मैं समझता हूँ कि मेरी उम्र के उस समय के लोगों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिसने रेडियो सीलोन से प्रसारित होने वाला बिनाका गीतमाला और अमीन सायानी की जादुई आवाज न सुनी होगी। जिस प्रकार एक समय रामायण के समय ट्रेनें तक रुक जाती थीं, लगभग उसी प्रकार एक समय बिनाका गीतमाला के लिये लोग अपने जरूरी से जरूरी काम टाल देते थे। हम लोग भोजन करने के समय में फ़ेरबदल कर लेते थे, लेकिन बुधवार को बिनाका सुने बिना चैन नहीं आता था। जब अमीन सायानी भाइयों और बहनों से शुरुआत करते थे तो एक समां बंध जाता था। विभिन्न उदघोषकों और गायकों की आवाज सुनकर कान इतने मजबूत हो गये हैं कि अब किसी भी किस्म की उच्चारण गलती आसानी से पचती नहीं, न ही घटिया किस्म का कोई गाना, और न ही मिमियाती हुई आवाज़ में लोगों को कुछ सुनने के लिए विवश करने वालों का कोई असर होता है।
उन दिनों सुबह हम लोग जैसे रेडियो की आवाज से ही उठते थे और रेडियो की आवाज सुनते हुए ही नींद आती थी। उन दिनों मनोरंजन का घरेलू साधन और कुछ था भी नहीं, हम लोग रात 10 पर सोने चले जाते थे। उस समय आकाशवाणी से रात्रिकालीन मुख्य समाचार आते थे और देवकीनन्दन पांडेय की गरजदार और स्पष्ट उच्चारण वाली आवाज ये आकाशवाणी है, सुनते हुए हमें सोना ही पड़ता था, क्योंकि सुबह पढ़ाई के लिये उठना होता था और पिताजी वह न्यूज अवश्य सुनते थे तथा उसके बाद रेडियो अगली सुबह तक बन्द हो जाता था।
दुनिया आज संचार-विचार की अंतहीन क्रांति का पर्याय भले ही बन गई हो, पर आप कमोबेश रेडियो सुनना पसंद जरूर पसंद करते होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसका आविष्कार किसने किया था। आप शायद जी. मारकोनी का नाम लेंगे।परंतु, आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि एक और शख्स है जो रेडियो का आविष्कारक होने का दावा करता है। चर्चित टीवी चैनल आज तक के अनुसार नाम है एलेक्जेंडर पोपोव !
आइये, जरा इन पोपोव महोदर के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लें। रेडियो के आविष्कार का दावा करने वाले रूस के वैज्ञानिक एलेक्जेंडर पोपोव का जन्म 16 मार्च 1859 में हुआ था। 1900 में एलेक्जेंडर पोपोव के निर्देश पर हॉग्लैंड द्वीप पर रेडियो स्टेशन स्थापित किया गया। इसके माध्यम से रूसी नौसेना बेस और युद्धपोत जनरल एडमिरल एपारकिंसन के चालक दल वायरलेस टेलीग्राफी के जरिये एक दूसरे से जुड़ सकते थे। 1901 में एलेक्जेंडर पोपोव को इलेक्ट्रॉनिक्ल इंस्टीट्यूट में बतौर प्रोफेसर नियुक्त किया गया।1905 में वे इस संस्थान के डॉयरेक्टर बने। 13 जनवरी 1906 में महज 46 वर्ष की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।
आज दृश्य-श्रव्य माध्यमों का बोलबाला है। लेकिन, यह भी कमाल की बात है कि एक नया दौर आया है कि मन की बात और रमन के गोठ जैसे कार्यक्रमों ने एक बात फिर रेडियो को आम और ख़ास दोनों तरह के श्रोताओं के बीच ज्यादा लोकप्रिय बना दिया है। मैं यह मानता हूँ कि इससे आज की तेज रफ़्तार ज़िंदगी में निरंतर बदलते प्रसारण संसार में रेडियो की अहमियत को महसूस करने का नया मौक़ा मुहैया हुआ है। कहना न होगा कि रेडियो के दिन अब लद गए कहने वालों को समझना होगा कि उसके दिन वैसे तो सदाबहार रहे हैं, पर आप मुगालते में हों तो बाहर आएं और देखें कि रेडियो के दिल तो फिर रहे हैं। बहरहाल रेडियो का नाम आते ही कोई खनकदार आवाज़, ये आकाशवाणी है जैसा कोई जुमला या फिर अब आप देवकीनंदन पांडेय से समाचार सुनिये जैसी अपील करने वाली ध्वनि आपके कानों में गूंजने लगे लगे तो कोई आश्चर्य की बात न होगी।
