अपने रचनाकर्म के बारे में
हिंदी और तेलुगु के बीच
सेतु का काम करने वाले
लेखक बालशौरि रेड्डी।
हमारे स्तम्भकार
इस आलेख को
लेखकों के लिए
प्रकाश स्तम्भ मानते हैं।
श्री रेड्डी लिखते है – मैं अपने गत बीस वर्ष की साहित्यिक सर्जनात्मक प्रक्रिया पर विचार करता हूँ, तो मेरे समक्ष कई मर्मस्पर्शी प्रसंगों का स्मरण ताज़ा हो उठता है। वे स्मरण मुझे पुलकित कर देते हैं।मैंने 1948 में लिखना शुरू किया। मेरी पहली रचना हिन्दी में प्रकाशित हुई।प्रारम्भ में मेरी रुचि निबन्ध लिखने की रही। किसी विषय-विशेष से मैं प्रभावित होता अथवा तत्सम्बन्धी सम्यक्-ज्ञान प्राप्त करता, तभी मैं उस विषय के सम्बन्ध में अपने मन्तव्य व्यक्त करने के लिए लेखनी उठाता।
मुझे लगा-आज नहीं तो कल, सफलता का द्वार अपने आप खुल जाएगा। गतिशील हूँ, लक्ष्य दूर नहीं है, किन्तु जब मैं मूर्धन्य कलाकारों की कृतियों का अध्ययन करता और अपनी अनुभूतियों के साथ मिलान करके देखता तो मुझे प्रतीत होता कि मेरी भावात्मक पूँजी अत्यल्प है और मैं उन महाकवियों के समक्ष निर्धन हूँ।
क्रमशः मुझे विदित हुआ कि मैं जिस रूप में अपने को अभिव्यक्त करना चाहता हूँ, कर नहीं पाता हूँ।मैं अपने आचार्य पण्डित गंगाधर जी मिश्र की सेवा में पहुँचा और उनसे अपनी आत्मग्लानि की बात बतायी। पण्डित जी ने बड़ी सहानुभूति, सहृदयता और वात्सल्य-भाव से मुझे समझाया-‘रेड्डी जी, मैं सच्ची बात कहूँगा, तुम निराश न होना। क्योंकि मैं तुम्हारा हित चाहता हूँ और तुम्हारी प्रतिभा से भी परिचित हूँ, इसीलिए मैं तुमको ग़लत राह पर छोड़ना नहीं चाहता। सत्य तो यह है कि जितना अच्छा गद्य लिख सकते हो, उतनी अच्छी कविता नहीं। मेरा अनुभव यह बताता है कि गद्य के प्रति तुम्हारी स्वाभाविक जो अभिरुचि है, जो झुकाव है, जो लगन है, वह कविता के प्रति चाहते हुए भी नहीं हो सकती। तुम जो अभिरुचि दिखाते हो या दिखाने की चेष्टा करते हो अथवा दिखाना चाहते हो वह कृत्रिम है। अतः तुम्हारे हितैषी के नाते मेरी यह सलाह है, तुम समय और सन्दर्भ के अनुरूप गद्य की विभिन्न विधाओं पर कलम चलाओ, अवश्य तुम्हें सफलता मिलेगी।’
पण्डित जी का यह सुझाव मेरी भावी साहित्यिक सर्जनात्मक यात्रा का पाथेय बना और सम्बल बना।मेरी पहली रचना ‘ग्राम संसार’ में छपी। जिस दिन रचना छपी उस दिन मेरे अन्तर में ऐसा ज्वार उठा जिसने मुझे इतना प्रभावित किया कि मेरी रचना का कार्य निरन्तर गतिमान रहा। मैंने अपनी रचना को चार-पाँच बार पढ़ा, जो कोई सामने आया उस को दिखाया, सलाह एवं सुझाव माँगा।
युगाराध्य सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने मुझे अच्छे सुझाव दिये। मैं वाराणसी में गाय घट पर जहाँ रहता था, निराला जी भी आचार्य गंगाधर मिश्र जी के साथ वहीं रहते थे। निराला जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का भी मुझ पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि मैं उनसे प्रेरणा ग्रहण कर लिखता गया।वाराणसी में रहते मैंने लिखा अत्यल्प, परन्तु अध्ययन अधिक किया। विभिन्न प्रकार की शैलियों से परिचित होता गया और अपनी प्रिय विधाओं के सूक्ष्म निरीक्षण में प्रवृत होता गया। उस प्रकार परोक्ष रूप में मेरे भीतर का लेखक बन रहा था।
मेरे लेखन कार्य में अनुवाद की भी अच्छी परम्परा रही है। शासन द्वारा सम्मानित होने पर लेखक का दायित्व बढ़ गया। बड़ी जिम्मेदारी के साथ लिखने की आवश्यकता हुई।पहली कृति के द्वारा मौलिक लेखन और अनुवाद-दोनों प्रक्रियाओं का सूत्रपात हुआ।इस समय मेरे लेखन की दिशा कथा-साहित्य की है।
मैं जब कभी कुछ लिखता हूँ, अथवा लिखाता हूँ, उस समय मैं इस बात का अवश्य ध्यान रखता हूँ कि मैं जिस भाव का चित्रण करूँ, वह केवल एक हृदय का न हो, असंख्य हृदयों का उसमें प्रतिबिम्ब हो। वह स्वाभाविक हो तथा पाठकों के हृदयों को उद्वेलित कर सके।मैं अपने अध्ययन-कक्ष में लिखने या लिखाने बैठता हूँ तो बच्चों के कोलाहल, रेडियो की ध्वनि से भी मैं विचलित नहीं होता हूँ।
लिखने या बोलने के पूर्व मैं योजना-सूत्र बना लेता हूँ। संक्षेप में, लेखन के समय मेरा ध्यान इस दिशा में अवश्य रहता है कि उपन्यास का कलेवर इतने पृष्ठों से ज्यादा न हो। अनावश्यक कलेवर न बढ़े। संक्षेप में सारी बातें आ जाएँ। मेरी धारणा है एक लेखक के लिए साहित्यिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, अपितु जीवन से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों एवं विषयों का प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है।