अपनी नैसर्गिक और अगाध खूबसूरती के लिए कश्मीर की वादियों का कवियों और गायकों ने भरपूर चित्रण किया है जिन्होंने इसे विभिन्न रस्मों, संस्कृतियों और जीने के तरीके का एक खुशनुमा स्थान बताया है। यहां की जमीन और लोगों की आत्मसात करने वाली प्रवृत्तियों ने जीवन का एक अनूठा दर्शन पैदा किया है जिसमें हर धर्म के बुनियादों को न केवल उचित जगह मिली है बल्कि पर्याप्त महत्व भी मिला है। कश्मीर को न केवल "धरती पर स्वर्ग" के रूप में जाना जाता है बल्कि अलग-अलग मजहबों और मूल्यों का पालन करने के बावजूद दुनिया भर में मानव मूल्यों के एक स्वर्ग के रूप में भी यह अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है। कश्मीर के मूल तत्व की पहचान इसकी समृद्ध संस्कृति और गर्मजोशी से भरे लोगों से होती है। यह अपने शानदार आभूषणों और पोशाकों के लिए भी विख्यात है। घाटी में आभूषण न केवल उनके आतंरिक मूल्य और खूबसूरती के लिए पहने जाते हैं बल्कि उनके धार्मिक कारण भी होते हैं। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण कश्मीरी पंडितों की विवाहिता महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला खूबसूरत सोने का आभूषण देज-होर है।
आभूषण
कश्मीर में आभूषण सोने के होते हैं लेकिन कभी-कभी खूबसूरती बढ़ाने के लिए उनकी बनावट और डिजाइन में दूधिये पत्थर, रक्तमणि, नीलमणि, फिरोजा और सुलेमानी पत्थर भी जड़ दिए जाते हैं। हालांकि इनमें से अधिकांश रत्न क्षेत्र के बाहर से लाए जाते हैं लेकिन पन्ना, नीलमणि, सुलेमानी पत्थर और बिल्लौरी स्वदेशी हैं और जम्मू-कश्मीर राज्य के भीतर ही पाए जाते हैं।
कश्मीरी संगतराश अपने फन में बहुत माहिर होते हैं और उनकी कारीगरी की जटिलता और महीनी के लिए उन्हें प्रशंसित किया जाना चाहिए। कश्मीर की मनमोहक खूबसूरती इसकी सभी कलाओं और शिल्पों में अभिव्यक्त होती है। गहनों के डिजाइन विशिष्ट होते हैं और दुनिया के किसी भी हिस्से में इनकी आसानी से पहचान की जा सकती है। प्रकृति इसके लघु चित्र कला रूप की डिजाइन में दिखती है। बादाम, चिनार के पत्ते और मैना और बुलबुल जैसे पक्षी महत्वपूर्ण हैं।
कश्मीर में सुनार अपने काम को बेहद पसंद करता है और एक खूबसूरत चीज बनाने के लिए देर रात तक काम करता है। दिलचस्प बात यह है कि पंडितों और मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले ज्यादातर गहनों के रूप और आकार में काफी समानता होती है। कश्मीरी महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले कुछ प्रमुख आभूषण इस प्रकार हैं-
जिगनी और टीका ललाट पर पहने जाते हैं और आमतौर पर ये आकार में त्रिकोणीय, अर्द्ध-वक्राकार और वक्राकार होते हैं। ये सोने और चांदी से बने होते हैं और इनकी किनारी पर मोती और सोने की पत्तियां लटकती रहती हैं।
कान के गहनों के नाम अट्टा-हूर, कन-दूर, झुमका, देज-होर और कन-वजी होते हैं जिनमें फिरोजा जड़ा होता है और किनारी पर बॉल और सोने की पत्तियां लटकती रहती हैं। कन-वजी भी कान का एक गहना है जिनकी किनारी पर छोटे मोतियों के साथ विभिन्न रंगों के पत्थर जड़ें होते हैं। झुमका गेंद की आकार का कान में पहने जाने वाला एक गहना है।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, देज-होर विवाहिता कश्मीरी पंडित महिलाओं के लिए एक अपरिहार्य गहना है जो इसे शादी अर्थात 'सुहाग' की एक निशानी के रूप में हमेशा पहने रहती हैं। अट्टा-होर विवाहिता कश्मीरी पंडित महिलाओं के सर के दोनों तरफ कान में लटका रहता है और सर के ऊपर से जाने वाले सोने की चेन के साथ जुड़ा रहता है। कन-दूर कान में पहने जाने वाला एक अन्य गहना है जिसे ज्यादातर लड़कियां पहनती हैं। ये गहने सोने और चांदी के बने होते हैं इनमें लाल और हरे रत्न या मोती जड़े होते हैं।
