नगालैंड की हिंसा विचलित करने वाली है। देश के अन्य भागों में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है कि स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का ऐसा तीखा विरोध हो सकता है। इस समय देश के केन्द्रीय संसद एवं विधानसभाओं मेें महिलाओं के लिए आरक्षण का संघर्ष चल रहा है और एक राज्य में महिलाओं को स्थानीय निकाय में 33 प्रतिशत आरक्षण क्या दिया गया…आग लग गई। अनेक सरकारी भवनों को आग के हवाले करने के बाद कई इलाकों में कफर््यू लगाना पड़ा है, स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सेना को उतारना पड़ा है। प्रदर्शनकारियों ने मुख्यमंत्री टी आर जेलियांग के निजी घर में ही आग लगा दी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी भयावह होगी। सेना या पुलिस लोगों को हिंसा से रोक सकती है, उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है लेकिन जिस भावना से विरोध हो रहा है उसके पीछे जो तर्क दिया जा रहा है उसे नहीं रोक सकती है। दरअसल, विरोधियों का कहना है कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 371-1 के तहत नागा लोगों को जो अपनी परंपरा, संस्कृति, सामाजिक प्रथा की रक्षा के अधिकार मिले हैं उनका उल्लंघन हो रहा है। इसके लिए जानजातीय परिषदों का ज्वाइंट कोआर्डिनेशन कमेटी या संयुक्त समन्वय समिति का गठन हो चुका है। इसे नगा ट्राइबस एक्शन कमेटी या एनटीएसी नाम दिया गया है। इनका कहना है कि महिलाओं की आरक्षण की व्यवस्था उनकी परंपरा पर चोट है।
यह बड़ा विचित्र तर्क है। दरअसल, 2012 में नागा मदर्स संगठन ने उच्चतम न्यायालय में अपील की थी कि वो नागालैंड सरकार को शहरी स्थानीय निकाय में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मुहैया कराने के लिये निर्देश जारी करे। अप्रैल 2016 में उच्चतम न्यायालय ने नागा मदर्स संगठन के पक्ष में फैसला सुनाया। उच्चतम न्यायालय के फैसले के अनुपालन में नागालैंड सरकार ने 16 साल से लंबित शहरी स्थानीय निकायां में चुनाव कराने का फैसला किया। साथ ही उच्चतम न्यायालय के निर्देश को ध्यान में रखते हुए नगालैंड सरकार ने शहरी स्थानीय निकाय में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का प्रस्ताव किया। सामान्य तौर पर यह एक स्वाभाविक स्थिति दिखाई देगी। लेकिन नहीं। संयुक्त समन्वय समिति का मानना है कि सरकार इससे नगालैंड की परंपरा को ध्वस्त कर रही है। यानी राजनीति केवल पुरुषांे के लिए है, इसमें महिलाओं की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। नगालैंड में पर्दा प्रथा नहीं है। आप वहां जाएं तो उपरी तौर पर आपको पुरुषों और महिलाओं में कोई अंतर दिखाई नहीं देगा। किंतु इसके साथ एक सच यह है कि आज तक वहां की विधानसभा में एक भी महिला विधायिका नहीं बनी। हालांकि 1977 में रानो एम शैजा के रुप में एक महिला को लोकसभा में निर्वाचित करके भेजा गया था। यह बात अलग है कि वह केवल अपवाद होकर रह गया।
तत्काल सरकार ने चुनाव टाल दिया है। किंतु इसका हल क्या हो सकता है? चुनाव टालना तो हल नहीं है। यहां यह भी ध्यान रखने की बात है कि नगालैंड की राजधानी कोहिमा को स्मार्ट सिटी का दर्जा दिया गया है। स्मार्ट सिटी योजना में केन्द्रीय आवंटन आप तभी हासिल कर सकते हैं जबकि कुछ शर्तें मानें। इसमंे शहरी निकाय चुनाव तथा 33 प्रतिशत महिला आरक्षण शामिल हैं। अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो स्मार्ट सिटी केवल नाम का रह जाएगा। जब आपको धन नहीं मिलेगा तो निर्माण कहां से करेंगे। तो एक ओर उच्चतम न्यायालय का निर्णय दूसरी ओर स्मार्ट सिटी योजना की शर्तें। इसमें जेलियांग सरकार के पास विकल्प क्या है? चुनाव को कब तक टाला जा सकता है? उसे चुनाव कराना ही होगा और चुनाव 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के प्रावधान के तहत ही होना चाहिए। यह बिल्कुल न्यायसंगत स्थिति होगी। लेकिन ट्राइब्स एक्शन कमेटी ने राज्यपाल पीबी आचार्य को जो ज्ञापन सौंपा है उसमें कहा गया है कि सरकार ने चुनाव रद्द करने की मांग नहीं मानी इसलिए हिंसा हुई। उसमें पूरी सरकार को बरखास्त करने की मांग भी है। साफ है कि एनटीएसी जेलियांग सरकार के इस्तीफे से कम पर मानने को तैयार नहीं है।
