१९५७ के हिन्दी रक्षा आन्दोलन में मेरे लिये नेताओं का आदेश था कि गिरफ्तारी से बचते हुए जत्थे भेजो,हिन्दी रक्षा समिति को पैसा भेजो। मैं प्रचार में जुट गया। हमारी पार्टी के वारंट हो गए। मेरे को सूचना देने वाले पूर्ण सिंह जी कापड़ो निवासी गुप्त सूचना देते थे। बालू गांव में प्रचार होना था। पुलिस आ गई। बलबीर सिंह उपदेशक ने कहा मुझे तो पुलिस से बहुत डर लग रहा है। मैं तो भूमिगत हो रहा हूँ। वे हमें छोड़ कर चले गए। में प्रचार करता रहा। सच्चा खेड़ा नरवाना , दनौदा होते हुए कापड़ो किन्नर गांव में आ गए।
नारनौंद थाने में किसी ने पता दे दिया। चौधरी रतनसिंह थानेदार दल बल सहित किन्नर गांव में पहुंचे। में हिन्दी रक्षा समिति की ओर से प्रचार कर रहा था। एक दम पुलिस को देख कर गांव के लोग कुछ भाग गए। थानेदार ने मेरी बाजू पकड़ ली और बोला सरकार के खिलाफ प्रचार करने को किसने कहा था ? मैंने उत्तर दिया- पंजाबी जबरन नहीं पढेंगे, जो पढ़ना चाहे पढ़े। इस शोर में चौ० चेतराम फौजी हमारे बाजे ढोलक को लेकर पिछले जंगले में से कूद कर किसी सुरक्षित जगह पर रख आये और मेरे कान में आकर कहा कि सामान की चिन्ता मत करना, छूटने के बाद आकर ले जाना। पुलिस ने उसको भी पकड़ लिया। जीप में बैठकर मैंने थानेदार को कहा आपका दोषी मैं हूँ , चेतराम को तंग मत करो। खैर उसको गांव से निकलते ही छोड़ दिया। मेरे नेत्रहीन ढोलकिये को मेरे आग्रह पर जीप के अन्दर बैठा लिया, पर मुझे जीप के बोनट पर बैठाकर नारनोंद थाने में ले गए। यह दिसम्बर मास के आरम्भ की सर्द रात थी। मुझ पर जनता को भड़काने का और ढोलकिये के थैले में दाढ़ी बनाने का ब्लेड मिलने के कारण जेब काटने का आरोप लगाया गया। रात को नारनौंद थाने की हवालात में बंद कर दिया। प्रातः खाना खिलाकर हांसी की अदालत में पेश किया और वहाँ से हिसार की बोस्टन जेल में भेज दिया। वहाँ ७०० सत्याग्रही पहले से ही थे।
जेल में आर्यसमाज के बड़े उपदेशक और विद्वान नेता थे। दोनों समय उत्सव जैसा माहौल होता था। पं० रामचन्द्र देहलवी, पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती जैसे विद्वानों का फुरसत का संग हम जैसे युवा उपदेशकों के लिए बड़ा लाभकारी सिद्ध हुआ। विद्वानों के प्रवचन और उपदेश,व्यक्तिगत चर्चा और विचार विमर्श चलते थे। हम भी वहाँ प्रायः गाते थे-
धर कर के सर हथेली पे सब चण्डीगढ़ चलो।
हिन्दी की इस पहेली पे सब चण्डीगढ़ चलो।।
झण्डे लगा कर जेली पे सब चण्डीगढ़ चलो।।
जेल में दो रोटी मिलती थी। उनमें मिट्टी भी होती थी। वे बहुत मोटी रोटी होती थी। सिद्धान्ती जी के नेतृत्व में सत्याग्रही जेलर से मिले और निवेदन किया कि इतने ही आटे की चार रोटी बनवा दिया करो और मिट्टी आदि का ध्यान रखा जाय। जेलर सत्ता का चमचा था। उसने हमारी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसके व्यवहार से तंग आकर नेताओं के आदेश पर सत्याग्रहियों ने भूख हड़ताल कर दी। फिर उसकी बुद्धि में बात आई। उसने उस समस्या का समाधान कर दिया। हमें दो की बजाय चार रोटी मिलने लगी और शुद्धि का भी ध्यान रखा जाने लगा। हिन्दी आन्दोलन की मांगे मानने के बाद हमारी जेल से मुक्ति हो गई।
स्व. श्री चन्द्रभानु जी के लिखे संस्मरणों से