कश्मीर की पारंपरिक पोशाक
कश्मीर की पारंपरिक पोशाक अपनी कशीदाकारी और पेचदार डिजाइनों के लिए जानी जाती है जो राज्य की संस्कृति और प्राकृतिक दृश्यों की समृद्धि को परिलक्षित करती है। कश्मीर के पोशाकों की समानता अरब, ईरान और तुर्किस्तान में देखी जाती है। ऐसा विश्वास है कि सुलतान सिकंदर के शासनकाल में सैय्यद अली हमदानी ने इसे प्रचलित किया। कश्मीर घाटी के कश्मीरी पंडितों ने भी इसे अपना लिया। इसमें शरीर का निचला हिस्सा फारसी मूल के 'सलवार' नामक चौड़े पैजामे से ढका रहता था जबकि ऊपरी हिस्से में पूरे बांह की कमीज पहनी जाती थी। इसके ऊपर एक छोटा अंगरखा कोट होता था जिसे सदरी कहते थे। बाहरी लबादे को चोगा कहते थे जो नीचे टखनों तक आता था इसकी एक लंबी, ढीली आस्तीन होती थी और एक कमरबंद होता था। सर की पोशाक एक छोटे कपड़े से ढका छोटी चुस्त टोपी से बनी होती थी। इसी से पगड़ी बनती थी। त्यौहार के मौके पर सिल्क पहना जाता था। धनी और समाज के समृद्ध वर्गों के बीच पोशाक का ऐसा ही प्रचलन व्याप्त था।
गरीब वर्गों के लिए पोशाक में मध्य युग के बाद से कोई परिवर्तन नहीं आया है। पुरुष अपने मुंडे हुए सरों पर एक खोपड़ी नुमा टोपी पहनते थे पर पगड़ी नहीं बांधते थे। वे अपने शरीर को फेरन नामक एक लंबे ढीले ऊनी वस्त्र से ढकते थे जो गर्दन से लेकर कमर तक खुला होता था, कमर के पास वे एक पेटी बांधते थे और यह टखनों तक जाता था। जूते पूलहरु नामक घास से बने होते थे। कुछ लोग खड़ांउ नामक लकड़ी के चप्पल पहनते थे। महिलाओं की पोशाके भी पुरुषों जैसे होती थी फर्क इतना ही था कि उनके सिरों पर बांधने का एक फीता होता था और उसके ऊपर एक दुपट्टा होता था जो सिर से कंधों तक फैला होता था। कश्मीरी महिलाओं के सिर की पोशाक को कासबा बोलते थे। कश्मीरी पंडित महिलाएं भी कासबा का उपयोग करती थी लेकिन वे इसे तरंगा बोलती थीं जो स्त्रियों के पहनने की टोपी होती थी और यह पीछे से एड़ी तक फैली होती थी।
आज के जमाने की पोशाके
वर्तमान में कश्मीर में पोशाकों में बहुत परिवर्तन आया है। अन्य कई संस्कृतियों और समाजों की तरह कश्मीर ने भी जीने की आधुनिक पश्चिमी शैली अपना ली है। इस घुसपैठ के बावजूद समाज के सभी वर्गों द्वारा खासकर जाड़ों और राज्य के विषम मौसम में ठंड से मुक्ति पाने के लिए फेरन अवश्य पहना जाता है। एक कश्मीरी आमतौर पर जाड़ों के दौरान एक मौटे ऊनी कपड़े से बने फेरन तथा गर्मियों के दौरान सूती कपड़ों से बने फेरन को पहनकर प्रसन्न और गौरवान्वित महसूस करता है। अब यह पोशाक दूसरे राज्यों में भी लोकप्रिय हो गया है। फेरन को यहां आने वाले यात्रियों के बीच बेशुमार लोकप्रियता मिल रही है जिसे हमारे फिल्म उद्योग की हाल की कई बॉलीवुड फिल्मों में जगह मिली है।
एक कश्मीरी अपनी जमीन की अनूठी विरासत और पहचान से जुड़कर बहुत गर्व का अनुभव करता है। कश्मीर से बाहर देश के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले कश्मीरी पंडितों की बहुसंख्यक आबादी अभी भी अपनी पारंपरिक पोशाक का उपयोग करना नहीं भूली है। उनमें से अधिकांश अभी भी खूबसूरत कश्मीरी आभूषण पहनते हैं। यहां यह अवश्य याद रखा जाना चाहिए कि सांस्कृतिक पहचान और पारंपरिक मूल्य शायद ही कभी मरते हैं। यह बात सभी पर लागू होती है।
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श्री सुनील कौल, पीआईबी जम्मू में मीडिया एवं सूचना अधिकारी हैं।
फोटोग्राफ स्रोत : आर.ई. शॉर्टर द्वारा खिंची गई तथा एच.ए. नेवेल द्वारा 1921 में लिखे एक यात्रा विवरण में एक कश्मीरी पंडित महिला की छवि।