एक सफल और सार्थक जिंदगी जीने के लिए मनुष्य के पास उन रास्तों का ज्ञान होना बहुत जरूरी है जो उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचाते हैं। इन्हीं रास्तों पर आगे बढ़ते हुए हर मनुष्य की ‘सर्व भवन्तु सुखिनः’-सब सुखी हांे-यह भावना होनी चाहिए। हम अपने कर्म और वाणी से ऐसा एक भी शब्द न निकालें एवं कृत्य न करें जो दूसरों को कष्ट पहुंचाता हो। यह वाणी के संयम और कर्म के विवेक से ही संभव हो सकता है लेकिन हमारी स्थिति आज उस सुंदरी की तरह है जो चाहती है कि सारी दुनिया उसे प्यार करे परन्तु वह किसी को प्यार न करे। अक्सर हम भूल जाते हैं कि यह संसार आदान-प्रदान पर चलता है जैसा हम बोएंगे वैसा फल हमे मिलेगा, जो जैसा देता है वैसा ही पाता है। मैं किसी से अच्छा करूं क्या फर्क पड़ता है, लेकिन मैं किसी का अच्छा करूं- बहुत फर्क पड़ता है। इसलिये हमें अच्छा बनने, अच्छा करने और अच्छा दिखने की कामना करनी चाहिए। हेलन केलर ने बहुत ही मर्म की बात कही है कि दुनिया में सबसे अच्छी और सबसे खूबसूरत चीजों को देखा नहीं जा सकता और न ही छूआ जा सकता है। उन्हें तो दिल से महसूस ही किया जा सकता है।
समाज में सभी सुखी रहना चाहते हैं लेकिन यह हो कैसे? इसका एक सूत्र है-प्रेम। वस्तुतः प्रेम वह तत्त्व है, जो प्रेम करने वाले को सुखी तो बनाता ही है, जिससे प्रेम किया जाता है वह भी सुखी होता है। याद रखें सुख और सुविधा दो भिन्न चीजें हैं जो शरीर को आराम पहुंचाता है वह सुख नहीं, सुविधा है लेकिन सुख का संबंध आत्मा से होता है। आप अच्छे घर में रहते हैं, अच्छी कार में बैठते हैं, एयरकंडीशन आॅफिस में काम करते हैं उससे आपके शरीर को सुविधा प्राप्त होती है परन्तु आप सत्य बोलते हैं, सबको प्रेम करते हैं, ईमानदारी और नैतिकता का व्यवहार अपनाते हैं, सच्चाई और संवेदना दर्शाते हैं, अहिंसा के मार्ग पर चलते हैं, उससे आपको जो सुख मिलता है वह आत्मिक सुख कहलाता है। यही सुख व्यक्ति और समाज को सुखी बनाता है। महात्मा गांधी ने कहा है कि प्रेम कभी दावा नहीं करता, वह तो हमेशा देता है। प्रेम हमेशा कष्ट सहता है, न कभी झुंझलाता है, न बदला लेता है।
संसार में जितने भी संत मनीषी हुए हैं उन्होंने सदा दूसरों के सुख और परोपकार के लिए प्रयत्न किया है। वे उस मां के समान है जो सबको पुत्रवत मानती है और सबको खिला पिलाकर स्वयं खाती पीती है और सबको सुलाकर स्वयं सोती है। उसके सामने ‘पर’ पर का महत्त्व होता है, ‘स्व’ का नहीं। यही वह तत्त्व है जिसके कारण वह स्वयं गीले में सोती है और अपनी संतान को सूखे मंे सुलाती है। मां स्वयं कष्ट सहन करके भी अपनी संतान को सुख सुविधा पहुंचाने के लिए लालायित रहती है। जीवन को ऊंचाई देनी है, इसलिए गहराई भी जरूरी है, बुनियाद जितनी गहरी होती है मकान उतना ही ऊंचा और मजबूत बनता है। सब सुखी हों कि आदर्श स्थिति स्थापित करने के लिए एक साथ बहुत सी अच्छाइयों का अभ्यास करना होता है। इस कठिन साधना और जीवन मूल्यों की श्रेष्ठता से जुड़कर ही हमारा व्यक्तित्व आदर्श बनता है। हैरी एस. ट्रूमेन ने जीवन की सफलता के रहस्य बहुत ही सहज करते हुए कहा है कि यदि आप इस बात की चिंता न करें कि आपके काम का श्रेय किसे मिलने वाला है तो आप आश्चर्यजनक कार्य कर सकते हैं।
