मीडिया की दुनिया से
मोदीजी भ्रष्टाचार मिटाने के लिए सरकारी बाबुओं का धन जप्त करो
टीसीए श्रीनिवास राघवन
सरकार के 500 और 1,000 रुपये के नोटों को बंद करने के फैसले से मची अफरातफरी ने पिछले दो हफ्ते से कालेधन के मुद्दे पर व्यापक चर्चा को जन्म दिया है। लेकिन इस बहस में बड़ी हिस्सेदारी आंख पर पट्टी बांधे हुए उन लोगों की है जो हाथी के अलग-अलग अंगों को छूकर उसे परिभाषित करने में लगे रहते हैं और आखिर तक उनमें उस जानवर के स्वरूप को लेकर सहमति नहीं बन पाती है।
पूरी चर्चा के दौरान लोग इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में केवल दो प्रकार का कालाधन ही होता है। काले धन का पहला रूप ईमानदार लोगों की छिपी हुई आय के तौर पर इकठ्ठा होता है जबकि दूसरा रूप अपराधियों की जानबूझकर छिपाई हुई आय की शक्ल में होता है।
लेकिन भारत में तीसरे तरह का काला धन भी मौजूद है और वह अलग प्रकृति का ही है। इसमें पहले दोनों तरह के लोग और दोनों तरह की आय का बड़ा हिस्सा शामिल है। यह इस सार्वभौम देश की सेवा के लिए नियुक्त लोगों की आय के रूप में है। ये लोग दूसरों से उस काम के लिए उगाही करते हैं जिन्हें करने के लिए उनकी नियुक्ति की गई होती है। भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां पर सरकारी कर्मचारी एक-दूसरे का भी भरपूर शोषण करते हैं। इस गोरखधंधे में कोई भी बच नहीं पाता है।
जब ईमानदार लोग अपनी आय का कुछ हिस्सा छिपाकर रखते हैं तो उससे किसी अन्य को कोई परेशानी नहीं होती है। यहां तक कि अपराधी भी अपने गलत कार्यों से धन अर्जित करते हैं तो उसमें केवल पीडि़त व्यक्ति ही परेशान होता है। लेकिन भारत में इस तीसरे तरह के काले धन के लिए सरकारी कर्मचारी हर किसी को अपनी चपेट में लेते हैं। वे एक तरह से कैंसर की तरह हैं। वे किसी को भी नहीं बख्शते हैं, यहां तक कि अंतिम संस्कार के लिए अपने प्रियजनों के शव लेकर जाने वाले लोगों से भी ये कर्मचारी सूखी लकड़ी के नाम पर रिश्वत की मांग करते हैं। उनके ऐसे ही लोगों के कारनामों के चलते शायद जनता का एक बड़ा हिस्सा बड़े नोटों को बंद करने के कदम का समर्थन कर रहा है।
तीन रंग
नोटबंदी के फैसले की जो आलोचना हो रही है उसकी एक बड़ी वजह यह है कि लोग काले धन के इन तीनों समूहों के बारे में एक साथ सोचने लगे हैं। फैसले के चलते आम जनता को हो रही परेशानी को समझा जा सकता है लेकिन काले धन के प्रवाह की समस्या के समाधान में इससे कोई ज्यादा मदद नहीं मिलने वाली है।
काले धन के भंडारण पर हमला बोलने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काले धन के प्रवाह पर सीधी चोट करनी होगी। लेकिन इसके पहले प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि दोनों तरह के कामों के लिए उन्हें अलग रवैया अपनाने की जरूरत पड़ेगी। हालांकि ऐसा करना आसान नहीं होगा क्योंकि इसके लिए उन्हें बहुत ज्यादा ताकत का इस्तेमाल करना पड़ेगा।
इस दिशा में कदम उठाते ही तमाम नेता उठ खड़े होंगे और लोकतंत्र को खतरे में बताते हुए विरोध तेज कर देंगे। आखिर सच तो यह है कि काले धन का सबसे ज्यादा फायदा तो नेताओं को ही होता है।
