रभु की छवि में परिवार की छवि बार बार उलझन बढ़ा रही है।

 

पांच वर्ष की अवस्था में बालक ने पढ़ना- लिखना शुरू किया । घनश्याम पांडे जब 5 साल के थे, तब उनका परिवार छपिया गांव छोड़कर अयोध्या के बरहटा गांव में रहने आ गया था। अयोध्या धाम और भगवान घनश्याम महराज की जन्मस्थली स्वामिनारायण मंदिर का अटूट संबंध है। यहां भगवान घनश्याम महराज कई वर्षों तक रहे और तपस्या की थी। उन्होंने तप करते हुए अनेक प्रकार लीलाएं की थी।

बालक घनश्याम ने बहुत छोटी उम्र में ही पढ़ना शुरू कर दिया था।  घनश्याम ने कहा, “पिताजी, आप ही मुझे सिखाइए।” यह सुनकर पिता प्रसन्न हुए। उन्होंने घनश्याम को कुछ श्लोक सिखाए। घन श्याम उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनता और जो कुछ भी सुनता, उसे अपने दिमाग में बसाए रखने की कोशिश करता।

आषाढी सम्बत 1842 चैत सुदी द्वितीया के दिन से जब स्वामी नारायण पांच वर्ष के थे, तब उनके पिता धर्मदेव ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया। उनके गुरु हृदयराम थे जिनसे अत्यल्प समय में वे शिक्षा से परिपूर्ण हो गए थे। अपने पिता से बाल घनश्याम को चार वेद,रामायण,महाभारत, श्रीमद्भागवत,पुराण, श्री रामानुजाचार्य प्रणीत श्री भाष्य, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि की शिक्षा मिली थी । उन्होंने इन सभी ग्रंथों का सार संग्रहित किया, अपने लिए एक संग्रह भी बनाया था।

 

सातवें साल आषाढी सम्वत 1843 में एक साथ कई स्थलों पर उपस्थित दिखे। एक बार, घनश्याम अयोध्या के अपने बचपन के घर के पास एक मंदिर में गए थे। आध्यात्मिक प्रवचनों में वे इतने मग्न हो गए कि उन्हें समय का पता ही नहीं चला और वे घर वापस नहीं लौटे। यह महसूस करते हुए कि घनश्याम आस-पास के कई मंदिरों में से किसी एक में होंगे, घनश्याम के बड़े भाई रामप्रताप भाई उन्हें खोजने निकल पड़े। मंदिर में रामप्रताप भाई से मिलने पर, घनश्याम ने उनसे प्रवचन समाप्त होने तक प्रतीक्षा करने को कहा और सुझाव दिया कि इस बीच, वे सड़क के नीचे स्थित मंदिर में दर्शन के लिए चले जाएँ। दूसरे मंदिर में, रामप्रताप भाई ने घनश्याम को वहाँ भी प्रवचन सुनते हुए देखा। रामप्रताप भाई अयोध्या के सभी मंदिरों में गए और घनश्याम को हर एक में उपस्थित देखकर आश्चर्यचकित हुए।

आठ साल की उम्र में उनका जनेऊ संस्कार हुआ। संवत 1845 सन 1789 के फागुन सुदी दशमी के दिन यह मुहूर्त था।

भक्ति देवी और विश्राम तिवारी और परिवार अयोध्या आए थे। अयोध्या के बरहटा में उपनयन का मंडप सजा हुआ था। (avadhkiaavaj.com में श्री अनिल कुमार सिंह के दिनांक 20 मई 2020 के विवरण के अनुसार बाल प्रभु के ननिहाल तरगांव में जनेऊ का विवरण मिलता है)।

बाद में धर्मदेव के अधीन संस्कृत का अध्ययन शुरू किया। श्रौत स्मार्त वेद के अनुसार धर्मदेव ने सभी कर्म किए। मातृ पूजन, नांदी मुख, स्वस्ति अयन, ग्रह शान्ति यज्ञ होम कराया । मंगल वाद्य हुआ। दुसरे दिन बड़े धूम धाम से यज्ञोपवीत मनाया गया । इसके तुरंत बाद बालक ने शिक्षा में अपनी विलक्षण प्रतिभा दिखाई और अनेक शास्त्रों को पढ़ लिया।भगवान स्वामी नारायण ने धर्म, सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य के चार मूल्यों को पुनः स्थापित करने के लिए जन्म लिया।

