वियतनाम में चाम समुदाय हिन्दू परंपरा और संस्कृति से प्रभावित है। वहां हिन्दुओं की अच्छी-खासी संख्या है। लेकिन कन्वर्ट होकर मुस्लिम बने लोगों के मुकाबले हिन्दुओं की स्थिति दयनीय है
वियतनाम एशिया का एकमात्र देश है जिसने संयुक्त राष्टÑ सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में से तीन—फ्रांस, अमेरिका और चीन—के आक्रमण को विफल करने में कामयाबी पाई। उनकी यह उपलब्धि इसलिए भी खास है क्योंकि उसने आधुनिक अस्त्र-शस्त्र के अभाव के बावजूद इन महाबली दुश्मनों को धूल चटाई थी। महान नेता हो चि मिन्ह के नेतृत्व में वियतनाम ने राष्टÑीय चरित्र, अनुशासन, हिम्मत और बलिदान के कारण सर्वथा प्रतिकूल स्थितियों में भी युद्ध में विजय हासिल की। हो चि मिन्ह का प्रेरक कथन है, ‘स्वतंत्रता और स्वावलंबन से मूल्यवान कोई चीज नहीं।’ भारत उन देशों में से है जिन्होंने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में वियतमान का हमेशा समर्थन किया है। भारत ने राजनीति, आर्थिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय और रक्षा जैसे विविध क्षेत्रों में वियतनाम से रिश्ते बरकरार रखे हैं।
हैरानी की बात है कि वियतनाम में दूसरी शताब्दी के शिलालेख मिले हैं जो संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में हैं जो वियतनाम ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में तत्कालीन समय में हिंदुओं की उपस्थिति का प्राचीनतम प्रमाण हैं। इस जुड़ाव पर एक्ट ईस्ट नीति के अंतर्गत गंगा और मेकांग को जोड़ने की योजना पर अमल करने के उद्देश्य से गंभीरता से विचार करना होगा, ताकि सदियों पुरानी यह सांस्कृतिक निकटता उस क्षेत्र के साथ सुदृढ़ सांस्कृतिक संपर्क स्थापित करने में मददगार हो।
वियतनाम में अप्रवासी भारतीयों के इतिहास के तीन चरण हैं। प्रारंभिक चरण का कालखंड 7वीं शताब्दी है, जब तत्कालीन चंपा साम्राज्य पर भारत के नाविकों, व्यापारियों और विद्वानों के आगमन का व्यापक प्रभाव पड़ा था जो वर्तमान वियतनाम के मध्य क्षेत्र में स्थित था। भारतीय प्रवासियों के साथ सामाजिक और सांस्कृतिक संपर्क से चाम हिंदू परंपरा और संस्कृति को मूर्त रूप मिला था। चाम का कालखंड 9वीं से 17वीं सदी तक रहा जिसमें 9वीं से 11वीं सदी तक की अवधि उसके उत्कर्ष की थी। आज भी वियतनाम के मध्य-क्षेत्रीय प्रांतों में चाम के स्मारकों-मंदिरों के जीर्ण-शीर्ण अवशेष देखे जा सकते हैं। आज वियतनाम में चाम के सैकड़ों-हजारों वंशज मौजूद हैं जो सदियों से परस्पर विवाह और सामाजिक एकीकरण की प्रक्रिया में वियतनामियों के साथ घुलमिल गए हैं। उनमें से ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और आमतौर पर निम्न आर्थिक श्रेणी में आते हैं। वे सिर्फ वियतनामी भाषा बोलते हैं। चाम समुदाय मूलत: हिंदुओं के रूप में पहचाना जाता था, लेकिन बाद में उनमें से बड़ी संख्या में लोगों ने इस्लाम और बौद्ध धर्म को अपना लिया था।
मैं एक युवा हिंदू चाम नेता इनरा चक के शब्दों को नहीं भूल सकता, जिन्होंने 2012 में हरिद्वार में इंटरनेशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में कहा था कि वियतनाम में बचपन में उन्होंने सपना देखा था कि वे किसी दिन भारत की पवित्र भूमि पर जाएंगे। हरिद्वार आकर उन्हें महसूस हुआ कि उनका सपना सच हो गया। चाम हिन्दू पीढ़ियों से संजोई मान्यता के अनुसार अब भी भारत को अपनी पवित्र भूमि मानते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से कभी प्रगति के शिखर पर विराजमान चाम हिन्दू समुदाय आज गरीबी में जी रहा है, वह पिछड़ा हुआ है। जबकि कुछ चाम आबादी, जिसने इस्लाम अपना लिया था, देश में बेहतर स्थिति में है। उस समुदाय के चंद लोगों के मुसलमान बनने की वजह थी पड़ोसी इंडोनेशिया और मलेशिया के लोगों का गहरा प्रभाव। वियतनाम सरकार अपने नागरिकों की जातीय और सांस्कृतिक पहचान को मान्यता देने और उनकी सहायता करने की नीति का पालन करती है। वियतनाम का फादरलैंड फ्रंट एक अर्ध-सरकारी मंच है जो देश के जातीय अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दों का समाधान करता है। चाम संस्कृति, विशेषकर नृत्य और कला परंपराएं, अच्छी तरह से संजोई और संरक्षित हैं। पोलिश और भारतीय पुरातत्वविदों की सहायता से चाम स्मारकों की देखभाल और संरक्षण किया जा रहा है। चाम के पुरातात्विक स्थल माय सन को यूनेस्को की धरोहर घोषित किया गया है। वियतनाम के मध्य क्षेत्र के डानांग में उत्कृष्ट रूप से संरक्षित संग्रहालय में कई चाम अवशेषों को प्रदर्शित किया गया है। जहां कम्बोडिया के अंगकोर वाट या बोरोबुदुर और प्रम्बनान बेहद चर्चित हैं, वहीं भारत के हिंदुओं को वियतनाम में मौजूद अनगिनत मंदिरों और चाम हिंदुओं के अस्तित्व के बारे में कुछ मालूम नहीं है।
