Sunday, December 22, 2024
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कमज़ोर हो रहा २४ अकबर रोड़ का ‘कांग्रेसी किला’

देश भर में महँगाई की हाहाकार है, खेतीहर परेशान होकर आंदोलन कर रहा हैं, रोज़गार के मुद्दे पर सरकारी प्रबंध कमजोर सिद्ध हो रहे हो, कोरोना ने देश में अघोषित आपातकाल की स्थिति बना दी हो ऐसे समय में मजबूत विपक्ष का होना भी लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए बहुत मायने रखता हैं। राजनीति और रसोई में बनाई जाने वाली रोटी की एक-सी दशा हैं, समय रहते उसे पलटा नहीं तो जलना तय हैं। जब लगातार नेतृत्व की अस्वीकार्यता उभर कर आ रही हो, जब सम्पूर्ण राजनैतिक हलके में साख गिरती नज़र आ रही हो, जब परिवार के कारण पार्टी की फजीहत हो रही हो, जब संगठन की विफलता मुँह बाहे खड़ी हो, जब सार्वभौमिक रूप से नकारा जा रहा हो, जब अपने ही सैनिक मैदान से भाग रहे हो, कार्यकर्ताओं के मनोबल में क्षीणता दिखने लगे, जब सेनापति विहीन सेना मैदान छोड़ने लगे, जब गुटबाजी चरम पर हो, एक दूसरे की टांग खींचना परंपरा बनने लगे, जब संगठित शक्तियाँ स्वयं कमजोर सिद्ध होने लगे तब ऐसे समय में राजनैतिक दल के के मुखिया को आत्मावलोकन का मार्ग जरूर अपनाना चाहिए। जी हाँ ! हम यहाँ चर्चा कर रहें हैं देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल जिसने भारत की स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया और आज़ादी दिलाने में अहम योगदान दिया। आज नेतृत्व विहीन होती कांग्रेस अकबर रोड़ पर बने हवाई किले की चाहर दीवारी में ही अपने अस्तित्व को खंगालती नज़र आ रही हैं।

संगठन की क्षमताओं के पूर्वावलोकन अथवा संवैधानिक संगठन क्षमता की बात करें तो कांग्रेस अपने नेतृत्व को मजबूत न करके न केवल पार्टी का अपना अहित कर रही है बल्कि देश के लोकतंत्र का नुकसान कर रही हैं। लोकतंत्र की सजगता और सुचारु रूप से कार्य करने की क्षमता सत्ता के निर्णय और विपक्ष की मजबूत भूमिका से मिलकर होता हैं, अन्यथा सत्ता निरंकुश हो जाती हैं। पूर्व में देश में लगा आपातकाल इसी बात की गवाही देता हैं कि विपक्ष के कमज़ोर होते ही सत्ता निरंकुश हो गई और दुष्परिणाम का भुगतान देश ने किया।

एक समय था जब कांग्रेस के शीर्ष नेता संजय गाँधी ने पार्टी में भर्ती अभियान की तर्ज पर साक्षात्कार आधारित नियुक्तियाँ की थी, युवाओं को पार्टी पदों पर बैठाया और उनके कारण पार्टी मजबूत भी हुई। इसके बाद कांग्रेस के अस्तित्व पर संकट जब आया तो पार्टी आलाकमान भर्ती अभियान को भूल गये किन्तु राहुल गाँधी ने 2011 में इस प्रक्रिया को पुनः अपनाया, पार्टी में चुनाव प्रक्रिया लाई गई, इसके माध्यम से गैर राजनैतिक युवा कांग्रेस पार्टी से जुड़े और सक्रिय भी हुए। ‘नेता का बेटा ही नेता बनेगा’ इस विचारधारा को कांग्रेस में धक्का लगा, और अच्छी बात तो यह हैं कि उस भर्ती अभियान में चयनित युवा ही आज भी राहुल गाँधी की लड़ाई लड़ रहे हैं और पार्टी को मजबूत कर रहे है। किन्तु शीर्ष नेतृत्व की अकारण उपेक्षा से ही इन युवाओं को भी पार्टी में कमजोर किया जाने लगा। हालत इतने बदतर हो गए कि वर्तमान में युवक कांग्रेस के इतर कांग्रेस के अधिकांश अनुषांगिक संगठन या तो नेतृत्व विहीन है या फिर निष्क्रियता की भेंट चढ़ चुके हैं।