आठवें साल आषाढी सम्वत 1844/ 1788 ई में भाभी की अंगूठी गिरवी रख तर गांव के हलवाई से भरपेट (दस मन) मिठाई खाने और अंगूठी वापस लेने की लीला दिखाई थी। उसकी सारी मिठाई खाई भी गई और दुबारा जस का तस मिठाई को दुकान में सजा भी दिया।

आध्यात्मिकता और उच्च आदर्शों की प्रवृति

आध्यात्मिक प्रवचनों के प्रति घनश्याम का प्रेम बचपन से ही स्पष्ट था, जैसा कि उनकी आध्यात्मिक शक्ति थी।अपनी अनेक दिव्य घटनाओं के माध्यम से, घनश्याम ने यह प्रकट किया कि उनके अवतार का उद्देश्य हिंदू सनातन धर्म के आदर्शों को पुनः स्थापित करना था।

यह घटना बाल प्रभु के आठ वर्ष के उम्र की संबत 1845 की है। एक बार, लुका-छिपी के खेल के बीच में, घन श्याम एक पीपल के पेड़ पर चढ़ गया और पश्चिम दिशा की ओर देखने लगा। खेल लगभग ख़त्म ही होने वाला था कि उनके एक दोस्त ने उन्हें दूर से पेड़ पर बुलाया, गहरे विचारों में खोए हुए देखा। उन्होंने उन्हें नीचे बुलाया और उनकी स्थिर दृष्टि का कारण पूछा। गहराई के गहन उत्तर ने उनके अवतार के उद्देश्य को चिन्हित रूप से समेटा। उन्होंने कहा, “मैं पश्चिम की ओर देख रहा था, जहां हजारों भक्त मेरे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे मेरे आने और एकांतिक धर्म की स्थापना की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे अपने मोक्ष की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”

आठवें साल आषाढी सम्वत 1845/ 1788 ई में भाभी के मायके तरगांव में ककड़ी की निराई में सारी लताएं उखाड़ने की लीला करने पर भाई राम प्रताप के गुस्से का शिकार होकर चाटा भी खाया और बाद में ककड़ी के बेल भी ज्यों का त्यों लोगों को दिखाने की लीला कर पश्ताप भी कराया।उनकी तर गांव की लीला ककड़ी के पेड़ उखाड़ने की लीला बहुत ही अद्भुत रही।

तरगांव निवास करते हुए आस पास के दर्जनों स्थलों को पावन करते हुए लीला दिखाई थी। सम्वत 1845 में मीन सरोवर पर ये लीला रची गई थी। मीन सरोवर एक छोटी झील है (गर्मियों के दौरान सूखी) जहाँ घनश्याम मृत मछलियों को छटपटाते नही देख पाये। उन्होने मछूवे से कहा,भाई ये सृष्टि भगवान के द्धारा निर्मित है।हम किसी प्राणी को ना तो मार सकते हैं और ना ही उन्हे किसी तरह का कष्ट ही पहुंचा सकते हैं। हर व्यक्ति को अपने कर्म का फल भोगना ही पड़ता है।

 पाप कर्म का फल तुरंत भले ही ना मिले परन्तु उसे नर्क का वास जरूर मिलता है। इतने पर वह जब नहीं माना तो उसको मीन सरोवर में स्वामीनारायण द्वारा मछुवे को दर्शन देने की लीला दिखाई गई थी। वहां तरह तरह के दंड प्राणियों को दिए जा रहे थे। उसे भी दंड भुगतना पड़ा था।फिर उसे जब दण्ड दिया जाने लगा तो उसकी काया उछलने लगी।वह घन श्याम प्रभु को कातर ध्वनि में पुकारा। उसकी समाधि तोड़ता कर बाहर लाया गया। वह नरक यातना का वर्णन करके प्रभु को कभी पाप ना करने का बचन दिया। प्रभु ने अपने चमत्कारों से उन जीवो को जीवित कर दिया और मछुआरे को निर्देश दिया कि वह जीविका के लिए मछलियों को न मारे। इसलिए तालाब को मीन सरोवर के नाम से जाना जाता है।

