उत्तर प्रदेश में अपराध एवं राजनीति का गहरा गठबन्धन लोकतांत्रिक मूल्यों का उपहास बनता रहा है। यहां थोड़े-थोड़े अन्तराल के बाद ऐसे-ऐसे घोटाले, काण्ड या भ्रष्टाचार के किस्से उद्घाटित हो रहे हैं कि वहां भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है। संविधान की धज्जियां उड़ाने एवं लोकतंत्र को तार-तार करने में कोई राज्य अगर सबसे आगे हैं तो वह उत्तर प्रदेश ही है। चुनाव की चैखट पर खड़ा यह प्रांत और उसके युवा मुख्यमंत्री अपनी पार्टी और अपनी सरकार पर लगने वाले दागों को धोने के लिये भोली-भाली जनता को तरह-तरह के प्रलोभनों और तोहफों की सौगात देकर अपने लोकतंत्र का प्रहरी एवं राज्य का सबसे हितैषी होने होनेे का सपना पाल रहे जबकि उन्हीं की सरकार के एक मन्त्री ‘गायत्री प्रजापति’ अपनी गुण्डागर्दी, अपराध एवं घोटालों के कारण राजनीति का एक बदनुमा दाग बन गये है। उनका हाल में सामने आया वीभत्स एवं घिनौना चेहरा न केवल उनकी पार्टी को, उनकी सरकार को बल्कि सम्पूर्ण राजनीति को शर्मसार कर रहा है। 15 वर्ष की किशोरी के जीवन को दूभर बनाकर पिछले पांच सालों के ‘दुःशासनी’ कृत्यों के अलावा उनके अपराधों एवं कुकृत्यों की एक लम्बी फेहरिश्त है। जब शासक ही अपराधी है तो उस राज्य और उसके लोग किसकी चैखट पर इंसाफ मांगने जायेंगे?
उत्तर प्रदेश की सरकार ने न केवल राजनेताओं को बल्कि वहां की रक्षक कहे जाने वाले पुलिस को भी गैर-जिम्मेवार बना दिया है। पुलिस पर वहां की जनता का विश्वास उठ चुका है। यूपी के लोग मांग कर रहे कि अपराधी गायत्री प्रजापति को कानून के हवाले करो। यह मांग न तो गैर वाजिब है और न वक्त के खिलाफ है। लेकिन विडम्बना की हद देखिये कि पुलिस दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में अपना इलाज करा रही किशोरी के पास तो पहुंच गई मगर सारे पुख्ता कानूनी सबूतों के होने के बावजूद गायत्री प्रजापति के पास नहीं पहुंच सकी? राजनीति से पोषित एवं पल्लवित ऐसे अपराधियों को पुलिस संरक्षण का यह एक और काला अध्याय है। कई अंगुलियां उठ रही हैं और तीखी आलोचनाएँ भी हो रही हैं। ”न्याय होना चाहिए, चाहे आकाश ही क्यों न गिर पड़े।“ प्रदेश सरकार की चुप्पी भी आश्चर्यजनक है। यह सब मात्र भ्रष्टाचार ही नहीं, यह राजनीति की पूरी प्रक्रिया का अपराधीकरण है। और हर अपराध अपनी कोई न कोई निशानी छोड़ जाता है।
यह उत्तर प्रदेश की बदनसीबी है कि वहां कानून का पालन करने के नियम से सरकार नहीं बन्धी हुई है बल्कि उल्टा ‘कानून सरकार का पालन करने से बन्ध चुका है।’ लोकतन्त्र में इस तरह की स्थिति का होना दुर्भाग्यपूर्ण है। पुलिस का काम कानून का पालन करना होता है, कानून किसी सरकार का गुलाम नहीं होता मगर उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है। जनता के हित और सुरक्षा से ज्यादा वजनी वहां की सरकार और उसकी पार्टी के निजी स्वार्थ है। यहां पर संविधान और उसके रक्षक ऐसे नाजुक मोड़ पर खड़े रहते हैं कि बार-बार उनका पैर फिसलता रहता है और हर बार लोकतंत्र, संविधान एवं राजनीतिक मूल्यों को अपाहिज करता रहता है। गायत्री प्रजापति के खिलाफ जुर्म लिखवाने वाली किशोरी के साथ राज्य की पुलिस ऐसा ही व्यवहार कर रही