अगर किसी अच्छी खासी चलती हुई चीजों का भट्टा बैठाना हो तो उसे सरकारी लोगों के हाथों में सौंप देना चाहिए। नाम न छापने की शर्त पर प्रसार भारती के अधिकारी जब यह कहते हैं तो पहली बार में यह बात अतिश्योक्ति लग सकती है लेकिन जब प्रसार भारती की हालत पर गौर करें तो इस वाक्य का एक-एक शब्द ठीक लगने लगता है। निजी चैनलों के बीच सुस्त चाल में चलते दूरदर्शन को यूं तो कोई फिक्र नहीं रहती लेकिन जो भी थोड़ी-बहुत ठीक चलते कार्यक्रम या बातें हैं वह प्रसार भारती में अंदरूनी खींचतान की भेंट चढ़ जाता है।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यदि सबसे ज्यादा फिक्र है तो किसानों की। अपनी इसी फिक्र को थोड़ा और आगे बढ़ाते हुए उन्होंने देश के किसानों को जोडऩे के लिए एक मंच तैयार करने का विचार किया। किसान चैनल उन्हीं की पहल का नतीजा था। हालांकि यूपीए सरकार भी ऐसे ही एक चैनल को खोलने की नाकाम कोशिश कर चुकी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किसान चैनल शुरू करने के लिए 100 करोड़ रुपये का बजट भी दिया था। लेकिन तब की सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी और तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के बीच पटरी ही नहीं बैठी और यह योजना धरी रह गई। एनडीए की सरकार बनने के बाद मोदी ने इस चैनल पर काम शुरू करने को कहा और 25 मई 2015 को धूमधाम से दिल्ली के विज्ञान भवन में इसका विधिवत शुभारंभ हो गया। तय किया गया कि यह चैनल किसानों के लिए काम कर अपनी एक अलग पहचान बनाए।
इस काम के लिए एक टीम तैयार की गई और एडवाइजर के तौर पर नरेश सिरोही को यह जिम्मेदारी सौंप दी गई। सिरोही की ग्रामीण पृष्ठभूमि, खेती की समझ और संघ से नाता होने के कारण चैनल का प्रमुख बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साल भर के भीतर ही इसकी टीआरपी बढऩी शुरू हो गई। सिरोही ने पूरे भारत भर में 615 मॉनीटर नियुक्त किए जो अवैतनिक थे। इनका काम पूरे देश में फैले किसानों को एक मंच पर लाने में सहयोग करना था। सभी अपने इलाके के सम्मान प्राप्त किसान, अनूठा काम करने वाले या किसी खास किस्म की फसल से मुनाफा लेने वाले किसानों को चैनल तक लाना था। इसका मकसद यह था कि दूसरे किसान इसके बारे में जाने और इन किसानों से प्रेरणा ले सकें। जब इस चैनल की बखत बढ़ती गई तो यह अंदरूनी राजनीति का शिकार होने लगा और जैसा कि होता है इस पर भी सियासत का साया पड़ गया। किसी भी सरकारी तंत्र में अफसरशाही और नेता मिल कर अच्छी चीजें नष्ट करने में कसर बाकी नहीं रखते। दूरदर्शन पहले भी इस अफसरशाही और नेताओं के घालमेल में फंस चुका है। अंदर के कुछ लोग जो जोड़-तोड़ में माहिर थे वे और संघ-भाजपा के वर्चस्व के बीच किसान चैनल का काम खराब होने लगा। अब नए सूचना एवं प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू के लिए भी यह चुनौती होगी कि वह नेताओं-अफसरों के बीच कैसे संतुलन साधेंगे।
दरअसल किसान चैनल एक साझा उपक्रम था जिसमें बहुत से लोग मिल कर काम कर रहे थे। पहले जब चैनल लॉन्च किया जा रहा था तब मुंबई से कृषि पृष्ठभूमि वाले शिवाजी फूलसुंदर को बुलाया गया था। वह आए चैनल लॉन्च किया और कुछ समय बाद चले गए। उनके जाने के बाद इस चैनल की कमान नरेश सिरोही के पास ही थी। नरेश सिरोही ने जब इसमें अपना काम करना शुरू किया तो अंदरूनी टकराहट बढऩा शुरू हो गई। प्रसार भारती के चैयरमैन ए. सूर्यप्रकाश इस चैनल की बेहतरी के लिए निजी चैनल से किसी को लाना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी के इस ड्रीम चैनल पर सियासत की अतिरिक्त खाद से चैनल की फसल खराब होने की कगार पर है। बात इतनी बढ़ी कि चैनल एडवाइजर नरेश सिरोही को बिना कारण बताए तत्काल प्रभाव से पदमुक्त कर दिया गया। नरेश सिरोही से आउटलुक ने बात की तो उन्होंने कहा, ‘हां मुझे पदमुक्त कर दिया गया है। मुझे इसका कोई कारण नहीं बताया गया है। बस एक पत्र मुझे मिला है, जिस पर लिखा है कि मुझे तत्काल प्रभाव से हटाया जा रहा है।