स्वामीनारायण ने समाज को भक्ति के माध्यम से मोक्ष और परम ज्ञान की प्राप्ति के बारे में मछुवे समाज को सिखाया। उन्होंने समाज में दलितों के उत्थान के लिए काम किया।

ठूठ तलैया पर जामुन के ठूठ से जख्म

तरगांव के नैरित्य कोण पर एक तालाब के तट हरिदास जी की परम कुटी में राम कथा होती थी। धनश्याम वहां तरह – तरह की लीला करते रहते थे। गोपालों को बाल कृष्ण जैसे दर्शन और लीला दिखाते थे।

वे जामुन के वृक्ष पर चढ़ गए थे। आषाढी सम्वत 1845 में उनकी जांघ में जामुन का ठूठ घुस गया जिससे वे जख्मी हुए थे। अश्विनी कुमार को याद करके उन्होंने जांघ में जामुन का ठूंठ घुसने का उपचार कर तनिक देर में ठीक करा लिया था। उन्होने सामान्य चोट के निशान की लीला दिखाई थी।

चिड़ियों को अचेत कर खेत की रक्षा

सम्वत 1845 सन 1789 में मां बाप के साथ वे अयोध्या से छपिया आए हुए थे।शालिधान के फसल को घर लाना था। खेत की रखवाली घन श्याम को सौंपा गया था। वे बाल सखा के साथ खेल में गए और मस्त हों जाते।खेत में जो चिड़िया आती बह अचेत हो जाती । वे पारलौकिक आनन्द पाती।बाद में संकेत कर चिड़ियों को अचेतता दूर कर देते थे। वे विचित्र तरीके से खेत की रखवाली किए थे। बाद में शालि धान की फसल खलिहाल में लाया गया। उसको साफ कर बैलगाड़ी में लाद कर सभी अयोध्या चले आए।

भक्ति माता को दिव्य समाधि दर्शन 

संवत 1847 एक बार बालक को स्नान कराते हुए भक्ति देवी ने राम के बाल रूप की भावना में खो गई थी। अन्तरयामी प्रभु मां की भावना समझ कर मां को समाधि सुख का बोध कराया था। खाट पर लेटी लेटी मां की आत्मा पुत्र के पीछे पीछे चल रही थी।

ब्रह्मांड,धाम, धामों की सीमा, माया का विस्तार और अंधकार आदि को मां ने करीब से देखा और समझा। उन्होंने अनंतको  देखा। बाद में उस दिव्य अनुभव को विस्मृत कराया था। वे तो पुत्र रूप में मां को आनन्द देने के लिए प्रकट हुए थे

आषाढी सम्वत 1848 में दस साल की उम्र में शास्त्रार्थ के निर्णायक बने

भगवान श्री स्वामिनारायण जब दस वर्ष के थे तब पिता धर्मदेव के साथ काशी आये थे और यहाँ के मणिकार्डिका स्थित प्रसिद्ध गौमठ  में ठहरे थे । इस प्रतिभा शाली बालक ने वैदिक शास्त्रों में महारत हासिल कर ली थी। इसी अवधि के दौरान, वे धर्मदेव के साथ गए, जिन्हें भारत में ज्ञान के प्रसिद्ध केंद्र बनारस में एक विद्वत्तापूर्ण शास्त्रार्थ की अध्यक्षता करनी थी। घनश्याम को वैदिक शास्त्रों में इतनी महारत हासिल कर ली थी कि कई लोग अपने पूरे जीवन में इसके लिए प्रयास करते हैं।

वे वरिष्ठ अद्वैत और वैष्णव विद्वानों के बीच की खाई को तोड़ने के लिए एक स्पष्ट और विस्तृत व्याख्या देने में सक्षमएकमात्र व्यक्ति थे। रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत दर्शन के गुणों पर उनके प्रभावशाली भाषण ने उपस्थित सभी विद्वानों का मन मोह लिया। घनश्याम ने धर्म, भक्ति, ज्ञान, आश्रय और शरणागति की भक्ति संप्रदाय परंपराओं का समर्थन किया। भगवान स्वामीनारायण इस धरती पर एकान्तिक धर्म की स्थापना करने और असंख्य आत्माओं को माया के चंगुल से मुक्त करने के उद्देश्य से आए।

