Wednesday, March 26, 2025
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हमारी संस्कृति का आधार ही प्रेम है…

प्रेम जो गूंगे को वाचाल , पत्थर को मोम, राक्षस को मानव , पशु को देव, मनुष्यत्व को देवत्व तक पहुंचा दे, ईर्ष्या को मिटाकर हृदय में सरसता की गुलाबी सुगंध बिखेर दे, जीवन में फागुनी बहार ला दे,उल्लास और उत्साह की असीमित उर्मियों से मन को तरंगायित कर दे,वही  तो प्रेम है।जीवन का प्राण है ।आधार है। भारतीय चिंतन का पोषक है और है मानवीय संवेदनाओं का चरमोत्कर्ष। जहां कोई अपना -पराया ,छोटा- बड़ा अमीर-गरीब,जड और चेतन नहीं। चेतना का विस्तृत हो जाना ही प्रेम का सर्वोच्च रूप है।
 “रसो वै स:” और ब्रह्मानंद सहोदर उसी प्रेम को कहा गया है। जो रस रूप होकर हर जगह,हर रूप में दृष्टिगोचर और जीवन में साकार रुप में प्रतिफलित होने लगता है, और तब कृष्ण दीवानी मीरा कह उठती हैं-
“हे री !मैं तो प्रेम दीवानी , मेरो दरद न जाने कोय।”
ब्रज की गोपियां गाने लगती हैं –
 “कोऊ माई लहै री गोपालहिं।
दधि को नाम स्याम सुंदर रस ,बिसरि गयो ब्रज बालहिं।।”
कृष्ण को यमुना के पुलिन (किनारे,तट)याद आने लगते हैं।
“ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहिं।
हंस सुता की सुंदर कगरी,अरू कुंजन की छांही।।”
 परंतु वही दैवीय प्रेम आत्मिक पवित्रता को छोड़कर जब मात्र दैहिक धरातल तक सीमित हो जाता है ,तब कैसा वीभत्स और कुत्सित हो जाता है, यह वर्तमान जगत् को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। प्रेम के उसी दैवीय रुप को ही रहने दें, वही वंदनीय है,श्लाघनीय है। सदियों से जिसे कवियों ने अपना स्वर दिया है।
शायर गुलज़ार जी के शब्दों में-
 “प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।”
डॉक्टर अपर्णा पाण्डेय
साहित्यकार, कोटा

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