जिंदगी के सफर में ऐसे उद्देश्यों के प्रति मन में अटूट विश्वास होना जरूरी है। कहा जाता है-आदमी नहीं चलता, उसका विश्वास चलता है। आत्मविश्वास सभी गुणों को एक जगह बांध देता है यानी कि विश्वास की रोशनी में मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व और आदर्श उजागर होता है। जैसा कि जोहान वाॅन गोथे ने कहा था-‘‘जिस पल कोई व्यक्ति खुद को पूर्णतः समर्पित कर देता है, ईश्वर भी उसके साथ चलता है।’’ जैसे ही आप अपने मस्तिष्क में नए विचार डालते हैं, विश्वास के हमसफर बनते हैं, सारी ब्रह्माण्डीय शक्तियां अनुकूल रूप में काम करने लग जाती हैं।
दुनिया में कोई भी व्यक्ति महंगे वस्त्र, आलीशान मकान, विदेशी कार, धन-वैभव के आधार पर बड़ा या छोटा नहीं होता। उसकी महानता उसके चरित्र से
बंधी है और चरित्र उसी का होता है जिसके पास अपने आप के होने का विश्वास है। बंद प्रगति के रास्तों को खोल देने का संकल्प है।
पाश्चात दार्शनिक वेंडल विल्की ने ‘एक विश्व’ यानी सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामया की योजना बनाकर इसी नाम से एक पुस्तक लिखी थी, बड़े गंभीर चिंतन के बाद उसने अपने विचार दिये थे लेकिन वे क्रियान्वित न हो सके क्योंकि सबको मिलाकर एक करने के लिए जिस प्रेम, सहिष्णुता, परदुखकातरता, परोपकार, संवेदना और भाईचारे की जरूरत थी उसका लोगों में अभाव था। विल्की का स्वप्न अधूरा ही रह गया। यह स्वप्न कोरा विल्की का ही नहीं महावीर, बुद्ध, गांधी, आचार्य तुलसी जैसे महापुरुषों का भी अधूरा ही रह गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि आपसी प्रेम और आपसी मेल का अपना महत्व है और उससे वह शक्ति उत्पन्न होती है, जो और किसी चीज से पैदा नहीं हो सकती लेकिन आज का मानव व्यापक हितों को नजरअंदाज करके अपने निजी स्वार्थों को देख रहा है। वर्तमान समय की सारी व्याधियां इन्हीं क्षुद्र स्वार्थों और संकीर्ण मानसिकता के कारण हैं।
मनुष्य के भीतर देवत्व है तो पशुत्व भी है। देव है तो दानव भी तो है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का पुरातन भारतीय मंत्र संभवतः दानवों को नहीं सुहाया और उन्हांेने अपने दानव रूप दिखाया। आज हम दानव का वही करतब हर घर में, हर चैखट पर, हर गली में, हर शहर में देख रहे हैं। हम इस सनातन सत्य को भूल गये हैं, जहां प्रेम है आपसी मेल है, भाईचारा है वहां ईश्वर का वास है। जहां घृणा है वहां शैतान का निवास है, इसी शैतान ने आज दुनिया को ओछा बना दिया है और आदमी के अन्तर में अमृत से भरे घट का मुंह बंद कर दिया है। पूरखों के लगाये पेड़ आंगन में सुखद छांव और फल-फूल दे रहे थे लेकिन जब शैतान जागा और दानवता हावी हुई तो भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी हो गई। बड़े भाई के घर में वृक्ष रह गए और छोटे भाई के घर में छांव पड़ने लगी। अधिकारों में छिपा वैमनस्य जागा और बड़े भाई ने सभी वृक्षों को कटवा डाला। पड़ोसियों ने देखा तो दुःख भी हुआ। उन्होंने पूछा इतने छांवदार और फलवान वृक्ष आखिर कटवा क्यों दिए? उसने उत्तर दिया क्या करूं पेड़ों की छाया का लाभ दूसरों को मिल रहा था और जमीन मेरी रूकी हुई थी।
तब हम किस मुंह से कहंे कि सब सुखी हो? वर्तमान युग में हमनें जितना पाया है, उससे कहीं अधिक खोया है। भौतिक मूल्य इंसान की सुविधा के लिए है, इंसान उनके लिए नहीं है। जैसाकि किसी ने जीवन की सफलता का सूत्र देते हुए कहा है- ‘‘जीवन प्रश्न उत्पन्न करता है, हमें बस उत्तर लिखना चाहिए।’’ तो चलिए, जीवन के प्रश्नों का डटकर सामना करें और अपनी अधिकतम क्षमता से उनके जवाब लिखें।
(ललित गर्ग)
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