जब एक बार मतभेद उत्पन्न हुआ, तो घनश्याम ने धर्मदेव की अनुमति से एक शानदार व्याख्या दी, जिससे विद्वानों को विशिष्टाद्वैत दर्शन (योग्य अद्वैतवाद) की वैधता का विश्वास हो गया।

यहाँ विद्वानों की सभा हुई  जिसमे बालक घनश्याम की विदत्ता देख कर सभी विद्वान अत्यंत प्रभावित हुवे थे | तत्पश्चात भगवान श्री स्वामिनारायण ने अपने पिता के साथ काशी के प्रसिद्द  मत्स्योदरी तीर्थ एवं गायधाट पर स्नान  किया । इसी पुण्य स्मृति में यह दिब्य मंदिर बना है।इस मंदिर का प्रमुख उद्देश्य भगवान स्वामीनारायण की काशी यात्रा की पुण्य – स्मृति का संरक्षण करना, यात्रियों की सेवा करना एवं भगवत अनुष्ठार्थि व तीर्थवास कर सके तथा संत , विद्यार्थियों की ब्यवस्था  द्वारा  सद विद्या का प्रचार करना है ।

भक्तिमाता की समाधि और मुक्ति

बनारस से लौटने के उपरान्त उनकी प्रतिभा अयोध्या में भी चमक गई। वे अपने पांडित्य को छिपा कर आनन्द लेते थे। धर्मदेव अपने परिवार के साथ अयोध्यापुरी में रह रहे थे। जब बाल प्रभु 10 साल के थे तो उनके अयोध्या प्रवास के दौरान भक्तिमाता बीमार पड़ गईं थीं। उन्होंने कहा, “मुझे वापस छप्पैया ले चलो।” भक्तिमाता को लेकर सभी लोग छप्पैया वापस आ गए। उन्होंने बालक घनश्याम से कहा, ” मेरा शरीर स्त्री का है। आगम निगम मेरे समझ से बाहर के हैं। तुम्हारे चरणों में भक्ति बढ़े, माया टल जाए, इसका सरलतम उपाय मैं तुम्हारे मुख से  सुनकर अपना शरीर छोड़ना चाहती हूँ। हे प्रभु ! मुझे ज्ञान और भक्ति के बारे में बताओ।”

घनश्याम ने कहा, “मां तुम्हारे लिए तो मैं हूं। अन्य को मेरे पास आने के लिए, मेरे स्वरुप को समझने के लिए धर्म ज्ञान वैराग्य और भक्ति आदि गुणों  को पाने के लिए मेरे एकांतिक साधु का सत्संग ही एक मात्र उपाय है।”

मां ने साधु को परखने के लक्षण पूछे तो घन श्याम प्रभु ने उसे विस्तार से बताया। ऐसे लक्षण वाले साधु को मेरे हृदय समान मानना चाहिए। उसके चरणो में सारे तीरथ समाये होते हैं। उसकी देह में सारे देवता विद्यमान रहते हैं। यज्ञयाग ,  तीर्थाटन, भगवन मूर्ति के दर्शन पूजन बहुत लम्बा समय बीत जाने के बाद फल देता है। ये गुनातीत संत मेरी आत्मा हैं। इनके द्वारा जीव माया बंधन से मुक्त होकर अक्षर धाम में मेरी सेवा में अखण्ड रहता है।

एकांतिक साधु के लक्षण सुनकर मां हर्ष विभोर हो गई। यह वही घन श्याम है जिसका दिव्य स्वरुप अक्षर धाम में देखा था। माता उसमे लौ लगा ली। वह अक्षर धाम की इस समाधि वाली मूर्ति में खोकर परम मूर्ति में समा गई। घनश्याम ने अपनी माता की आत्मा को दिव्य भगवती का शरीर दिया और दिव्य विमान में सवार होकर अक्षर धाम ले गए। वह तिथि थी कार्तिक सुदी दशमी, दिनाक 5 नवम्बर 1791 ई।

