Wednesday, November 13, 2024
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19वीं सदी के महान भारतीय सर्वेक्षकों की गाथा

कुशल प्रशासन, सामरिक युद्ध रणनीति एवं सतत विकास के लिए सटीक मानचित्र का होना परम आवश्यक समझा जाता है इसी सोच के साथ ब्रिटिश सरकारों ने सन 1767 में भारत एवं हिमालयी क्षेत्रों के भौगोलिक भू भाग पर अपना साम्राज्य मजबूत करने के लिए संभवतः भारतीय सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की होगी। राजस्व वसूली से लेकर प्राकृतिक सम्पदा, भूमिगत रत्न इत्यादि की खोज हेतु मानचित्र अपनी प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

भारतीय सर्वेक्षण विभाग के ब्रिटिश अधिकारी और उनकी गाथाएँ तो आप सभी ने सुनी होंगी। उत्तराखंड का जार्ज एवरेस्ट हाउस हो अथवा जार्ज एवरेस्ट के नाम पर माउंट एवरेस्ट शिखर हो अथवा एवरेस्ट, लैंबटोन, मकेंजी छात्रावास हो सभी नाम अंग्रेजों के सम्मान में आज अभी भारत के आजादी के बाद भी गर्व से दर्ज हैं । किन्तु कुछ ऐसे महान भारतीय सर्वेक्षकों और खोजकर्ताओं के नाम इतिहास के पन्नों मे दर्ज होकर वहीं दफन कर दिये गए ताकि अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी बनाई गई नीतियां आजाद भारत में आजाद भारत में काम करती रहें ।

आज मुझे पंडित नैन सिंह, पंडित किशन सिंह, मणिबूढ़ा, कल्याण सिंह, राधानाथ सिकधर जैसे महान खोजकर्ता, भूगोलवेत्ता, सर्वेक्षक और गणितज्ञ जो मूलतः भारत के थे इनके जीवनवृंत, कार्यों और साहसिक यात्राओं के बारे में कुछ लिखने का सौभाग्य मिला है जिसे अपने प्रिय पाठकों तक साझा कर रहा हूँ ।

पंडित नैन सिंह रावlत 

नैन सिंह ( रावत) का जन्म 21 अक्तूबर सन् 1830 मे ग्राम मिलम, ब्लॉक जौहर जिला पिथौरागढ़ (वर्तमान उत्तराखंड राज्य ) में हुआ था। इनके पिता का नाम अमर सिंह और माता का नाम जसुली था। जब ये आठ वर्ष के थे इनकी माता का देहांत हो गया। नैन सिंह के दो सगे भाई नाम सामजंग और मगा था और एक बहन थी।मिलम गाँव कुमाऊँ मण्डल में अल्मोड़ा के बाद दूसरा सबसे बड़ा रिहायशी कस्बा था । यहाँ से बड़ी मात्रा में भारत-तिब्बत व्यापार का मार्ग खुला हुआ था। माता-पिता के देहांत के बाद इनके चचेरे भाई मणि (बूढ़ा ) ने अपने साथ ही व्यापार क्षेत्र में काम करने हेतु प्रेरित किया। फलस्वरूप जुलाई 1851 में वे अपना पैतृक गाँव छोडकर मुंसियारी, दनपुर, बढ़न,हिमनी, जलान, ईरानी, माणा गाँव बद्रीनाथ आ वे लतादेव मारछा के घर इनका विवाह माणा गाँव मारछा की भतीजी उमती रहना इन्हें उचित नहीं सन 1854 में वे अपने गाँव वापस आ गए।

