लौट कर आना नहीं होगा,‘जो कहूँगा सच कहूँगा,और अब तो बात फ़ैल गयी के रूप में रोचक, चित्ताकर्षक और ज़र्रा-ज़र्रा पठनीय संस्मरणों की त्रयी लिखने वाले प्राध्यापक कान्ति कुमार जैन एक बार फिर अपनी उसी धार और उसी तेवर के साथ बैकुंठपुर में बचपन के जरिये उपस्थित हुए हैं। चित्रात्मक वर्णन शैली के मर्मस्पर्शी कलाकार की लेखनी का यह मनोहारी उदाहरण है। क्रांतिकुमार जी की लेखनी आपको उनके देखे हुए को देखने और जिए हुए को जीने के मुहाने तक पहुँचाने में समर्थ मालूम पड़ती है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। दरअसल यह उनकी शैली की अनिवार्य विशेषता है।
फर्क है तो बस इतना कि जहाँ अब तक वह हमें रामेश्वर शुक्ल अंचल, आचार्य रजनीश, शिव मंगल सिंह सुमन, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे नामवरों के बहुविध आयामों से परिचित कराते रहे हैं, इस बार उन्होंने अपने संस्मरणों के केन्द्र में समाज के उस तबके को रखा है, जिसकी समाज में उपस्थिति तो है, लेकिन पूरी खामोशी के साथ। यह वह वर्ग है जहाँ केवल हारी-बिमारी में ही फल खाये जाते हैं, जहाँ केवल त्योहार के दिन ही जुआ खेला जाता हैं, जहाँ शादी-ब्याह में कपडे़ खराब होने की परवाह किये बगैर पीठ पर हल्दी के छापे मारे जाते हैं और जहाँ मेहमान के लिये घर में लाई गई मिठाई का पैकेट मेहमान के रवाना होने से पहले कूडे़दान के हवाले कर दिया जाता है। ये वे लोग हैं, जिनमें न तो किसी बडी़ आकांक्षा की घोडी़ कुलाँचे मार रही है, न किसी बडे़ आक्रोश की चिंगारी खदबदा रही है।
चालीस और पचास के दशक के भारतीय कस्बाई मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को सूक्ष्मता से बयाँ करते इन संस्मरणों में तत्कालीन समय और समाज पूरी सघनता से मौजूद है। इन्हें रचते हुए कान्तिजी ने कभी तालाब के किनारे खडे़ होकर ढेला मारा है तो कभी कमीज उतार कर खुद तालाब में उतरे हैं। इन्हें पढ़ते हुए आम आदमी के जीवन की स्वाभाविक उठापठक को देख कभी पाठक के मुँह से ‘अरे, ये तो अपने जैसे ही हैं’ निकलता है तो कभी किसी का पतन देख यह बात निकलती है-
ऐसे तो न देखो के बहक जाएं कहीं हम,
आखिर तो इक इंसान हैं फ़रिश्ते तो नहीं हम।
कान्ति कुमार के संस्मरणों में जिस प्रकार बचपन की शैतानियाँ हैं, मस्तियाँ हैं, अलसाई दुपहरी में किये जाने वाले प्रयोग और रात के सन्नाटे के रोमांच हैं, साँप को सीता की लट मानकर उनसे छेड़छाड़ की हिम्मत है और चूहों को बिल से खेंच निकालने की निरपेक्षता है, उन्हें वही किशोर हासिल कर सकता है, जो ‘राजा बेटा’ की तरह नहा-धोकर स्कूल पहुँचकर फिर वहाँ से सीधे घर वापस न आए और घर पहुँचकर तुरन्त पट्टेदार पायजामा पहनकर पहले ‘होम वर्क’ और फिर ‘होम के वर्क’ (मसलन बडे़ भाई साहब के कपड़ों की इस्त्री करना या पिताजी के हुक्के में तम्बाकू भरना या माँ के चूल्हे के लिये लकडियों की दो फाँक करना जैसे काम) में न जुट जाये। जीवन के तिलस्मी खजाने को कोई ‘रामपुर का लक्ष्मण’ नहीं खोज सकता। इसके लिये तो एक घुमंतू, मनमौजी, अपने परिवेश के प्रति कुछ ज्यादा ही उत्सुक किशोर का जिगर चाहिये।
‘बैकुंठपुर में बचपन’ पढ़ते वक्त ऐसा कोई भय नहीं सताता। सस्वर रचना पाठ करते समय कहीं भी आवाज मंद करने की, कुछ शब्द या पंक्तियाँ काटने की जेहमत उठाने की कोई जरूरत नहीं। हो भी कैसे ? आखिर आम आदमी के ये संस्मरण आम आदमी की भाषा में आम आदमी के लिये ही तो लिखे गये हैं। इसलिये इन्हें खुलकर पढा़ जा सकता है। सिर्फ पढा़ ही नहीं, गुना भी जा सकता है और आने वाले कल के लिये सहेज कर भी रखा जा सकता है, क्योंकि ये संस्मरण हमें समाज के अमिताभ बच्चन या सचिन तेंदुलकर जैसे ‘सुपर हीरोज’ की स्थूलताओं से नहीं, बल्कि बैंडमास्टर और मुश्किल खाँ जैसे ‘अनसंग हीरोज’ की सूक्ष्मताओं से परिचित कराते हैं।
कांतिकुमार जी का लेखन ह्रदय की गहराई और ध्येय की सच्चाई का दर्पण है। उनके संस्मरण पढ़कर एक जीवन में कई जीवन का वास्तविक रस प्राप्त किया जा सकता है. बैकुंठपुर में बचपन भी उसी श्रृंखला की अभिन्न कड़ी है।
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