इच्छाकू राजाओं मे वंशानुक्रम :-
श्री विष्णु पुराण चौथा स्कंद अध्याय 3 का भाग दो के अनुसार अयोध्या के राजा त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चंद्र थे। उनके पुत्र थे रोहिताश्व , उनके पुत्र हरित ; उनके पुत्र कुञ्कु थे, जिसके विजय और सुदेव नाम के दो पुत्र थे । विजय का पुत्र रुरुक था, और रुरुक का पुत्र वृक था , वृक का पुत्र सुबाहु बाहु या बाहुक था।
श्रीमद् भागवत पुराण से इस क्रम से वंशावली मिलती है — “हरिश्चंद्र → रोहित → हरित → चंपा → सुदेवा → विजया → भरुका → वृक → बाहुक आदि आदि।”
हैहय वंश के राजाओ पर एक दृष्टि :-
हैहय वंश में बुध, पुरूरवा, नहुष, ययाति, यदु, हैहय, कृतवीर्य, सहस्रार्जुन, कृष्ण और पाण्डव जैसे धर्मवीर, शक्तिशाली, प्रतापी और दानी राजा हुए हैं| हरिवंश पुराण के अनुसार हैहय, सहस्राजित का पौत्र तथा यदु का प्रपौत्र था। पुराणों में हैहय वंश का इतिहास चंद्रदेव की तेईसवी पीढ़ी में उत्पन्न वीतिहोत्र के समय तक पाया जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार ब्रह्मा की बारहवी पीढ़ी में हैहय का जन्म हुआ। हरिवंश पुराण के अनुसार ग्यारहवी पीढ़ी में हैहय तीन भाई थे जिनमें हैहय सबसे छोटे भाई थे।
पुराणों में इस वंश की पाँच शाखाएँ कही गई हैं —ताल- जंघ, वीतिहोत्र, आवंत्य, तुंडिकेर और जात ।
हैहयों ने शकों के साथ साथ भारत के अनेक देशों के जीता था ।विक्रम संवत् ५५० और ७९० के बीच हैहयों का राज्य चेदि देश और गुजरात में रहा। इस वंश का कार्तवीर्य अर्जुन प्रसिद्ध राजा था , जिसने रावण को हराया था। इसकी राजधानी वर्तमान मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर महिष्मती थी। त्रिपुरी के कलचुरी वंश को हैहय वंश भी कहा जाता है। बाहु नामक सूर्यवंश के राजा और सगर के पिता को हैहयों और तालजंधों ने परास्त कर देश से निष्कासित कर दिया था।
(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय 57.)
अयोध्या के राजा थे बाहु/असित :-
राजा बाहु नाम से मिलती जुलती थोड़ा इतर असित की वंशावली भी मिलती है। असित सूर्यवंश के राजा थे, भरत के पुत्र और राम के पूर्वज थे। सगर के पिता का नाम असित था। वे अत्यंत पराक्रमी थे। हैहय, तालजंघ, शूर और शशबिन्दु नामक राजा उनके शत्रु थे। बाहु इक्ष्वाकु वंश के एक राजा वृक (भरत) से पैदा हुए थे। सुबाहु ( जैन नाम जीतशत्रु) नामक यही इक्ष्वाकु राजा और उसकी रानी यादवी ( जैन नाम विजया देवी) ने अयोध्या से भागकर और्व ऋषि के आश्रम में शरण ली , जब अयोध्या पर हैहय राजा ने कब्ज़ा कर लिया था।
पिता वृक (भरत) के समय से ही युवराज बाहु (असित) का दबदबा:-
वृक एक चक्रवर्ती सम्राट थे । उसने अपने पुरोहितों की मदद से अश्वमेध यज्ञ कराया। अश्व की रक्षा की जिम्मेदारी युवराज बाहु निभा रहे थे। उस समय अयोध्या के पड़ोस में मगध में शक्तिसेन का राज्य था। वह अयोध्या नरेश वृक की अधीनता स्वीकार नही करना चाहता था। उनकी ही प्रेरणा या आदेश से शक्तिसेन की बीरांगना पुत्री युवरानी सुशीला ने यज्ञ का अश्व पकड़ लिया था। युवराज बाहु ने पहले अश्वसेन से अश्व लौटाने के लिए सन्देश वाहक के माध्यम से सन्देश भिजवाया । इसे शक्तिसेन अस्वीकार कर दिया। युवराज बाहु और शक्तिसेन के मध्य भीषण युद्ध हुआ जिसमे अयोध्या का युवराज विजई हुआ। शक्तिसेन शरणागत हुआ।उसे अभय दान मिला।उसने अपनी पुत्री का विवाह युवराज बाहु से करके राजा वृक का अश्व लौटा दिया और यज्ञ पूर्ण हुआ। बाहु की प्रथम पत्नी नंदनी निसंतान थी। उसने भी युवराज बाहु को युवरानी सुशीला से विवाह करने की अनुमति प्रदान किया था।
(ये कथानक रामानंद सागर के “जय गंगा मैया” धारावाहिक के दृश्यों पर आधारित है।)
धर्म परायण राजा बाहु :-
प्रारम्भ में राजा बाहु धर्म परायण था। वह प्रजा का हित और परोपकार के धर्म को निभाता भी था, परन्तु समय के साथ साथ उसमे भोग विलास की प्रवृत्ति बलवती होती गई। वह अधर्म में लिप्त रहने लगा , इसलिए उसे हैहय , तालजंघ , शक , यवन , कंबोज , पारद और पहलवों ने गद्दी से उतार दिया था । उसी समय में भृगुवंशी ब्राह्मण ने भी क्षत्रिय राजाओं का नाश किया था ।