उनको व्यापार में घाटा हुआ और इन्हें नए रोजगार की तलाश थी। उन दिनों ब्रिटिश सरकार की रॉयल जिओग्राफिकल सोसाइटी (आर जी एस) ने भारत में कार्यरत ईस्ट इंडिया कंपनी को सुझाव दिया भारत और उसके सीमांत हिमालयी क्षेत्रों का भौगोलिक मानचित्र तैयार किया जाए और इसके लिए सर्वेक्षण कार्य की शुरूआत हुई ।नैनसिंह के जीवन में एक अभूतपूर्व बदलाव उस वक्त आया जब वे फरवरी 1856 में एक काम के सिलसिले में रामनगर (उत्तराखंड) गए थे और उनकी मुलाकात तीन स्लागिंट्वीट जर्मन बंधुओं रॉबर्ट, एडोल्फ और हरमन जो पेशे से वैज्ञानिक और खोजकर्ता थे उनसे होती है। इन बंधुओं को चुम्बकत्व सर्वे हेतु तुर्किस्तान और लद्दाख जाना था, नैन सिंह के चचेरे भाई मणि इन जर्मन वैज्ञानिको के टुकड़ी सहायक थे, इनके आग्रह पर नैन सिंह ने रॉबर्ट के साथ लेह की तरफ कूच किया और सन 1856 में करगिल के रास्ते कश्मीर पहुँचकर कुछ समय वहीं कार्य किया ।

नैन सिंह ने बहुत शीघ्रता से जर्मन बंधुओं से मानचित्र कला, कॅम्पास के द्वारा अक्षांश देशांतर मापन, ऊध्वाधर मापन और बैरोमीटर का समुचित प्रयोग करना सीख लिया था। नैन सिंह के कार्य और व्यवहार से खुश होकर जर्मन बंधु इन्हें अपने साथ इंग्लैंड ले जाना चाहते थे किन्तु नैन सिंह ने इसे बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था । सन 1856 में नैन सिंह पुनः वागेश्वर आ गए और अपने पुराने कारोबार मे लग गए । यहाँ पर पिंडर हिमनद के समीप उनकी मुलाकात एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी कर्नल हेनेरी स्ट्रेशी से हुई। हेनेरी को नैन सिंह की कुशाग्रता और खोज अभियान की पूर्व जानकारी थी अतः उन्होने अपने मित्र कर्नल एडमंड स्मिथ जो अल्मोड़ा के शिक्षा निरीक्षक से अनुरोध किया।  फलस्वरूप नैनसिंह को एक राजकीय विद्यालय में जो मिलम (जौहर ) गाँव मे था सन 1859 में शिक्षक की नौकरी मिल गई ।

उन दिनों स्कूल मास्टर का वेतन बहुत कम होता था । नैन सिंह को अपने घर के खर्चे चलाना मुश्किल हो गया था । अतः कर्नल स्मिथ ने उन्हें और उनके दो भाइयों कल्याण और मणि से कहा की वे सर्वे ऑफ इंडिया कार्यालय, देहरादून जाएँ और कर्नल मोण्ट्री से मिलें। कर्नल मोण्ट्री ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग में इन्हे नियुक्त किया और फरवरी 1863 में पंडित नैन सिंह ने आधिकारिक तौर पर सर्वे उपकरणों का प्रशिक्षण प्राप्त करना आरंभ किया ।

सन 1863 मे कर्नल मोण्ट्री ने पंडित नैन सिंह को आदेश दिया की वे तिब्बत का मानचित्र तैयार करें। जनवरी 1865 में देहरादून से दल रवाना हुआ जो 13 मार्च 1865 में काठमांडू पहुंचा। उस वक्त तिब्बत एक अनजान देश हुआ करता था । नैन सिंह को तिब्बती भाषा बोलने और समझने की क्षमता पहले से थी अतः 6 सितंबर 1865 में वे तिब्बत पहुंच जाते हैं।