मल्लों के अखाड़े से भी चमत्कार

स्वामी नारायण सनातन वैदिक धर्म के परिपालन में एकांतिक तप ध्यान और ब्रह्मचर्य पक्ष को बहुत अहमियत देते थे। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा निवास करती है।वे खुद एक मजे हुए पहलवान थे और इस प्रकार के लोगों को संरक्षण भी देते थे। अयोध्या में दीना सिंह और भुवान दीन दो मल्ल युद्ध के पारंगत पहलवान उनके सम्पर्क में थे। एक ईर्ष्यालु भारी भरकम मल्ल बाल प्रभु को चुनौती देकर उनके हाथ पैर तोड़ना चाह रहा था। परंतु इसका उल्टा हुआ। मरणासन्न इस मल्ल को प्रभु ने जीवन दान भी दिया।

पिता जी को निज स्वरूप का दर्शन और मोक्ष

भक्ति माता का समाधि लेने के सात माह बाद आषाढी सम्वत 1848, जेठ बदी तृतीया दिनांक 7 जून 1792 ई. गुरुवार को धर्म पिता को हल्का बुखार आ गया था। वे शय्या पर लेटे हुए थे। उन्हे घन श्याम श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध की कथा सुनाने लगे। वे कृष्णा चरित में लीन हो गए। शाम को पिता जी को अक्षर धाम का दर्शन कराया। स्थूल पञ्च शरीर से भिन्न दिव्य देह धारण करके वे ऊर्ध्व की ओर सैर करने लगे। उन्होने पूरा ब्रह्माण्ड,देवता किन्नर आदि के स्थान को देखकर विराट ब्रह्म का दर्शन किया । अनन्त कोटि अरबों खरबों विराट ब्रह्म अक्षर ब्रह्म के एक रोम में जल के एक बुलबुले की भांति क्षण क्षण में उपजते हुए तुरन्त नाश होते दिखाई दे रहे हैं।

भगवान पुरुषोत्तम का वह धाम है। पुरुषोत्तम के दाद रुप होकर नित्य दिव्य शरीर धारण करते हुए उनकी सेवा में वे रहते हैं। अन्य सभी लोक मायाधीन हैं – ये सब धर्म पिता ने करीब से देखा। लाडले घनश्याम को धर्म पिता ने पहचान लिया । उनकी आत्मा नाचने लगी वे गदगद भाव से स्तुति करने लगे। समाधि से उठ कर वे अपने दिव्य अनुभव सुनाने लगे। घन श्याम सरयू स्नान करके लौटे तो पिता उनके चरणों में गिर कर कहे, “हमें अब अक्षर धाम की प्राप्ति कराओ।

वे उन्हें दिव्य विमान पर बैठवाकर आषाढी सम्वत 1848, जेठ बदी चतुर्थी दिनांक 8 जून 1792 ई. शुक्रवार को अपने अक्षर धाम ले गए।

इस प्रकार अपने प्राकट्य का एक हेतु – माता पिता को अपने स्वरुप का बोध करा कर, अक्षर धाम की दिव्य गति प्रदान करना – श्री हरि ने पूर्ण किया।

 

विवाह की चर्चा से घर त्यागा

माता पिता की सुगति देने के बाद घन श्याम को किसी से प्रीति नहीं रही। अनन्त जीवों के उद्धार के लिए वे गृह त्यागने का मन बना लिए थे। वे आप में ही निमग्न रहा करते थे। भैया भाभी ने समझा कि माता पिता के अक्षर धाम में जानें से वे उदास हो गए हैं। खान पान खेल कूद से उनकी रुचि जाती रही। वह प्रतिदिन सरयू स्नान के बाद घर ना आकर घण्टों मंदिरों में जाकर बैठजाया करते थे। एकांत पद्मासन में ध्यानस्थ रहने लगे। कई कई दिनों तक घर नहीं आते । नदी किनारे ही समय व्यतीत करते तप करते। भाई के टोकने पर कहते भैया अब संसार में मेरी प्रीति नहीं रही है।

