कहते हैं, इन दिनों
धरती बेहद उदास है
इसके रंजो-गम के कारण
कुछ खास हैं।
कहते हैं, धरती को बुखार है;
फेफङें बीमार हैं।
कहीं काली, कहीं लाल, पीली,
तो कहीं भूरी पङ गईं हैं
नीली धमनियां।
कहते हैं, इन दिनों….
कहीं चटके…
कहीं गादों से भरे हैं
आब के कटोरे।
कुंए हो गये अंधे
बोतल हो गया पानी
कोई बताये
लहर कहां से आये ?
धरती कब तक रहे प्यासी ??
कभी थी मां मेरी वो
बना दी मैने ही दासी।
कहते हैं इन दिनों….
कुतर दी चूनङ हरी
जो थी दवा
धुंआ बन गई वो
जिसे कहते थे
कभी हम-तुम हवा
डाल अपनी काटकर
जन्म लेने से पहले ही
मासूमांें को दे रहे
हम मिल सजा!
कहते हैं, इन दिनों…..
सांस पर गहरा गया
संकट आसन्न
उठ रहे हैं रोज
प्रश्न के ऊपर भी प्रश्न
तो क्यों न उठे
जीवन जल पर उंगलियां
रहें कैसे जमुना जी से
पूछती कुछ मछलियां।
कहते हैं इन दिनों….
अरुण तिवारी
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