रातुंग सिगात्से ज्ञ्नात्से होते हुए 10 जनवरी 1866 में वे तिब्बत के शहर लाह्सा पहुँचते हैं। सर्वे ऑफ इंडिया के किसी भी खोजकर्ता का यह तिब्बत के शहर लाहसा पर कदम रखना पहली घटना थी । लगभग तीन माह तक नैन सिंह ने लामा के भेष में रहकर अपने यंत्रों को पोटली में छिपाकर सर्वे कार्य किया। 21 अप्रैल 1866 मे इनकी वापसी कैलाश-मानसरोवर – नीती – किंग्री बिगरी-ला-लपथल- टोपिधुंगा – उताधुरा दर्रों के रास्ते 29 जून 1866 को मिलम गाँव में होती है। इस दौरान पंडित नैन सिंह ने कुल 2400 किमी दूरी को कुल 18 महीनों में पैदल चलकर तय की थी। इन भयानक पर्वतीय मार्गो की समुद्र की सतह से औसत ऊंचाई करीब 3300-5300 मीटर तक थी। इस साहसिक कार्य हेतु ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रॉयल जिओग्राफिकल सोसाइटी (लंदन) द्वारा स्वर्ण पदक प्रदान किया था ।

पूर्वी हिमालय के पश्चिमी तिब्बत अभियान का मुख्य उद्देश्य वहाँ पर मौजूद सोना, नमक और बोरेक्स की खनन संपदा का पता लगाकर कच्चे माल को लाकर भारत के ब्रिटिश सरकार को सुपुर्द करना था। पंडित नैन सिंह का दूसरा अभियान 14 फरवरी सन 11873 में शुरू हुआ जिसमें बिहार के साहिबगंज से बंगाल के दार्जिलिंग – सिक्किम -ज्ञांगचे से होकर पुनः लाहसा तक पहुँच मार्ग के सर्वे कार्य को पूरा किया ।

 सन 1874 में भारत – तुर्किस्तान का सर्वे कार्य
तुर्किस्तान का सर्वे कार्य (1500 किमी) वाया नजीबाबाद-श्रीनगर जोशीमठ-नीती तोलीग-बोगा-दमचोक–रूडोक–खोटन – के रास्ते तय किया । तिब्बत से सोना, बोरेक्स और नमक को लाने का पता धीरे धीरे जब तिब्बत और लद्दाख के लोगों को चलने लगा तब डाकू और लुटेरे पंडित नैन सिंह की टीम को लूटने और मारने की योजना बनाने लगे। ऐसे में नैन सिंह ने भिक्षु का भेष धारण करके लाहसा से पलायन करने का इरादा किया। वापसी नवंबर 1874 में सांगपो नदी को पार करके असम के ऊपरी हिस्से के रास्ते तवांग होते हुये उसके बाद कलकत्ता होकर 11 मार्च 1875 में वापस देहारादून आ गए। इस अभियान के दौरान कुल 2800 किमी की साहसिक यात्रा पूर्ण की।

लगातार उच्च हिमालयी पर्वत चोटियों, ग्लेशियरों और दर्रों से होकर पैदल रास्ता तय करके पंडित नैन सिंह का स्वास्थ्य खराब होने लगा था। इस प्रकार उन्होंने अब हिमालय की खोज की यात्रा पर जाना बंद कर दिया । पंडित नैन सिंह ने जिस प्रकार हिमालय के जोखिम और अज्ञात मार्गों का पता लगाया वह भारतीय सर्वेक्षण विभाग के इतिहास में अतुलनीय और अद्भुत है।

यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि अंग्रेज हुकूमत ने पंडित नैन सिंह के पश्चिमी हिमालय के चार साहसिक अभियानो को विभागीय दस्तावेज में उतना सम्मान नहीं दिया जितना कि उन्होंने अपने अंग्रेज सर्वेक्षकों के लिए लिखा है । किन्तु उन्हीं ब्रिटिश काल में हेनेरी जैसे ईमानदार इतिहासकर भी थे जिसने रॉयल जिओग्राफिकल सोसाइटी लंदन से आग्रह किया परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने पंडित नैन सिंह को विक्टोरिया मेडल से अलंकृत किया था।