      भैया भाभी उनकी शादी के बारे में बात करते तो वे मौन ही रहते। उनके घर खमहरिया से श्री निहाल मिश्र अपनी बेटी चन्द्रकला के रिश्ते लेकर आए थे। अब वह पुरी तरह घर छोड़ने का मन बना चुके थे।

 

इसके बाद घनश्याम 29 जून 1792 (आषाढ़ सूद 10, संवत 1849) को अयोध्या छोड़कर हिमालय चले गए, ताकि वे एकांत धर्म की स्थापना का अपना जीवन कार्य शुरू कर सकें। उस समय उनकी उम्र केवल ग्यारह वर्ष थी। घनश्याम महाराज ने 11 वर्ष, 3 महीने और 1 दिन की छोटी सी उम्र में आषाढ़ सुद 10 1849 को घर छोड़ दिया। सोई रात के अंतिम पहर में वह सरयू की धारा में कूदकर बहते गए और अयोध्या से दूर होते गए।

 

   घनश्याम महाराज सुबह सामान्य से पहले उठ गए ताकि उन्हें जाते समय कोई न देख सके। अपनी पूजा पूरी करने के बाद, उन्होंने अपने साथ ले जाने के लिए आवश्यक निम्न सामान एकत्र किया।

कोपीन – अधोवस्त्र के समान,उथुरिया – छोटा शेर का कपड़ा,ढांड – पलाश के पेड़ से बनी छड़ी, जनेऊ- कंधे से कमर तक पहना जाने वाला पवित्र धागा,
तुलसी की बेवड़ी कंठी,कुम कुम सहित उर्ध्वपुंड तिलक, जटा – चोटी में बंधे बाल, मूंज की कटि मेखर्रा – कमर के चारों ओर पहनी जाने वाली मूंज घास,
जप मर्रा – माला कमंडल – पानी का बर्तन,भिक्षापात्र,जलगरनु – पानी छानने के लिए सूती कपड़ा, सालिग्राम – श्री नारायण का प्रतीक पत्थर,बाल मुकुंद की दवार्री – एक बॉक्स में युवा कृष्ण की मूर्ति चार शत्र का सरणो और गुटको को कंधे पर रखे जाने वाले वस्तु आदि।

 

नंगे पांव जब  घनश्याम घर से निकला तो उसके मित्र उसे बुलाने घर आए। घर पर घनश्याम को न पाकर वे उसे खोजने नदी के किनारे गए। उन्होंने अयोध्या में घनश्याम के आने-जाने के स्थानों की भी खोज की। हर जगह खोजने के बाद वे निराश होकर रामप्रतापजी के पास लौटे और पूछा कि घनश्याम कहाँ हैं?उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने उन्हें पूरी अयोध्या में ढूँढ़ लिया है, लेकिन वे नहीं मिले।

यह सुनकर रामप्रतापभाई को बड़ा सदमा लगा और उन्होंने तथा उनके रिश्तेदारों ने भगवान को अयोध्या के मंदिरों, जंगलों और अन्य सभी स्थानों पर खोजना शुरू कर दिया, लेकिन वे उन्हें नहीं ढूंढ़ पाए। दुखी होकर, राम प्रताप भाई रोने लगे और घनश्याम के घर आने के लिए प्रार्थना करने लगे। सुवासिनी भाभी भी रोने लगीं और घनश्याम के लिए प्रार्थना करने लगीं।

हम घनश्याम का चेहरा कब देखेंगे? उसके खाने का समय हो गया है, उन्होंने कहा। आंखों में आंसू लिए दिन बीतने लगे। छोटा भाई इच्छाराम भी भाई घनश्याम के बिना दुखी था। घनश्याम के बिना हर दिन दु:ख और शोक से भरा हुआ था। अपने परिवार के दु:ख को जानकर, भगवान की कृपा से, हनुमानजी ने अपने दिव्य रूप में उन सभी को सांत्वना दी।

उनके भिक्षुक वेश में केवल एक लंगोटी थी। वे बाल मुकुंद (भगवान) की एक प्रतिमा और अपनी छोटी डायरी रखते थे जिसमें धर्मदेव के साथ उनके अध्ययन का परिणाम, शास्त्रों का सार था।

