आज पूरी दुनिया में उथल-पुथल का दौर चल रहा होता है, ऐसी स्थितियों में अक्सर लोग लक्ष्य को पाने की आस छोड़ देते हैं। उनका सारा ध्यान महज अपने अस्तित्व को बचाए रखने में लग जाता है। लक्ष्य का होना जीवन को स्पष्टता देता है। अच्छी खबर यह है कि आप बंधी-बंधाई सुरक्षित राहों के इतर राह चुनते हैं तो उन अवसरों पर सोचना भी आसान हो जाता है, जो आपको मुश्किल लगती थीं।
परिवर्तन की इस संधि-बेला में, इस भूमण्डलीकरण, आर्थिक आजादी और आक्रामकता के दौर में एक ऐसी मानवीय संरचना की आवश्यकता है जहां इंसान और उसकी इंसानियता दोनों बरकरार रहे। इसके लिये मनुष्य को भाग्य के भरोसे न रहकर पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता बल्कि सफलता का सूत्रधार है पुरुषार्थ। इसके लिये जरूरी है आप हर रोज अपने सपनांे के बारे में सोचें और उनको आकार देने के लिये तत्पर हो।
इंसान का अपना प्रिय जीवन-संगीत टूट रहा है। वह अपने से, अपने लोगों से और प्रकृति से अलग हो रहा है। उसका निजी एकांत खो रहा है और रात का खामोश अंधेरा भी। इलियट के शब्दों में, ‘‘कहां है वह जीवन जिसे हमने जीने में ही खो दिया।’’ फिर भी हमें उस जीवन को पाना है जहां इंसान आज भी अपनी पूरी ताकत, अभेद्य जिजीविषा और अथाह गरिमा और सतत पुरुषार्थ के साथ जिंदा है। इसी जिजीविषा एवं पुरुषार्थ के बल पर वह चांद और मंगल ग्रह की यात्राएं करता रहा है। उसने महाद्वीपों के बीच की दूरी को खत्म किया है। वह अपनी कामयाबियों का जश्न मना रहा है फिर भी कहीं-न-कहीं इंसान के पुरुषार्थ की दिशा दिग्भ्रमित रही है कि मनुष्य के सामने हर समय अस्तित्व का संघर्ष कायम है। जब हम अपनी ही सोच और क्षमताओं पर संदेह करने लगते हैं तब अंधेरा घना होता है। तभी लगता है कि अब कुछ नहीं हो सकता। लेखिका एलेक्जेंड्रा फ्रेन्जन कहती हैं, ‘अगर दिल धड़क रहा है, फेफड़े सांस ले रहे हैं और आप जिंदा हैं तो कोई भी भला, रचनात्मक और खुशी देने वाला काम करने में देरी नहीं हुई है।’
हालांकि इस संघर्ष और विश्वास से उसको नयी ताकत, नया विश्वास और नयी ऊर्जा मिलती है और इसी से संभवतः वह स्वार्थी बना तो परोपकारी भी बना। वह क्रूर बना तो दयालु भी बना, वह लोभी व लालची बना तो उदार व अपरिग्रह भी बना। वह हत्यारा और हिंसक हुआ तो रक्षक और जीवनदाता भी बना। आज उसकी चतुराई, उसकी बुद्धिमता, उसके श्रम और मनोबल पर चकित हो जाना पड़ता है। इस सबके बावजूद जरूरत है कि इंसान का पुरुषार्थ उन दिशाओं में अग्रसर हो जहां से उत्पन्न सद्गुणों से इंसान का मानवीय चेहरा दमकने लगे। इंसान के सम्मुख खड़ी अशिक्षा, कुपोषण और अन्य जीने की सुविधाओं के अभाव की विभीषिका समाप्त हो। वह जीवन के उच्चतर मूल्यों की ओर अग्रसर हो। सत्य, अहिंसा, सादगी, सच्चाई और मनुष्यता के गुणों के बारे में उसकी आस्था कायम रहे।
कहते हैं एक बार इंद्र किसी कारणवश पृथ्वीवासियों से नाराज हो गए और उन्होंने कहा कि बारह वर्ष तक वर्षा नहीं करनी है। किसी ने उनसे पूछा कि क्या सचमुच बारह वर्ष तक बरसात नहीं होगी। इंद्र ने कहा-हां, यदि कहीं शिवजी डमरू बजा दें तो वर्षा हो सकती है। इंद्र ने जाकर शिवजी से निवेदन किया कि भगवन्! आप बारह वर्ष तक डमरू न बजायें। शिवजी ने डमरू बजाना बंद कर दिया। तीन वर्ष बीत गए, एक बूंद पानी नहीं गिरा। सर्वत्र हाहाकार मच गया। एक दिन शिव-पार्वती कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक किसान हल-बैल लिए खेत जोत रहा है। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। दोनों किसान के पास गए और कहने लगे-क्यों भाई! जब आपको पता है कि आने वाले नौ वर्षों में भी बरसात नहीं होगी तो तुम खेत की जुताई क्यों कर रहे हो? किसान ने कहा-वर्षा को होना न होना मेरे हाथ में नहीं है लेकिन मैंने यदि हल चलाना छोड़ दिया तो बारह साल बाद न तो मुझे और न ही मेरे बैलों को हल चलाने का अभ्यास रहेगा। हल चलाने का अभ्यास बना रहे इसलिए हल चला रहा हूं। किसान की बात सुनकर पार्वती ने शिवजी से कहा कि स्वामिन्! तीन साल हो गए आपने डमरू नहीं बजाया, अभी नौ साल और नहीं बजाना है। देखो! कहीं आप भी डमरू बजाने का अभ्यास न भूल जाएं। शिवजी ने सोचा-बात तो सही है। डमरू बजाकर देख लेना चाहिए। वे डमरू बजाकर देखने लगे। उनका डमरू बजते ही पानी झर-झर बरसने लगा।