पंडित नैन सिंह का देहांत सन 1895 में गोरी नदी के तट पर मदकोट गाँव में हुआ था । स्वतंत्र भारत के भारतीय सर्वेक्षण विभाग में पंडित नैन सिंह का नाम और उनके साहसिक खोज अभियान की घटनाएँ बड़े गर्व से याद की जाती हैं

पंडित किशन सिंह

पंडित किशन सिंह, जिन्हें राय बहादुर किशन सिंह रावत के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रसिद्ध भारतीय सर्वेक्षक और अन्वेषक थे। वे भारत के उत्तराखंड राज्य से थे और उन्हें सर्वे ऑफ इंडिया में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। किशन सिंह ने हिमालय के क्षेत्रों की सर्वेक्षणों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनके कार्यों में माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई मापना भी शामिल था।

राय बहादुर किशन सिंह रावत का जन्म सन 1850 में ग्राम मिलम जनपद पिथौरागढ़ हुआ था किशन सिंह ने वर्ष 1878-82 के दरम्यान सर्वे आफ इंडिया द्वारा दार्जलिंग- मंगोलिया मार्ग के का सटीक मापन के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

नहीं जा सकता है। पंडित सन् 1862 में एक राजकीय के रूप मे नियुक्त हुए । उन्होंने विद्यालय ग्राम मिलम में तथा गर्वयांग राजकीय विद्यालय में अपनी सेवाएं दी थी। सन किशन सिंह का चयन भारतीय देहारादून में प्रशिक्षु सर्वेक्षक के वर्ष के कठिन प्रशिक्षण के वर्ष तक उन्होंने तिब्बत और भौगोलिक क्षेत्रों का सर्वेक्षण मानसरोवर, शिगाचे महत्वपूर्ण अभियान थे ।

दर्जिलिंग – लाहसा मंगोलिया अभियान (1878 – 1882) उनके प्रमुख अभियानो में से एक था। पंडित किशन सिंह ने देहारादून स्थित भारतीय सर्वेक्षण विभाग में बतौर प्रशिक्षक के रूप मे अपनी सेवाएँ दीं। सन 1885 में वे भारतीय सर्वेक्षण विभाग से सेवनिवृत हुए थे। उनके अदम्य साहसिक सर्वे अभियान से प्रसन्न होकर ब्रिटिश भारतीय सरकार ने जनपद सीतापुर (उत्तर प्रदेश) में जागीर प्रदान की जिसकी सालाना राजस्व रुपया 1850 थी पेरिस जिओग्राफिकल सोसाइटी ने उन्हें स्वर्ण पदक से नवाजा था । इटालियन जिओग्राफिकल सोसाइटी ने भी उन्हें स्वर्ण पदक से अलंकृत किया था। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें “राय बहादुर” की उपाधि देकर सम्मानित किया था ।

सेवानिवृत होने के बाद पंडित किशन सिंह अपने पैतृक निवास स्थान मिलम (जौहार) आकर ग्रामीण लोगों की सामाजिक और आर्थिक मदद करने में जुट गए और जौहर ग्रामीण विकास कार्यों में सक्रियता से जुड़े रहे। सन 1913 में उन्हें जौहर ‘उपकारिणी’ महासभा का संरक्षक बनाया गया। पंडित किशन सिंह का देहांत फरवरी 1921 में हुआ था । पंडित किशन सिंह के मरणोपरांत भारतीय अन्वेषक और खोजकर्ता का सूरज अस्त हो गया । राधानाथ सिकधर