 

बहुत कम उम्र में ही उन्‍होंने शास्‍त्रों की शिक्षा ले ली थी।कुछ ही समय में वे घर छोड़कर निकले और पूरे देश की परिक्रमा कर ली। तब तक उनकी बहुत ख्याति हो चुकी थी। और लोग उन्हें नीलकंठवर्णी कहने लगे थे। नीलकंठ वर्णी नाम धारण करके उन्होंने हिमालय में कठिन तपस्या और भारत के समस्त तीर्थो की यात्रा की थी।  11 साल की उम्र में उन्‍होंने भारत में अपनी 7 साल की तीर्थ यात्रा शुरू की।

देशाटन के बाद में उन्होंने गुजरात के रामानंद स्वामी से दीक्षा धारण कर उन्हे अपना गुरु बनाया। रामानंद स्वामी के देहांत के बाद उन्होंने स्वामी नारायण सम्प्रदाय की स्थापना और प्रचार किया। उन्होंने अस्पृश्यता, अंधविश्वास, सती प्रथा, बलि प्रथा का अंत किया था। तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य सदाचार जैसे वैदिक मूल्यों को समाज में पुनः स्थापित किया। उनके ऐसे ही महान कार्यों के कारण जन समुदाय में वे श्रीजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ  वर्षों में, घनश्याम भारत भर के हजारों साधकों की आध्यात्मिक प्यास को संतुष्ट करने के लिए घर छोड़ दिए बाद में अपने जीवन के उत्तरार्ध में गुजरात में बस गए । नीलकंठ के रूप में वे हिमालय चीन तिब्बत कैलाश मानसरोवर से लेकर दक्षिण के रामेश्वरम और कन्याकुमारी और द्वारका से जगन्नाथ पुरी तक की पैदल यात्रा की थी।

अपनी मृत्यु से पहले, स्वामीनारायण ने अपने उत्तराधिकारियों के रूप में आचार्यों या उपदेशकों की एक पंक्ति स्थापित करने का फैसला किया। उन्होंने दो गदियों (नेतृत्व की सीटें) की स्थापना की।

एक सीट अहमदाबाद ( नर नारायण देव गदी ) में और दूसरी वडताल ( लक्ष्मी नारायण देव गदी ) में 21 नवंबर 1825 को स्थापित की गई थी। स्वामीनारायण ने अपना संदेश दूसरों तक पहुंचाने और अपने साथी, स्वामीनारायण संप्रदाय को संरक्षित करने के लिए प्रत्येक गदी में एक आचार्य नियुक्त किया। उत्तर प्रदेश में प्रतिनिधियों को खोजने के लिए भेजने के बाद ये आचार्य उनके तत्काल परिवार से आए थे । उन्होंने औपचारिक रूप से अपने दो भाइयों में से प्रत्येक के एक पुत्र को गोद लिया और उन्हें आचार्य के पद पर नियुक्त किया। स्वामीनारायण के बड़े भाई रामप्रताप के पुत्र अयोध्याप्रसाद और उनके छोटे भाई इच्छाराम के पुत्र रघुवीर को क्रमशः अहमदाबाद गदी और वडताल गदी का आचार्य नियुक्त किया गया ।

स्वामीनारायण ने आदेश दिया कि यह पद वंशानुगत होना चाहिए ताकि आचार्य अपने परिवार से रक्त वंश की सीधी रेखा बनाए रखें। उनके अनुयायियों के दो क्षेत्रीय सूबाओं में प्रशासनिक विभाजन को स्वामीनारायण द्वारा लिखे गए एक दस्तावेज़ में विस्तार से बताया गया है जिसे देश विभाग लेख कहा जाता है ।  स्वामीनारायण ने सभी भक्तों और संतों से कहा कि वे दोनों आचार्यों और गोपालानंद स्वामी का पालन करें जिन्हें संप्रदाय के लिए मुख्य स्तंभ और मुख्य तपस्वी माना जाता था।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।किसी भी पूछताछ और सुझाव के लिए मोबाइल नम्बर +91 8630778321 और वर्ड्सएप नंबर +91 9412300183 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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