सोमनाहल्ली मल्लैया कृष्णा को आप नहीं जानते। लेकिन का इस नाम को थोड़ा आसान करके एसएम कृष्णा लिखा जाए, तो यह वही आदमी हैं, जो सरदार मनमोहन सिंह की सरकार में भारत का विदेश मंत्री हुआ करता था। और जब विदेश जाता था, तो भूल जाता था कि वह किस देश में किस काम से वहां पहुंचा है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ जाकर भारत के बजाय पुर्तगाल का भाषण पढ़कर देश की भद्द पिटवाकर वापस भारत आ जाता था। और, क्रिकेट के खेल में हारकर आनेवाली टीम को काले झंडे दिखानेवाले देशप्रेम जतानेवालों में से कोई उनका विरोध भी नहीं करता था। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने मंत्रिमंडल में एसएम कृष्णा को मंत्री बनाए रखने को मजबूर थे।
अगर आप राजनीति की थोड़ी बहुत भी समझ रखते हैं, और अपनी स्मृति पर जोर डालेंगे, तो आपको जरूर याद आएगा कि एसएम कृष्णा सुबह सुबह होनेवाले कार्यक्रमों भी दूसरों के भाषणों के बीच सो जाया करते थे। हालांकि नारायण दत्त तिवारी की तरह बुढ़ापे में भी रात भर कुछ विशेष काम करने का कृष्णा का कोई शौक अब तक तो सामने नहीं आया। लेकिन तिवारी की तर्ज पर कृष्णा भी बाकायदा मुख्यमंत्री जरूर रहे। केंद्र में मंत्री भी रहे और राज्यपाल भी। तिवारी की तरह ही उनका भी बुढ़ापे में ही कांग्रेस में दम घुटने लगा। इसलिए जिस पार्टी ने उनको सब कुछ दिया, उसी से उनका मोहभंग हो गया है। पता नहीं राजनीति की यह क्या बदनसीबी है कि जो नेता जिस पार्टी में होता है, उसी से क्यों उसका जी उचट जाता है। मोहभंग की इस माया से अभिभूत होने के ऐलान के साथ ही कृष्णा ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिख दी है और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी खुद की मुक्ति की मांग कर दी है।
कांग्रेस और कांग्रेसी भले ही पार्टी छोड़ने के कृष्णा के फैसले को गलत बता रहे हों, लेकिन एसएम कृष्णा का गलतियां करने का इतिहास भी अजब गजब रहा है। फरवरी 2011 में विदेश मंत्री के नाते वे जब संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करने गए थे, तो वहां पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण पढ़ गए थे। बाद में, जब उन्हें इस गलती का अहसास कराया गया, तो मियां की टांग ऊंची रखने की तर्ज पर गजब का पलटवार करते हुए कृष्णा बोले – ‘क्या फर्क पड़ता है, संयुक्त राष्ट्र संघ में सभी विदेश मंत्रियों के भाषण करीब करीब एक जैसे ही होते हैं।’ इसके भी बहुत आगे, खबरों की मानें, तो न्यूयॉर्क में भारतीय विदेश मंत्री के नाते एसएम कृष्णा की पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी से मुलाकात होनी थी। इस मुलाकात में बहुत रटने के बाद भी कृष्णा एक शेर गलत पढ़ गए थे, जिससे हिना नाराज होकर चली गई थी। भारत पाकिस्तान के रिश्तों पर एसएम कृष्णा ने हिना से कहा – हालात कैसे भी क्यों न हो, बातचीत चलती रहनी चाहिए। जैसे किसी शायर ने कहा है कि भले ही दिल मिले न मिले, गले मिलते रहिए। कृष्णा का इतना कहना था कि गजब की हसीन हिना रब्बानी वहां से मुंह बिचकाते हुए उठकर चल दी थी। बाद में तो खैर, कृष्णा को जब मामला समझ में आया, तो उन्होंने हिना से व्यक्तिगत रूप से बातचीत भी और अपने दादा की ऊम्र के कृष्णा को हिना ने माफ भी कर दिया।