वियतनाम में भारतीयों के आगमन का दूसरा दौर औपनिवेशिक काल में था। भारतीयों ने व्यापार, समुद्री आवागमन संबंधी सरोकारों और फ्रांसीसी औपनिवेशिक शासन के तहत रोजगार के अवसरों को हासिल करने के उद्देश्य से वहां प्रवेश किया था। वे अपनी मातृभाषा और वियतनामी भाषा के अलावा फ्रेंच भी बोलते थे और मुख्य रूप से उत्तर में हनोई और दक्षिण में साइगॉन में बसे थे। दो विश्व युद्धों के बीच कई भारतीय वियतनाम पहुंचे। इन उल्लेखनीय लोगों में नोबेल पुरस्कार विजेता रविंद्रनाथ ठाकुर थे, जो साइगॉन में एक परिवार के यहां ठहरे और नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जो ताइवान यात्रा के लिए उस दुर्भाग्यपूर्ण विमान पर सवार होने से पहले साइगॉन के एक होटल में रुके थे।
1950 के दशक में उत्तरी साम्यवादी और दक्षिणी गैर-साम्यवादी वियतनाम के विभाजन के बाद, उत्तरी इलाके में बसा भारतीय समुदाय अन्य विदेशियों के साथ दक्षिण में साइगॉन या अपने मूल देश की ओर पलायन करने लगा। नतीजतन, दक्षिण में भारतीय समुदाय की संख्या में वृद्धि होने लगी। 1975 में साइगॉन के पतन और साम्यवाद के उदय के दौरान दक्षिण वियतनाम में भारतीय समुदायों की अनुमानित आबादी करीब 25,000 थी जिनका बड़े पैमाने पर खुदरा व्यापार जैसे कपड़ा, हस्तशिल्प, आभूषण, किराने का सामान और सेवा व्यवसाय में वर्चस्व था। व्यापारिक कौशल के लिए मशहूर दक्षिणी भारत का एक छोटा अमीर चेट्टियार समुदाय भी वहां मौजूद था जो साहूकारी और भू-संपत्ति की खरीद-फरोख्त के पेशे से जुड़ा था। 1975 में साइगॉन के साम्यवादी बलों के अधीन जाने के बाद अधिकांश भारतीय निवासी भारत या फ्रांस चले आए, लेकिन ज्यादातर ने वियतनाम में रहने का फैसला किया। उनके वंशज हो चि मिन्ह शहर में विभिन्न काम कर रहे हैं या छोटी दुकानों या रेस्तरां के मालिक हैं। उनमें से अधिकांश के दो नाम हैं- आधिकारिक तौर पर एक वियतनामी और सामाजिक तौर पर एक भारतीय नाम। ऐसी भी मिसालें मौजूद हैं जिनमें भारतीय मूल के व्यक्तियों ने साम्यवादियों के साथ अमेरिकी सेनाओं और पूर्व दक्षिणी वियतनामी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध में भाग लिया। उन्हें वियतनाम सरकार ने आजादी के संघर्ष में अहम भूमिका निभाने के लिए पदकों और सम्मानों से नवाजा भी है। 1976 में साइगॉन का नाम हो चि मिन्ह रख दिया गया। वहां के प्राचीन मंदिरों की देखभाल चेट्टियार समुदाय के वियतनामी वंशज कर रहे हैं। हो ची मिन्ह शहर में एक बौद्ध मठ में हमारी मुलाकात एक बौद्ध भिक्षु से हुई जो हमें एक मंदिर में ले गया जहां कोई नहीं जाता और न ही कोई हिंदू उसकी देखभाल करता है। शहर के बीचोबीच स्थित दो प्रमुख हिंदू मंदिरों की देखरेख स्थानीय वियतनामी और चाम मुस्लिम समुदाय करता है।
भारतीयों के प्रवास के दूसरे दौर की जड़ें दक्षिणी भारत, उनकी फ्रेंचभाषी प्रकृति और औपनिवेशिक व्यवस्था के साथ उनके जुड़ाव से जुड़ी हैं। 1986 में वियतनाम ने दूनमुई नीति के तहत अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोले तो भारतीयों की एक नई पीढ़ी ने 1990 के दशक की शुरुआत में व्यापार और निवेश के उद्देश्य से वहां का रुख किया जिसके साथ भारतीय प्रवास के तीसरे दौर का आरंभ हुआ। वे सभी भारतीय नागरिक हैं, लिहाजा उन्हें अनिवासी भारतीय या एनआरआई की श्रेणी में रखा गया है। वियतनाम में बसे भारतीय समुदाय के लिए सबसे बड़े संतोष की बात है कि उन्हें किसी भी तरह के सरकारी या गैर-सरकारी, सामाजिक या सांप्रदायिक, या नस्लीय या राजनीतिक या आर्थिक भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता। चीन के दौरे के लिए निकले प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का अपनी यात्रा के बीच में अचानक हनोई रुकना भारत-वियतनाम के रणनीतिक संबंधों समेत सभी मोर्चों पर सौहार्दपूर्ण संबंध की ओर इशारा करता है। वियतनाम एक ऐसा देश है, जिसने तीन महाबलशाली महाशक्तियों के खिलाफ भयंकर युद्ध में छत्रपति शिवाजी जैसी बहादुरी और रणनीति पर चलकर विजय हासिल
की थी।
(लेखक अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के महामंत्री हैं)
साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से