निष्पक्षता से विचार करें तो इस पूरे प्रकरण में सरकार निर्दोष दिखाई देती है। उसने वही किया जो उसे करना चाहिए था। हालांकि दुर्भाग्य से हिंसा के खिलाफ पुलिस कार्रवाई मेें दो लोग मारे गए और उससे स्थिति और बिगड़ गई। स्थिति बिगड़ने का यह एक तात्कालिक पहलू है। चूंकि विरोध में राजनीति भी हो रही है, इसलिए इस मौत का पूरा राजनीतिक उपयोग होगा। इस पहले से सरकार को संवेदनशीलता के साथ निपटना होगा। लेकिन महिला को राजनीति से अलग करने की सोच का क्या किया जाए? अगर वाकई वहां आदिवासी संगठनों की यही सोच है तो फिर इसका समाधान जरा कठिन है। वैसे एक और पहलू आश्चर्य में डालता है। नगालैंड के ग्राम विकास बोर्डों में महिलाओं को 25 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है। इसका विरोध तो नहीं हुआ। इसलिए कई बार यह भी आशंका पैदा होती है कि कहीं इसके पीछे कोई षडयंत्र तो नहीं। वैसे भी किसी कदम का अहिंसक विरोध समझ में आता है। किंतु इतनी व्यापक हिंसा कि जगह-जगह सरकारी भवनों को आगे के हवाले किया जाए यह कौन सा आंदोलन है। यह लोकतांत्रिक आंदोलन का तरीका नहीं है। यह काननू हाथ में लेना है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। तो इसके पीछे कुछ उपद्रवी तत्वों की साजिश हो सकती है। शेष लोग इस साजिश को न समझने के कारण उनके साथ आ गए होंगे।
जाहिर है, सरकार को दोनों पहलुओं को ध्यान में रखते हुए कदम उठाना होगा। देश के अनेक राज्यों मंें महिलाओं को स्थानीय निकायों में आरक्षण मिला हुआ है। यह महिलाओं के उत्थान तथा पुरुषों के समक्ष लाकर उनको निर्णय प्रक्रिया मंे भागीदारी के लिए आवश्यक है। यह होना ही चाहिए। भारत देश का भाग होने के नाते नगालैंड इसका अपवाद नहीं हो सकता। इसलिए इस पक्ष पर तो सरकार को दृढ़ता दिखानी होगी। यह नहीं हो सकता कि किसी सही कदम का विरोध हो और हाथ पीछे खींच लिया जाए। दूसरी ओर पूरे घटनाक्रम की गहराई से जाचं होनी चाहिए। इसके पीछे यदि कोई दूसरा सच है तो वह भी सामने आना चाहिए। किंतु इसके साथ यदि नगालैंड में कुछ लोगों के अंदर भी महिलाओं को राजनीति में नहीं आने की सोच है और इसे वहां की संस्कृति और परंपरा का अंग बताने वालों की संख्या है तो फिर इसका समाधान दूसरा होगा। इसके लिए तो मानसिकता बदलने का अभियान चलाना होगा। भारत सहित दुनिया भर का उदाहरण देकर यह बताना होगा कि आज चारों ओर महिलाएं पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं। वे निर्णय प्रक्रिया मंें शीर्ष पर भी हैं। ऐसा न करने से नगालैड पिछड़ा प्रदेश रह जाएगा। उन्हें समझाना पड़ेगा कि संविधान में जो आपको अपनी संस्कृति और रीति रिवाज के संरक्षण का जो विशेषाधिकार मिला है वह इससे उल्ल्ंांघित नहीं होता है। इस विषय को केवल राज्य के हवाले छोडना भी उचित नहीं होगा। वास्तव में यह संकट केवल राज्य का नहीं पूरे देश का है। देश भर की महिला संगठनांें और नेत्रियों का नगालैंड में कार्यक्रम होना चाहिए। केन्द्र सरकार को भी उन संगठनों से बात करनी चाहिए जो अंादोलन में शामिल हैं।
अवधेश कुमार, ईः 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः 01122483408, 9811027208