कैलेंडर और डायरी पर महात्मा गांधी की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर से उत्पन्न विवाद बेवजह है। यह इसलिए, क्योंकि भारत में इस बात की कल्पना ही नहीं की जा सकती है कि किसी कागज के टुकड़े पर चित्र प्रकाशित नहीं होने से गांधीजी के व्यक्तित्व पर पर्दा पड़ जाएगा। यह तर्क तो हास्यास्पद ही है कि गांधीजी के चित्र की जगह प्रधानमंत्री का चित्र इसलिए प्रकाशित किया गया है, ताकि गांधी की जगह मोदी ले सकें। गांधीजी की जगह वास्तव में कोई नहीं ले सकता। आश्चर्य की बात यह है कि गांधीजी के चित्र को लेकर सबसे अधिक चिंता उन लोगों को हो रही है, जिन्होंने 70 साल में गांधीजी के विचार को पूरी तरह से दरकिनार करके रखा हुआ था। सिर्फ राजनीति की दुकान चलाने के लिए ही यह लोग गांधी नाम की माला जपते रहे हैं। वास्तव में आज जरूरत इस बात की है कि गांधीजी के विचार पर बात की जाए। इस बहस में इस पहलू को भी शामिल किया जाए कि आखिर इस देश में गांधीजी के विचार को दरकिनार करने में किसकी भूमिका रही है? आखिर अपने ही देश में गांधीजी कैलेंडर, डायरी, नोट और दीवार पर टंगे चित्रों तक ही सीमित क्यों रह गए? उनके विचार को व्यवहार में लाने की सबसे पहले जिम्मेदारी किसके हिस्से में आई थी और उन्होंने क्या किया?
ताजा बहस के संदर्भ में एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी सामने आया है कि स्वयं को गांधी की राजनीति का उत्तराधिकारी बताने वाली कांग्रेस के ही शासनकाल में खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के कैलेंडर पर चार बार अर्थात् 2005, 2011, 2012 और 2013 महात्मा गांधी की तस्वीर प्रकाशित नहीं की गई थी। लेकिन, तब इस संबंध में किस ने न तो सवाल पूछा और न ही वितंडावाद खड़ा किया। कैलेंडर पर महात्मा गांधी की तस्वीर नहीं है, यह सिर्फ इसी सरकार के समय में ही क्यों याद आ रहा है। इस बहस में सवाल यह भी उठता है कि कैलेंडर पर गांधीजी की तस्वीर नहीं छापकर प्रधानमंत्री मोदी का चित्र छापने का निर्णय क्या केंद्र सरकार का है? यदि इस निर्णय में सरकार की कोई भूमिका नहीं है, तब इस मामले के लिए केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री किस प्रकार जवाबदेह हो सकते हैं? इस संबंध में जिसकी जवाबदेही है, उस खादी ग्रामोद्योग बोर्ड ने स्पष्ट कर दिया है कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि खादी ग्रामोद्योग में सिर्फ गांधीजी की ही फोटो होनी चाहिए। इसलिए किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं हुआ है।
बोर्ड ने यह भी कहा है कि कोई भी महात्मा गांधी का स्थान नहीं ले सकता है। चूँकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खादी को प्रचार-प्रसार किया है। वर्ष 2004 से 2014 तक खादी की बिक्री 2 से 7 फीसदी ही होती थी। लेकिन मोदी सरकार के बाद खादी की बिक्री में 5 गुना वृद्धि हुई है। अब खादी की बिक्री 35 फीसदी से ज्यादा है। यह बात सही है कि प्रधानमंत्री मोदी खादी के ‘ब्रांड एंबेसडर’ की तरह हमारे सामने प्रस्तुत हैं। प्रधानमंत्री ने खादी को ‘फैशन’ में ला दिया है। आज मोदी कुर्ता और मोदी जैकेट के कारण खादी की बिक्री में जबरदस्त उछाल आया है। सप्ताह में एक दिन खादी पहनने के उनके आह्वान को देश के अनेक लोगों ने स्वीकार किया है। यह संभव है कि बोर्ड ने खादी के प्रचार-प्रसार के लिए ‘ब्रांड मोदी’ का उपयोग किया हो।
यह बात भी सही है कि इस अतार्किक बहस का अंत खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के स्पष्टीकरण के बाद ही हो जाना चाहिए था, लेकिन भाजपा के कुछ नेताओं के बेमतलब बयानों ने आग में घी का काम किया। आखिर बोर्ड और भाजपा के स्पष्टीकरण के बाद हरियाणा के भाजपा नेता अनिल विज को बयानबाजी करने की क्या जरूरत थी? निश्चित ही उनका बयान आपत्तिजनक है। यही कारण है भाजपा ने भी उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया और अंत में स्वयं विज को भी अपना बयान वापस लेना पड़ा।
बहरहाल, हंगामा खड़ा कर रहे राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों से एक प्रश्न यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने खादी और गांधी के विचार के लिए अब तक क्या किया है? जो लोग गांधीजी के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा पर संदेह कर रहे हैं, उन्हें ध्यान करना चाहिए कि नरेन्द्र मोदी ने अपने सबसे महत्वाकांक्षी और सबसे अधिक प्रचारित ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को महात्मा गांधी को ही समर्पित किया है। इस अभियान के प्रचार-प्रसार के लिए गांधीजी के चित्र और उसके प्रतीकों का ही उपयोग किया जाता है। इसलिए इस बात की आशंका निराधार है कि खादी ग्रामोद्योग के कैलेंडर पर नरेन्द्र मोदी का चित्र छापकर उन्हें गांधीजी का स्थान देने का प्रयास किया गया है। वास्तव में महात्मा गांधी की तस्वीर की अपेक्षा उनके विचारदर्शन पर बहस की जानी चाहिए। इस बहस में यह भी देखने की कोशिश करनी चाहिए कि गांधी की विचारधारा के अनुयायी बताने वाले राजनीतिक दल और गांधी विचार के विरोधी ठहराये जाने वाले दल में से वास्तव में कौन गांधी विचार के अधिक समीप है? किस सरकार की नीतियों में गांधी विचार के दर्शन होते हैं और कहाँ सिर्फ नारों में गांधीजी हैं? इन सवालों के जवाब तलाशने जब तार्किक और तथ्यात्मक बहस आयोजित होंगी, तब स्पष्ट हो सकेगा कि आखिर महात्मा गांधी हितैषी कौन है?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.)
भवदीय
लोकेन्द्र सिंह
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