वर्तमान समय में देश में किसान आंदोलन चल रहा है जिसमें कांग्रेस बढ़ चढ़कर हिस्सा तो लेना चाह रही है किन्तु आल इंडिया किसान कांग्रेस का चेयरमेन कौन ? यानि यह नेतृत्व विहीन हैं। महिला कांग्रेस लगभग ख़त्म सी हो गई हैं। कांग्रेस पार्टी के नेता अपने भाषणों में आदिवासी हित की बात करते हैं, यह सच भी हैं कि कांग्रेस ने देश की सत्ता में रहते हुए वन अधिकार कानून लागू करने से लेकर कई बड़े फैसले किए हैं और कांग्रेस अपने आदिवासी नेतृत्व पर घमंड भी करती है पर यह भी कड़वा सच है कि पिछले दो वर्षों से आदिवासी कांग्रेस नेतृत्व विहीन ही हैं। हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि सेवा दल की नियुक्तियों में पिछले एक दशक से बदलाव नहीं हुआ हैं। मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों की जिला और ब्लॉक इकाइयों की इतनी बुरी स्थिति है कि पंद्रह वर्षों से एक ही व्यक्ति पार्टी के उन संवैधानिक पदों पर है जिन्होंने अब तक कांग्रेस का भला नहीं किया।

आँखों को जब 24 अकबर रोड़ स्थित कांग्रेसी क़िले पर ले जाएँ तो यह नज़र आएगा कि किले के सामने की दुकानों से कांग्रेस चल रही हैं, आल इंडिया आदिवासी कांग्रेस का बैठक कक्ष तक नहीं हैं 24 अकबर रोड़ पर। आखिरकार क्या सोनिया गाँधी या राहुल गाँधी अपने कांग्रेसी किले को ऐसे ध्वस्त होता खुद देखना चाहते हैं अथवा लापरवाही का आलम इतना गहरा हो गया है कि कभी पार्टी अध्यक्ष अपने ही किले की दीवारों में बने कुछ गिने-चुने कक्षों में भी दौरा करने में असमर्थ हैं? चौवीस अकबर रोड़ स्थित कांग्रेस किला अपना अस्ताचल देख रहा हैं, सामने की गुमटियाँ और दुकाने अपने आपको कांग्रेस का हाई कमान मानने लग चुकी हैं क्योंकि कांग्रेस के आलाकमान अभी भी देर से जागने के आदी हैं।

आख़िरकार 2024 में देश में फिर आम चुनाव आने वाले है, इसी बीच पार्टी के कई शीर्ष नेता पार्टी को अलविदा कह गए, बावजूद इसके कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व आम चुनाव में सक्रिय भागीदारी जैसा नज़र नहीं आ रहा जबकि सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी चौवीस घंटे सातो दिन चुनाव मोड में ही रहता हैं। कांग्रेस के पास सेवा दल, यूथ कांग्रेस, एनएसयूआई, महिला कांग्रेस, प्रोफेशनल कांग्रेस,आदिवासी कांग्रेस, किसान कांग्रेस जैसे अन्य कई प्रकल्प तो है फिर भी कांग्रेस के पास बूथ मैनेजमेंट की कमी हैं। कांग्रेस का कोई भी घटक मतदाताओं तक पहुँचने में असमर्थ ही है, वैसे कांग्रेस में प्रशिक्षण का चलन भी न के बराबर ही है, न कार्यकर्ताओं को बौद्धिक सत्र में प्रशिक्षित किया जाता है न ही उनके मनोबल को बढ़ाने का प्रबंधन। यदि कांग्रेस अपनी इन गलतियों से कुछ सीखे और फिर देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तर्ज पर मतदाताओं से जुड़ा जा सके ऐसी प्रणाली विकसित करे, कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने पर ध्यान दे, शीर्ष नेतृत्व को दुरुस्त करें, मजबूत संवैधानिक ढाँचा तैयार करने में कामयाब हो पाए, संसदीय प्रणाली को परिवारवाद, राजसी ठाठ से बाहर निकाल कर लोकतंत्रीय बनाने में सफल हो पाए तभी किसी चमत्कार की उम्मीद होगी। भाजपा का चुनावी प्रबंधन कांग्रेस और अन्य राजनैतिक दलों के लिए सीखने का विषय है, जिस पर अब भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो कांग्रेस को इतिहास के पन्नों में सिमटने से कोई रोक नहीं सकता।

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]

डॉ अर्पण जैन “अविचल”
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