कानून का मौजूदा स्वरूप तो ऐसा है कि ईमानदारी से कमाने वाले लोग ही उसकी चपेट में आ सकते हैं। अगर तमाम तरह के करों से बचने के लिए ये लोग अपनी आय का कुछ हिस्सा छिपाकर रखते हैं तो उन पर सरकारी विभाग पुरजोर ताकत का इस्तेमाल करते हैं। जहां तक अपराधियों के कालेधन का सवाल है तो सरकार उनके प्रति उतना बलपूर्वक कदम नहीं उठाती है। इनमें से बहुतों को ऊपर से संरक्षण मिला होता है और कुछ तो चुनाव लड़कर सांसद-विधायक बन जाते हैं। अनैतिक तरीके से करोड़ों कमाने वाले कारोबारियों पर नकेल कसी जाती है तो वे विदेश भाग जाते हैं।
ईमानदार छवि वाले प्रधानमंत्री मोदी अगर चाहते हैं कि करारोपण से बचने के चक्कर में पैदा होने वाले कालेधन पर रोक लगाई जाए तो उन्हें सरकार की जेब भरने वाले तरीकों पर निश्चित तौर पर गौर करना होगा। आयकर, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), स्टांप शुल्क और निगम कर जैसे शुल्कों को कम करना होगा जिससे भ्रष्टाचार में भी काफी गिरावट आएगी। जीएसटी दर के करीब 18 फीसदी होने पर आयकर की दरों को 15 और 25 फीसदी के स्तर पर लाया जाना चाहिए। आयकर की दरों में कटौती के फैसले से अधिक संख्या में लोग इसके दायरे में आएंगे, जैसा कि 1997 में तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने किया था।
खुद ही करनी होगी पहल
भारत में सरकार काले धन को लेकर काफी लचीला रवैया अपनाती रही है। संप्रभु देश के विभिन्न अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में इसे देखा जा सकता है। किसी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के आदेश सरकार विरले ही देती है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को हटाने की जटिल प्रणाली से भी उन्हें काफी हद तक संरक्षण मिल जाता है। कुछ उच्च पदों के लिए तो महाभियोग का प्रावधान किया गया है।
यही वजह है कि अगर प्रधानमंत्री काले धन के खिलाफ मुहिम में पूरी तरह सफल होना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले इस तबके पर ही निशाना साधना होगा। इन लोगों को आम तौर पर ईमानदारी से आजीविका कमाने वाले लोगों के शोषण की अब और इजाजत नहीं दी जा सकती है। इनकी नाइंसाफी की इंतेहा हो चुकी है। आखिर हम काफी हद तक बेईमान अधिकारियों से कैसे यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वे दूसरों को कानून के हिसाब से चलने के लिए मजबूर कर सकेंगे।
मोदी कई बार अपने भाषणों में यह जिक्र कर चुके हैं कि उन्हें सरकार के भीतर मौजूद भ्रष्टाचार का अहसास है। लेकिन इस दिशा में अब तक उन्होंने कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। ऐसा लगता है कि वह आम करदाताओं के पैसे से वेतन लेने वाले कर्मचारियों पर सख्त कदम उठाने से भयभीत हैं। अगर साफ-साफ कहें तो सरकार के मौन समर्थन से ही ये कर्मचारी आम लोगों का खून चूसते हैं और काले धन का भंडार खड़ा कर लेते हैं। मोदी को इस समस्या का ही हल निकालना है। अगर ऐसा नहीं होता है तो विमुद्रीकरण का फैसला उनके लिए बेहद महंगी चाल साबित होगी जिसमें उन्हें शिकस्त भी खानी पड़ेगी।
इसका एक और फायदा यह होगा कि चिदंबरम की बोलती बंद हो जाएगी। आखिर चिदंबरम ने ही तो टैक्स अधिकारियों को वसूले गए कर में से एक हिस्सा देने की पेशकश कर वसूली को एक तरह से कानूनी बना दिया था। उस कदम से भारी भरकम टैक्स का नोटिस भेजने और बाद में समायोजित कर देने की प्रवृत्ति की शुरुआत हुई थी।