हालांकि, एसएम कृष्णा सार्वजनिक कार्यक्रमों में सो जाने के लिए हमारे पूर्व प्रधानमंत्री एचड़ी देवेगौड़ा जितने कुख्यात तो नहीं है, लेकिन देवेगौड़ा भी कर्नाटक के हैं, और कृष्णा से भी पहले वहां के मुख्यमंत्री रहे हैं, सो दूसरों के भाषण के बीच में सो जाने की परंपरा को वे भी निभाते रहे हैं। इसी तरह एक बार संसद में कृष्णा से अजमेर की जेल में बंद एक पाकिस्तानी कैदी के बारे में सवाल पूछा गया तो जवाब उन्होंने पाकिस्तान में बंद भारतीय कैदी की जानकारी दे दी थी। सदन में हंगामा मचा तो अपने मंत्री की करतूत और भुलक्कड़पन से परेशान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद मोर्चा संभाला और सरकार को बेइज्जत होने से बचाया लिया। हालांकि बाद में राज्यसभा के सभापति ने इसे रिकार्ड में इस जवाब को न दर्ज करने का आदेश दे दिया गया था। लेकिन जो बातें लोगों के दिलों में दर्ज हो जाती है, वे कभी हटती नहीं। ऊम्र के आखरी पड़ाव पर बैठे कृष्णा का कांग्रेस से मोहभंग इसीलिए भी राजनीति के लिए कोई खास मायने नहीं रखता। उनके जाने से कोई नुकसान नहीं होगा। क्योंकि वोट दिलवाने की और वोट कटवाने की, दोनों ही क्षमताएं उनकी जवानी के साथ ही खत्म हो चुकी हैं।
मैसूर के पास बहुत खूबसूरत कस्बे मंड्या में 1 मई 1932 को जन्मे एसएम कृष्णा फिलहाल 85 साल के हैं और सन 1968 में पहली बार कर्नाटक की मांडया सीट से लोकसभा पहुंचे थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके बाद प्रधानमंत्री बने उनके बेटे राजीव गांधी दोनों की सरकारों में वे भारी भरकम विभागों के मंत्री रहे। सन 1999 में वे कर्नाटक में धुंआधार प्रचार करके कांग्रेस को जीत दिलाने के बाद वहां मुख्यमंत्री बने और लगातार पांच साल तक इस पद पर बने रहे। उसके बाद वे सन 2004 से 2008 तक महाराष्ट्र के राज्यपाल भी रहे और वहां से निकलकर 2009 में लोकसभा का चुनाव जीतकर मनमोहन सिंह की सरकार में भारत के विदेश मंत्री बने। कहीं का भाषण कहीं पढ़ने और विदेश में भी सार्वजनिक कार्यक्रमों में खर्राटे लेकर भारत का मजाक बनाने के किस्से उनके उसी काल के हैं। लेकिन कुछ समय पहले सक्रिय राजनीति में फिर एक और पारी खेलने की कोशिश में उनके मन में मुख्यमंत्री बनने के जज्बे ने जोर मारा। मगर, कांग्रेस आलाकमान को 85 साल के इस नेता की यह मंशा वाजिब नहीं लगी, और कृष्णा की कोशिश को खारिज कर दिया गया, तो कर्नाटक में बैठे कृष्णा और आलाकमान के बीच दूरी बहुत बढ़ गई। एसएम कृष्णा करीब साठ साल से कांग्रेस से जुड़े थे, लेकिन ऊम्र में भी पार्टी से उनके मोहभंग होने को पद, प्रतिष्ठा और कुर्सी के प्रेम की पाराकाष्ठा नहीं तो और क्या रहा जाए ?
वैसे, यह ब्रह्म सत्य है कि राजनीति में जब तक आप सक्रिय रहते हैं, तब तक सत्ता, सिंहासन और सम्मान चाहे कितना भी प्राप्त हो जाए, वह कम ही लगते है और सत्ता के इस अनंत संसार में इनकी भूख लगातार बढ़ती भी जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दर्शन को शायद बहुत गहरे से समझ लिया है, शायद इसीलिए अपनी पार्टी के 75 साल की ऊम्र से ऊपर के नेताओं को किनारे बैठने का संदेश वे बहुत पहले भी दे चुके हैं। लालकृष्ण आडवाणी आराम कर रहे हैं। मुरली मनोहर जोशी बाहर बैठे हैं। नजमा हेपतुल्ला ने भी इस्तीफा दे दिया। और कलराज मिश्र भी यूपी चुनाव के बाद ठिकाने लग जाएंगे। ये सारी विरोधी पार्टी बीजेपी की राजनीतिक उत्सव मूर्तियां हैं। कांग्रेस के नेताओं को शायद इसलिए यह समझ में नहीं आ रहा है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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