रेडियो की याद मुझे बहुत दूर यानी बचपन तक ले जाती है। आज भी मुझे अच्छी तरह से याद है कि सन 1984 के पहले तक,जब हमारा परिवार, जन्म स्थान डोंगरगांव में रहता था,घर पर एक बड़ा-सा रेडियो था। शायद बुश बैरन का,आठ बैंड का,चिकनी लकड़ी के कैबिनेट वाला,वाल्व वाला। उस जमाने में ट्रांजिस्टर नहीं आये थे, वाल्व के रेडियो आते थे, जिन्हें चालू करने के बाद लगभग कुछ मिनट रुकना पड़ता था वाल्व गरम होने के लिये। उस जमाने में खासकर सातवें-आठवें दशक में,इस प्रकार का रेडियो भी हरेक के यहाँ नहीं होता था और खास चीज़ माना जाता था, और जैसा साऊंड मैने उस रेडियो का सुना हुआ है, आज तक किसी रेडियो का नहीं सुना। बहरहाल, उस रेडियो पर हम सुबह रामायण और चिंतन के आलावा बरसाती भैया के चौपाल, चित्रपट संगीत और आप मन के गीत जैसे कार्यक्रम सुनने से नहीं चूकते थे। लिहाज़ा, रेडियो से बचपन और हमारे पूरे परिवार का गहरा नाता रहा।
देवकीनन्दन पांडे की आवाज का वह असर मुझ पर आज तक बाकी है, यहाँ तक कि जब उनके साहबजादे सुधीर पांडे रेडियो,फ़िल्मों,टीवी पर आने लगे तब भी मैं उनमें उनके पिता की आवाज खोजता था। देवकीनन्दन पांडे के स्पष्ट उच्चारणों का जो गहरा असर हुआ, उसी के कारण आज मैं कम से कम इतना कहने की स्थिति में हूँ कि भले ही मैं कोई बड़ा उद्घोषक नहीं, किन्तु आवाज़ से अपनी कुछ पहचान तो हासिल कर ही ली है। उस समय तक घर में मरफ़ी का एक टू-इन-वन ट्रांजिस्टर भी आ चुका था जिसमें काफ़ी झंझटें थी, कैसेट लगाओ, उसे बार-बार पलटो, उसका हेड बीच-बीच में साफ़ करते रहो ताकि आवाज अच्छी मिले, इसलिये मुझे आज भी ट्रांजिस्टर ही पसन्द है। हमांरे घर की सुबह आज भी आकाशवाणी के कार्यक्रमों को सुनकर होती है। इसके आकर्षण ने ही मुझे चिंतन के सैकड़ों आलेख लिखने की प्रेरणा भी दी।
रेडियो सीलोन ने अमीन सायानी और तबस्सुम जैसे महान उदघोषकों को सुनने का मौका दिया। मुझे बेहद आश्चर्य होता है कि आखिर ये कैसे होता है कि इतने सलीके से बोल लेते हैं। मैं इस तरह बोलने वालों का कद्रदान तो हूँ ही,एक तरह से उनकी पूजा करता हूँ। उन दिनों ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस का दोपहर साढ़े तीन बजे आने वाला फ़रमाइशी कार्यक्रम हम अवश्य सुनते थे। ये ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस है, पेश-ए-खिदमत है आपकी पसन्द के फ़रमाइशी नगमे। जिस नफ़ासत और अदब से उर्दू शब्दों को पिरोकर अज़रा कुरैशी नाम की एक उदघोषिका बोलती थीं ऐसा लगता था मानो मीनाकुमारी खुद माइक पर आ खड़ी हुई हैं।
बहरहाल मेरा नम्र सुझाव है कि साफ़ और सही उच्चारण में, प्रभावशाली अंदाज़ में,आवाज पहुँचाने की कला तथा श्रोताओं का ध्यान बराबर अपनी तरफ़ बनाये रखने में कामयाबी, ये सभी गुण यदि आपको सीखने हैं तो जाने-माने उद्घोषकों और एंकरों को सुनने की आदत डालें।
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