ऑस्ट्रेलिया में उच्च न्यायालयों के लिए निर्णय लिखने का एक प्रारूप निर्धारित है किन्तु भारत में ऐसा कुछ नहीं है और यह न्यायाधीशों को मनमाने ढंग से निर्णय लिखने का निरंकुश अवसर प्रदान करता है| मैंने विभिन्न देशी और विदेशी न्यायालयों के निर्णयों का अध्ययन किया है और पाया है कि अधिकांश भारतीय निर्णय “निर्णय” की बजाय “ निपटान” की परिधि में आते हैं| दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तथ्यों, साक्ष्यों , न्यायिक दृष्टान्तों और तर्कों में से चुनकर मात्र वही सामग्री निर्णयों में समाविष्ट होती है जिसके पक्ष में निर्णय दिया जाना है |
शेष सामग्री का इन निर्णयों में कोई उल्लेख तक नहीं किया जता और अपूर्ण व अधूरे निर्णय दिए जाते हैं जिससे आगे अपील दर अपील होती रहती हैं और मुकदमेबाजी रक्त बीज की तरह बढती देखी जा सकती है| कानून, न्याय जैसे शब्दों का बड़े गर्व से प्रयोग कर देश के न्यायाधीश और वकील बड़ी बड़ी डींगें हांकते हैं किन्तु वास्तव में भारतीय सीमा क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा न्यायालय हो जो कानून और संविधान के अनुसार संचालित है |
एक अच्छे निर्णय के लिए आवश्यक है कि उसमें मामले के तथ्य, दोनों पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों, तर्कों, न्यायिक दृष्टान्तों और उन्हें स्वीकार करने या अस्वीकार करने के स्पष्ट कारणों का उल्लेख किया जाना चाहिए | इसके साथ साथ ही प्रार्थी पक्ष द्वारा चाहे गए प्रत्येक अनुतोष को स्वीकार या अस्वीकार करने के कारण भी स्पष्ट किये जा चाहिए| किसी न्यायिक दृष्टांत को अस्वीकार या स्वीकार करने के लिए मात्र यह लिखना पर्याप्त नहीं है कि वह हस्तगत प्रकरण में लागू होता है या लागू नहीं होता है बल्कि यह स्पष्ट किया जाना परमावश्यक है कि न्यायिक दृष्टांत की कौनसी परिस्थितियाँ समान या असमान हैं |
प्रवीण कुमार जैन (एमकॉम, एफसीएस, एलएलबी),
कम्पनी सचिव, वाशी, नवी मुम्बई – ४००७०३.