उनका अगला कदम क्या होगा यह पूछने पर सिरोही कहते हैं, ‘मेरा क्या है। जो करना है सरकार को करना है। सरकार देखे इस मामले में क्या हो सकता है। मुझे कहा गया काम करना है मैंने काम कर के दिखा दिया मुझे हटा दिया गया है मैं जा रहा हूं। इस निष्कासन के पीछे एक बड़ी वजह किसान चैनल के एडवायजर नरेश सिरोही द्वारा अपने वरिष्ठ का कच्चा चिट्ठा तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेटली को भेजा जाना माना जा रहा है। सिरोही ने तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री जेटली को एक लंबा पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने प्रसार भारती में हो रही अनियमितताओं को उजागर किया था। उन्होंने विस्तार से लिखा था कि कैसे किसान चैनल को निजी चैनल के हाथों में देने की साजिश रची जा रही है। उन्हें अरुण जेटली को प्रसार भारती (और प्रसार भारती) से जुड़े लोगों की (गलत) मंशा बताना भारी पड़ गया। नरेश सिरोही ने अरुण जेटली को लिखा था कि किसान चैनल को निजी चैनल के लोगों के हाथ में देने की तैयारी की जा रही है। जल्द ही व्यावसायिक चैनल से किसी व्यक्ति की नियुक्ति भी की जा सकती है। लेकिन इस पत्र मिलने के कुछ ही दिन बीते थे कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय जेटली की जगह वेंकैया नायडू के पास आ गया।
यही नहीं सिरोही ने जिन 615 मॉनीटरों की नियुक्ति की थी उन्हें भी तत्काल प्रभाव से हटा दिया गया है। सिरोही इस बात से आहत हैं। वह कहते हैं, ‘वे जी-जान से चैनल के काम में लगे थे। वे लोग कोशिश कर रहे थे कि चैनल हर जिले में दिखे, केबल ऑपरेटरों के साथ समन्वय हो और वे लोग चैनल का फीडबैक दे रहे थे। सभी पार्टी से जुड़े प्रतिष्ठित लोग थे और अवैतनिक थे। सिरोही दावे से कहते हैं कि प्रसार भारती की ओर से किसी को कभी एक रुपये का भी भुगतान नहीं किया गया है। कोई भी यह साबित नहीं कर पाएगा कि कभी किसी मॉनीटर को किसान चैनल के नाम पर कोई वित्तीय फायदा पहुंचाया गया है। सिरोही कहते हैं, ‘मैंने 2 साल तक 24 घंटे इस चैनल के लिए काम किया। इस चैनल की दर्शक संख्या 2 करोड़ है। अब यह तो सरकार देखे कि इतनी बड़ी संख्या के लिए उन्हें क्या करना है।
ऐसा पहली बार नहीं है जब प्रसार भारती में सरकारी रवैए की वजह से सब घालमेल हो गया है। पहले भी कांग्रेस राज में दो तत्कालीन मंत्रियों के बीच प्रसार भारती फंस चुका है। इसके सुधार के लिए कई योजनाएं बनाई जाती हैं लेकिन होता वही है, ढाक के तीन पात। क्षेत्रीय केंद्रों का हाल और बुरा है। पूरे देश में कई केंद्रों में पद रिक्त हैं। श्रीनगर में तो स्टेशन इंजीनियर एडिटोरियल से संबंधित निर्णय ले रहे हैं। श्रीनगर जैसे संवेदनशील राज्य में प्रसार भारती कितनी संजीदगी से काम कर रहा है यह इससे पता चलता है। अभी तक दूरदर्शन में डायरेक्टर जनरल का पद खाली है। फिलहाल भारतीय ब्रॉडकास्टिंग (प्रोग्राम) की अफसर अर्पणा वैश के पास इस पद का अस्थाई प्रभार है। वैसे इस पद को अब तक भारतीय प्रशासनिक अफसर संभालते आए हैं। दूरदर्शन में कार्यक्रमों में गुणवत्ता की कमी, ठीक ढंग से कार्यक्रमों का प्रचार न होने के कारण दर्शकों की संख्या में लगातार गिरावट हो रही है। इस वजह से दूरदर्शन का मुनाफा भी कम हो रहा है। राज्य सभा में 26 अप्रैल 2016 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के राज्यमंत्री ने लिखित उत्तर में माना था कि सेल्फ फाइनेंस स्कीम या अन्य साधनों से आने वाले कार्यक्रमों की वजह से दूरदर्शन की दर्शक संख्या घटी है। इस सब से उबरने के लिए प्रसार भारती ने विभिन्न क्षेत्रों से कई लोगों को रखा लेकिन उन्हें भी काम करने की खुली छूट नहीं दी। ज्यादातर लोगों की सलाह को तवज्जो नहीं दी जाती और नीतिगत मुद्दों पर उनकी सलाह नहीं मानी जाती।
(साभार: आउटलुक से )