विश्व की सर्वोच्च शिखर के ऊंचाई के गणनाकर्ता एवं महान गणितज्ञ राधानाथ सिकधर का जन्म अक्तूबर 1813 में कोलकाता के जोरसोको नामक स्थान पर एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम तूतीराम था। राधानाथ की तीन बहनें और दो सगे भाई थे। राधा नाथ जी ने विवाह नहीं किया था । इनकी आरंभिक शिक्षा गाँव के ही राजकीय विद्यालय में हुई थी। बाद में इनका दाखिला सन 1824 में हिन्दू कालेज (वर्तमान में प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय) में हुआ । हिन्दू कालेज में गणित संकाय के मशहूर प्रोफेसर ट्यटेलर के सानिध्य में राधानाथ ने गणित और भौतिकी विषय मे निपुणता हासिल की। न्यूटन के गणितीय–भौतिकी सिद्धांत में राधानाथ का कोई मुकाबला नहीं था। राधा नाथ ने अँग्रेजी, संस्कृत और दर्शनशास्त्र विषयों में भी ज्ञान प्राप्त किया ।

ग्रीक और लेटिन भाषा की भी उन्हें समान्य जानकारी थी। कर्नल विलियम लंबटन के बाद जार्ज एवरेस्ट ने सन 1830 में जब सर्वेयर जनरल का पद संभाला तभी उन्होंने भारतीय सर्वेक्षण विभाग को दो भागो में विभाजित किया। पहला भाग सर्वेक्षण कार्य और दूसरा था गणना कार्य । प्रेक्षण कार्य साहसिक किन्तु उतना जटिल नहीं था जितना कि गणना के उपरांत सटीक नतीजों की प्राप्ति को परिणाम के तौर पर स्वीकारा इसके लिए जटिल गणितीय सिद्धांत और उच्च स्तर का भौतिकी और नक्षत्र विज्ञान का विशेष ज्ञान होना जरूरी है ।

सर जार्ज एवरेस्ट ने इसके लिए हिन्दू कालेज को पत्र लिखा और अनुरोध किया कि उनके विभाग को मेधावी छात्र जो गणित और विज्ञान मे योग्यता रखते हों उनके नाम भेजे जाएँ । प्रोफेसर त्यटलर ने कुल आठ नाम भेजे जिसमें राधानाथ सिकदर सबसे उपयुक्त साबित हुए । 19 दिसंबर 1834 में राधानाथ सिकघर ने ग्रेट त्रिगोनोमेट्रिकल सर्वे आफ इंडिया ( जी टी एस ) कोलकाता मुख्यालय में नौकरी प्राप्त की ।

राधानाथ वे प्रथम भारतीय थे जिन्हें (जी०टी०एस०) शाखा में नौकरी करने का अवसर मिला । सन 1832 में राधानाथ सिकदर ने एवरेस्ट के साथ देहरादून प्रवर्तन कार्यालय में कार्य करना आरंभ किया। राधानाथ की मदद से जार्ज एवरेस्ट ने करीब 1400 किमी भूमि (बिदर से मसूरी) का मापन किया। सन 1851 में राधानाथ सिकधर की मुख्य संगणक (चीफ कम्प्यूटर) पद पर पदोन्नति हुई और उन्हे कोलकाता भेजा गया । कोलकाता जाने के बाद उन्हें मौसम विभाग के अधीक्षक पद पर अतिरिक्त कार्यभार भी सौंपा गया। यह कार्यालय भी सर्वे आफ इंडिया कोलकाता परिसर में हुआ करता था। जीटीएस गणना कार्य के साथ ही उन्होंने अपने वैज्ञानिक शोध के जरिये मौसम विज्ञान के रूख को समझने में महत्वपूर्ण उपकरणों और सिद्धांतों का व्यापक प्रयोग किया जिसके आधार पर मौसम विभाग को नई दिशा मिली।