हैहय राजा ने अयोध्या के इच्छाकु राजा बाहु को भगाया :-
राजा बाहु के शत्रुओं ने उनका राज्य और उनकी सारी संपत्ति छीन ली। परेशान होकर वह अपनी पत्नियों के साथ घर छोड़कर हिमालय के जंगल में चला गया।
नंदनी और सुशीला दोनों पत्नियां इस समय गर्भवती थीं। राजकीय और धार्मिक कार्यों में नंदनी को प्रथम पत्नी होने के कारण प्रमुखता दी जाती थी। इसे छोटी रानी सहन नही कर पाती थी। छोटी रानी कालिंदी(सुशीला) एक दासी के बहकावे में आकर पटरानी के गर्भ रोकने की इच्छा जब यादवी अपनी गर्भावस्था के सातवें महीने में थीं, तब
उन्हें जहर दे दिया, जिसके कारण वह सात साल तक गर्भवती रहीं। जिसके प्रभाव से उसका गर्भ सात वर्ष तक गर्भाशय ही में रहा । इस दीर्घ अवधि में राजा बाहु और नंदनी बहुत ही परेशान रहने लगे थे। अन्त में, बाहु वृद्धवस्था के कारण और्व मुनि के आश्रम के समीप अपना शरीर त्याग स्वर्ग सिधार गए।
आत्मदाह ( सती ) की तैयारी को ऋषि और्व ने रोका :-
बाहु की मृत्यु के बाद, उनकी पत्नी ने परंपरा के अनुसार उनकी चिता पर आत्मदाह करने का फैसला किया , लेकिन भार्गव वंश के ऋषि और्व को जब यह पता चला तो उन्होंने उन्हें यह बताकर सती होने से रोक दिया कि वह रानी गर्भवती हैं। कुछ महीनों के बाद, उनको एक बेटे का जन्म हुआ, जिसका नाम और्व ने सगर रखा , जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘जहर वाला’,।
(www.wisdomlib.org (2019-01-28). “ऑर्वा की कहानी” . www.wisdomlib.org . 2022-11-02 को लिया गया .)
उस समय पटरानी ने चिता बनाकर उस पर पति का शव स्थापित कर उसके साथ सती होने का निश्चय किया था। ऋषि और्व, जो भूत, वर्तमान और भविष्य की सभी चीजों को जानते थे। वे अपने आश्रम से बाहर आए और उसे आत्महत्या करने से मना करते हुए कहा, “अयि साध्वि ! रुको! रुको! तू ऐसे दुस्साहस का उद्योग न कर । इस व्यर्थ दुराग्रह को छोड़ ! यह अधर्म है।तेरे उदर में सम्पूर्ण भूमण्डल का स्वामी, अत्यन्त बली पराक्रमशील, अनेक यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला और एक बहादुर राजकुमार, अपने शत्रुओं का नाश करने वाला,कई राज्यों और विश्व का चक्रवती राजा हैं। वह अनेक यज्ञों की हवन करने वाला होगा, ऐसा दुस्साहस पूर्ण कार्य करने की मत सोचो!”
च्यवन आश्रम पर अदभुत बालक का जन्म :-
ऐसा कहे जाने पर वह अनुमरण ( सति होने ) के आग्रह से विरत हो गयी । ऋषि के आदेशों का पालन करते हुए, उसने अपना इरादा त्याग दिया। अपना आशीर्वाद देते हुए भगवान् और्व रानी को अपने आश्रम पर ले आये । कुछ समय बाद वहाँ एक बहुत तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। वह अपने शरीर में विष के साथ पैदा हुआ । ऋषि द्वारा भविष्यवाणी के अनुसार, सागर का जन्म उसके शरीर में जहर के साथ हुआ। उसके साथ ही उसकी माँ को दिया गया विष भी बाहर निकाल दिया गया; और और्व ने जन्म के समय आवश्यक समारोह करने के बाद, उसे इस कारण से सगर (सा, ‘साथ’ और गर , ‘विष’ से) नामकरण दिया गया।
संस्कार और शिक्षा:-
भगवान् और्व ने उसके जातकर्म आदि संस्कार कर उसका नाम ‘ सगर’ रखा तथा उसका उपनयन संस्कार कराया।
उस पवित्र ऋषि ने अपने वर्ग की रीति के साथ उसका अभिषेक मनाया। और्व ने ही उसे वेद, शस्त्रों का उपयोग सिखाया एवं उसे भार्गव नामक आग्नेय शस्त्रों विशेष रूप से अग्नि के जिन्हें भार्गव के नाम के पर रखा गया ।
ऋषि और्व ने उसे तालजंघा , यवन , शक , हैहय और बर्बरों के जीवन लेने से रोका । लेकिन उसने उन्हें अपना बाह्य रूप बदलने पर मजबूर कर दिया। उन्हें विकृत कर दिया – उनमें से कुछ को सिर मुंडाने को कहा, कुछ को मूंछ और दाढ़ी बढ़ाने को कहा, कुछ को अपने बाल खुले रखने को कहा, कुछ को अपना सिर आधा मुंडाने को कहा। बाद में तालजंघों का वध परशुराम जी ने किया था। सगर ने और्व की सलाह के अनुसार अश्वमेध यज्ञ किया।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)