है। सारी कानूनी औपचारिकताएं पूरी होने के बावजूद प्रजापति को गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है और वह न जाने कहां गुम हो गया है। इसके लिये राज्य की कानून व्यवस्था के साथ-साथ मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। वे जनता की अदालत में खड़े हैं और जनता उनकी तरह गैर-जिम्मेदार तो नहीं हो सकती? यह अलग बात है कि उनकी राजनीति ने इतने मुखौटे पहन लिये हैं, छलनाओं के मकड़ी जाल इतने बुन लिये हैं कि उसका सही चेहरा पहचानना आम आदमी के लिये बहुत कठिन हो गया है। लेकिन ऐसी कठिन एवं चुनौतीपूर्ण स्थितियों में इस प्रांत की जनता ने ही अपनी अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा की है। जब लोगों ने इंदिराजी तक को अहसास कराया और चुनाव में हार की पटकनी दी तो गायत्री प्रजापति शैतानियत को आइना दिखाना कौनसी बड़ी बात है और यह वक्त की जरूरत भी है। दुनिया में कोई सिकन्दर नहीं होता, वक्त सिकन्दर होता है। यह वक्त प्रदेश की जनता के हाथ में हैं।
अब बड़ा सवाल यह है कि आखिर क्यों मुलायम के लिए अखिलेश से भी ज्यादा जरूरी हैं गायत्री प्रजापति? अखिर गायत्री प्रजापति ने ऐसा किया क्या कि वो मुलायम सिंह यादव के इतने करीबी बन गए। राजनीतिक नहीं बल्कि कुछ और भी है कारण जिनमें प्रजापति के कई कमाई वाले धंधों में अखिलेश यादव के सौतेले भाई प्रतीक यादव की हिस्सेदारी भी एक है। मुलायम सिंह की राजनीति को करीब से जानने वालों का मानना है कि गायत्री प्रजापति के जरिये हो रही खनन की काली कमाई की हिस्सेदारी मुलायम के करीबी होने का सबसे बड़ा कारण है। गायत्री प्रजापति के बारे में यह भी कहा जाता है कि जब वे नेताजी के घर जाते हैं तो उस दिन वहां के स्टाफ की भी जेबें गर्म हो जाती हैं। मुलायम के बेहद करीबी बनने में गायत्री की यही नोटों की गर्मी काम कर रही है। राजनीति में यह आम स्वीकारोक्ति बन गया है कि बिना काले धन के हम सत्ता की बागडोर सम्भालने के लिए तख्त तक पहुंच ही नहीं सकते।
प्रजापति जैसे लोग समानान्तर काली व्यवस्था के जनक हंै, भला वह सरकार प्रांत के लोगों को क्या सुरक्षा देगी, जो खुद प्रजापति जैसी बैशाखियों पर खड़ी हो? प्रजापति जैसे लोग और उनकी तथाकथित व्यवस्था इतनी प्रभावी है कि वह कुछ भी बदल सकती है, कुछ भी बना और मिटा सकती है। इन स्थितियों के संविधान एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को नकारा बना दिया है। आज सत्ता मतों से प्राप्त होती है और मत काले धन से। और काला धन हथेली पर रखना होता है। जो प्रजापति जैसे लोगों के पास होता है। बस यही घोटालों और भ्रष्टाचार की जड़ है।
लोकतंत्र एक पवित्र प्रणाली है। पवित्रता ही इसकी ताकत है। इसे पवित्रता से चलाना पड़ता है। अपवित्रता से यह कमजोर हो जाती है। ठीक इसी प्रकार अपराध के पैर कमजोर होते हैं। पर अच्छे आदमी की चुप्पी उसके पैर बन जाती है। अपराध, भ्रष्टाचार अंधेरे में दौड़ते हैं। रोशनी में लड़खड़ाकर गिर जाते हैं। हमें रोशनी बनना होगा। और रोशनी ‘प्रजापति’ से प्राप्त नहीं होती।
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(ललित गर्ग)
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