जार्ज एवरेस्ट के इंग्लैंड चले जाने के बाद कर्नल एंड्रू स्कॉट वौघ ने भारत के महासर्वेक्षक पद का कार्यभार संभाला। एंड्रू एक कूटनीतिज्ञ और अहंकारी स्वभाव का ब्रिटिश महासर्वेक्षक था। वह बाबू राधानाथ सिकधर की विद्वता से ईर्ष्या करता था और चोटी संख्या vx के गणना कार्य से उन्हें हटा कर “जे ओ निकोलस और जॉन हेनेसी ” ( 1845 1850 ) नामक दो अंग्रेज सर्वेक्षकों को उच्च हिमालयी शिखरों के प्रेक्षण कार्य हेतु अपनी अगुवाई में दुबारा भेजा और VX शिखर कि ऊंचाई को मापने कि गणना करने को कहा। निकोलस और हेनेसी को पता था कि दुनियाँ कि सबसे ऊंची शिखर के जटिल वैज्ञानिक गणना एवं विश्लेषण कार्य सिर्फ राधानाथ ही कर सकते हैं अतः उनके अनुरोध पर एंड्र वाग ने राधानाथ सिकधर को आदेश दिया कि वे इस काम को परिणाम तक ले जाएँ।

बाबू राधानाथ ने शिखर की ऊंचाई की सटीक वैज्ञानिक गणना विभिन्न छह सर्वे स्टेशन के प्रेक्षणों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर की और इसकी ऊंचाई 29000 फिट का सफल आंकलन किया। एंड्रू ने इसे अपना नाम देने के लिए 2 फिट ऊंचाई और जोड़ी और शिखर एक्स.वी. की ऊंचाई 29002 फिट बताई। बंगाल सर्वे के जनरल रिपोर्ट 1851 – 54तक मे राधानाथ सिकधर के नाम का जिक्र नहीं किया गया। जब यह बात राधानाथ सिकधर जी को पता चली तो उन्होंने महासर्वेक्षक एंड्रू वाग को निवेदन पत्र लिखा और अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए उन्हें शिखर की गणना को याद दिलाया किन्तु एंड्रू ने यह कहते हुए राधानाथ के योगदान को नकार दिया कि राधानाथहिमालय चोटी पर कभी प्रेक्षण करने गए ही नहीं उन्होंने सिर्फ ऊंचाई की गणना की थी इसलिए उनको माउंट एवरेस्ट खोज का श्रेय दिया जाना उचित नहीं है।

एंड्रू जैसे अंग्रेज महासर्वेक्षक और शासक ने एक महान भारतीय गणितज्ञ और शोधकर्ता को हतोत्साहित करने का काम किया था। ऐसे और भी भारतीय शोधकर्ता होंगे जिनके नाम और भारतीय विज्ञान में योगदान को खोजने की परम आवश्यकता है। इतना ही नहीं एंड्रू वाग ने विश्व की ऊंची शिखर के नामकरण को लेकर भी नेपाल, तिब्बत भारत और चीन के स्थानीय नामों को अस्वीकार करते हुए शिखर को अपने दलील और पद के बल पर गौरीशिखर अथवा देवधुड़गा नामक चोटी को माउन्ट एवरेस्ट नाम दे दिया। जब यह बात सर जार्ज एवरेस्ट को पता चली तो उन्होंने कहा कि इसका नाम एवरेस्ट न होकर स्थानीय नाम अगर रखा जाता तो उचित होगा। एंड्रू वाग के प्रभाव के सामने किसी की बात नहीं सुनी गई और अंततः विश्व के मानचित्र पर माउन्ट एवरेस्ट को दर्ज कराने में वह सफल रहा ।

राधानाथ सिकधर ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग के अनेक गणितीय गणनाओं पर पुस्तकें और अध्याय लिखे थे जो आज भी प्रासांगिक है। सही अर्थों मे राधानाथ सिकधर आधुनिक भारत के इतिहास में एक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ थे वे जीवन पर्यन्त तक गणित के क्षेत्र में कार्य करते हुये अंत में मात्र 57 वर्ष की आयु मे गोंडलपाड़ा चन्दन नगर (हुगली) पश्चिम बंगाल से इस दुनिया को अलविदा कह गए।

(लेखक देहरादून स्थित सर्वेक्षण संस्थान में महासर्वेक्षक हैं)
https://www.surveyofindia.gov.in/ की पत्रिका सर्वेक्षण दर्पण से साभार

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