उक्त कथा का सार संदेश यही है कि मनुष्य को अपना प्रयास नहीं छोड़ना चाहिए। किसी काम में सफलता मिलेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। भविष्य में क्या होने वाला है, सब अनिश्चित है। यदि कुछ निश्चित है तो वह है व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ। सफलता मिलेगी या नहीं इसकी चिंता छोड़कर केवल अपना काम करता चले। सफलता मिल गई तो वाह-वाह और यदि नहीं भी मिली तो भी मन को इतना संतोष तो रहेगा कि जितना मुझे करना था वह मैंने किया। यह संतोष भी एक प्रकार की सफलता ही है।
यह आवश्यक नहीं है कि सफलता प्रथम प्रयास में ही मिल जाए। जो आज शिखर पर पहुंचे हुए हैं वे भी कई बार गिरे हैं, ठोकर खाई है। उस शिशु को देखिए जो अभी चलना सीख रहा है। चलने के प्रयास में वह बार-बार गिरता है किंतु उसका साहस कम नहीं होता। गिरने के बावजूद भी प्रसन्नता और उमंग उसके चेहरे की शोभा को बढ़ाती ही है। जरा विचार करें उस नन्हें से बीज के बारे में जो अपने अंदर विशाल वृक्ष उत्पन्न करने की क्षमता समेटे हुए है। आज जो विशाल वृक्ष दूर-दूर तक अपनी शाखाएं फैलाएं खड़ा है, जरा सोचो कितने संघर्षों, झंझावतों को सहन करने के बाद इस स्थिति में पहुंचा है। सर्वस्व समर्पण और अपार प्रसव पीड़ा सहन करने के बाद ही कोई नारी मातृत्व का गौरव प्राप्त करती है।
यदि लक्ष्य स्पष्ट हो, उसको पाने की तीव्र उत्कष्ठा एवं अदम्य उत्साह हो तो अकेला व्यक्ति भी बहुत कुछ कर सकता है। विश्वकवि रविंद्रनाथ टैगोर का यह कथन कितना सटीक है कि अस्त होने के पूर्व सूर्य ने पूछा कि मेरे अस्त हो जाने के बाद दुनिया को प्रकाशित करने का काम कौन करेगा। तब एक छोटा-सा दीपक सामने आया और कहा प्रभु! जितना मुझसे हो सकेगा उतना प्रकाश करने का काम मैं करूंगा। हम देखते हैं कि आखिरी बूंद तक दीपक अपना प्रकाश फैलाता रहता है। जितना हम कर सकते हैं उतना करते चले। आगे का मार्ग प्रशस्त होता चला जाएगा। किसी ने कितना सुंदर कहा है-जितना तुम कर सकते हो उतना करो, फिर जो तुम नहीं कर सको, उसे परमात्मा करेगा।
जो व्यक्ति आपत्ति-विपत्ति से घबराता नहीं, प्रतिकूलता के सामने झुकता नहीं और दुःख को भी प्रगति की सीढ़ी बना लेता है, उसकी सफलता निश्चित है। ऐसे धीर पुरुष के साहस को देखकर असफलता घुटने टेक देती है। इसीलिए तो कहा गया है-‘‘चरैवेति चरैवेति’’ अर्थात् चलते रहो, चलते रहो, निरंतर श्रमशील रहो। किसी महापुरुष ने कितना सुंदर कहा है-अंधकार की निंदा करने की अपेक्षा एक छोटी-सी मोमबत्ती, एक छोटा-सा दिया जलाना कहीं ज्यादा अच्छा होता है। रॉबर्ट जे. कॉलियर कहते हैं, ‘सफलता छोटे-छोटे कई प्रयासों का नतीजा होती है, जिन्हें कई दिनों तक बार-बार दोहराया जाता है।’ अगर आप एक के बाद एक कदम उठाते रहें, जरूरत के हिसाब से बदलते रहें, तो मंजिल तक जरूर पहुंचेंगे।
महापुरुष समझाते हैं कि व्यक्ति सफलता प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ अवश्य करे लेकिन अति महत्वाकांक्षी न बने। अति महत्वाकांक्षा का भूत विनाश का कारण बनता है, असंतोष तथा अशांति की अग्नि में भस्म कर देता है। किसी के हृदय को पीड़ा पहुंचाकर, किसी के अधिकारों को छीनकर प्राप्त की गई सफलता न तो स्थायी होती है और न ही सुखद। ऐसी सफलता का कोई अर्थ नहीं होता। अति महत्वाकांक्षाी व्यक्ति को हिटलर, नादिरशाह, चंगेज़ खां, तैमूरलंग, औरंगजेब, इदी अमीन तो बना सकती है किंतु सुख-चैन से जीने नहीं देती। दिन-रात भय और चिंता के वातावरण का निर्माण करती है और अंततः सर्वनाश का ही सबब बनती है।
किसी भी दशा में निरंतर प्रयास करने के बाद भी यदि वांछित सफलता न मिले तो हताश, उदास एवं निराश नहीं होना है। इस जगत में सदैव मनचाही सफलता किसी को भी नहीं मिली है और न ही कभी मिल सकती है। लेकिन यह भी सत्य है कि किसी का पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं गया है।
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(ललित गर्ग)
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