इस समय देश भर में किसानों का जो आंदोलन हमें दिख रहा है उसमें यद्यपि कृषि से जुड़ी अनेक समस्याओं की गूंज है, लेकिन इसमें मुख्य स्वर कर्ज माफी का है। आप देखेंगे कि जहां भी किसान सड़कों पर हैं या सड़कों पर उतरने की चेतावनी दे रहे हैं उसमें कर्ज माफी की मांग पहले स्थान पर है। महाराष्ट्र में भी किसानों ने आंदोलन आरंभ करने का ऐलान कर दिया था। ज्योंहि प्रदेश सरकार ने कह दिया कि 5 एकड़ की जोत वाले किसानों का कर्ज तत्काल प्रभाव से माफ किया जाता है और शेष के लिए एक उच्चस्तरीय समिति बनाई जा रही है आंदोलन वापस हो गया। मध्यप्रदेश में भी मंदसौर के हिंसक आंदोलन के बाद मुख्यमंत्री ने छोटे किसानों के कर्ज माफी का ऐलान कर दिया है। तो यह प्रश्न स्वाभाविक रुप से उठता है कि क्या कर्ज माफी किसानों की समस्याओं का समाधान है? और क्या देश इस स्थिति में है कि सभी किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाए? केन्द्र की ओर से वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कई बार साफ किया है कि यदि राज्य किसानों का कर्ज माफ करते हैं उन्हें इसके लिए राशि की व्यवस्था स्वयं करनी होगी। इसका अर्थ हुआ केन्द्र इसमें कोई वित्तीय योगदान देने की स्थिति में नहीं है। उन्होंने यह बात सबसे पहले उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कही थी। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव प्रचार मंें भाजपा ने लघु और सीमांत किसानों का कर्ज माफ करने का वायदा किया था। सरकार में आने के बाद किसानों का करीब 36 हजार करोड़ का कर्ज माफ हुआ है। लघु और सीमांत किसानों के बाद अन्य किसान भी अपना कर्ज माफ करने की मांग कर रहे हैं।
यह एक प्रवृत्ति की तरह पूरे देश मंे फैल गया है और राज्य सरकारों को कुछ न कुछ करना होगा। किसान आंदोलन की गरमाहट के बीच जेटली के हाथ खींचने वाले वक्तव्य से गलत संदेश जा रहा था इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर यह फैसला किया कि जो किसान समय पर कर्ज चुकाते हैं उनको केवल 4 प्रतिशत ब्याज देना होगा। फसली कर्ज पर औसत ब्याज 9 प्रतिशत होता है। तो 5 प्रतिशत केन्द्र सरकार स्वयं वहन करेगी। इसके लिए केन्द्र ने 20 हजार 339 करोड़ रुपए का आवंटन किया है। मंत्रिमंडल ने यह भी फैसला किया कि जो किसान समय पर कर्ज नहीं चुकाएंगे उन्हें केवल दो प्रतिशत की सब्सिडी मिलेगी। यानी उनको सात प्रतिशत ब्याज देना होगा। केन्द्रीय मंत्रिमंडल का यह फैसला किसानों को समय पर कर्ज वापसी के लिए प्रोत्साहित करने के लिए है। किंतु अगर प्रवृत्ति यह बन रही है कि दबाव में सरकारें कर्ज माफी कर देतीं हैं तो फिर कर्ज वापसी की आम प्रवृत्ति पैदा कर पाना कठिन होगा। हाल में भारतीय रिजर्व बैंक सहित कई बैंकों ने कहा है कि कर्ज माफी से उन किसानों के मनोविज्ञान पर विपरीत असर पड़ रहा है जो समय से कर्ज वापस कर रहे थे। ऐसे किसानों ने भी कर्ज वापसी करना बंद कर दिया है, क्योंकि उनको लगता है कि जब कर्ज माफ ही हो जाएगा तो वापस करने की क्या जरुरत है।
सामान्य तौर पर देखा जाए तो यह प्रवृत्ति किसी भी देश के विकास के लिए बाधक है। किंतु यहां कुछ बातें और भी समझने की है। भारत का आम किसान बदहाल है इसमें दो राय नहीं हो सकती। उस बदहाली में यदि उसके उपर कर्ज का बोझ है तो वह किस दबाव और तनाव में जीता होगा इसकी कल्पना हम आसानी से कर सकते हैं। अगर उसकी फसल अच्छी नहीं हुई, या हुई तो कीमत उचित नहीं मिली तो फिर उसके पास इतनी आय नहीं होती कि वह कर्ज की रकम समय पर लौटा सके। फसली कर्ज या कोल्ड स्टोरेज आदि में भंडारण के लिए कर्ज की अवधि बहुत कम होती है। अगर समय पर कर्ज वापस नहीं हुआ तो फिर कई बैंक उसके बाद मूलधन और ब्याज जोड़कर ब्याज लगाने लगते हैं। इस तरह किसान जितने समय तक कर्ज वापस नहीं करता उतने समय तक उस पर चक्रवृद्धि ब्याज भी चलता है। इसमेें छोटी रकम काफी बढ़ जाती है। छोटे किसानों के लिए या कैसे किसान जिनके घर में कोई अन्य आय नहीं है उनके लिए कर्ज की रकम समय पर लौटाते रहना संभव नहीं होता। इसमें पहली नजर में ऐसा लगता है कि किसानों का कर्ज माफ कर देना चाहिए। इससे वे दबाव मुक्त होकर जीवन जिएंगे तथा अपना काम कर सकेंगे। वैसे भी यह कैसे संभव है कि एक राज्य में कर्ज माफ हो और दूसरे राज्य के किसान इसकी मांग न करें।
उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने कर्ज माफ कर इस प्रवृत्ति के तेजी से उभरने में योगदान दिया है। अब इसे रोक पाना संभव नहीं लगता।
हालांकि इस समय ज्यादातर राज्यों की वित्तीय दशा ऐसी नहीं है कि वो कर्ज का बोझ उठा सकें। वे पहले से ही कर्ज में हैं और किसानों की कर्ज माफी करने के लिए उन्हें और कर्ज लेना होगा। रिजर्व बैंक के अनुसार देश में 17 ऐसे राज्य हैं जिन पर कर्ज का बोझ बढ़ता गया है। नियम कहता है कोई भी राज्य अपने सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत तक कर्ज ले सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि किसी भी राज्य का वित्तीय घाटा यानी आय और व्यय का अंतर सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए। कुछ राज्यों की स्थिति समझिए। 2015-16 में उत्तर प्रदेश का वित्तीय घाटा 5.6 प्रतिशत, राजस्थान का 10 प्रतिशत, हरियाणा का 6.3 प्रतिशत, बिहार का 6.9 प्रतिशत और मध्य प्रदेश का 3.9 प्रतिशत था। यानी ये राज्य निर्धारित सीमा से ज्यादा कर्ज उठा चुके हैं। इसके बावजूद ये कर्जमाफी का कदम उठाते हैं तो मानकर चलिए कि उनको विकास की अन्य योजनाओं में कटौती करनी ही होगी। विकास में सबका हिस्सा होता है, इसलिए यह परोक्ष रुप से किसानों के हक में भी कटौती होगी। इसीलिए रिजर्व बैंक हमेशा से ही कर्जमाफी का विरोध करता रहा है। रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल की अगुवाई वाली मौद्रिक नीति समिति की बैठक में किसानों की कर्जमाफी का मुद्दा उठा था। समिति ने साफ कहा था कि कर्जमाफी के एलान की वजह से वित्तीय लक्ष्यों में गिरावट आएगी तथा महंगाई पर बुरा असर पड़ेगा। कर्ज चुकाने की संस्कृति पर असर पड़ने की चेतावनी रिजर्व बैंक पहले ही दे चुका है। महंगाई बढ़ने का असर सभी पड़ होगा।
लेकिन यह साफ दिखाई पड़ रहा है कि कई राज्यों की सरकारें दबाव में हैं और उनके पास कुछ सीमा तक कर्ज माफ करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। किंतु क्या इससे किसानों की समस्याएं दूर हो जाएंगी? कर्ज केवल एक समस्या है। कर्ज यदि माफ करते हैं तो उसके साथ और उसके परवर्ती कृषि की दशा में सुधार, किसानों की लागत घटाने तथा उनकी आय बढ़ाने के स्थायी इंतजाम नहीं हुए तो फिर उनकी समस्या जस की तस बनी रहेगी। वे फिर कर्ज लेंगे और वापस करने की हालत में नहीं होंगे। यहां यह भी ध्यान रखने की बात है कि सभी किसान कर्ज नहीं लेते और कर्ज लेने वाले सभी किसान बैंकों से ही कर्ज नहीं लेते। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का आंकड़ा कहता है कि भारत के 52 प्रतिशत किसानों पर कर्ज का बोझ है। निश्चय मानिए कर्जदार किसानों की संख्या इससे ज्यादा होगी। तो जिन किसानों ने बैंक के अलावा निजी लोगों से कर्ज लिया है उनका क्या होगा? सरकारी कर्ज माफी से तो उनका कोई कल्याण होने वाला नहीं।
इसी तरह कुछ राज्योें मसलन, बिहार, झारखंड, उड़ीसा आदि में बैंक से कर्ज लेकर खेती करने की आम प्रवृत्ति नहीं है। संकट में वे किसान भी हैं। उनका क्या होगा? वस्तुतः कर्ज माफी से कुछ किसानों को तात्कालिक राहत मिल सकती है। किंतु यह भारत की कृषि समस्या का समाधान नहीं है। समाधान है उनको ऐसी स्थिति में लाना कि वे आराम से कर्ज वापास कर सकें। खेती के यांत्रिकीकरण से लागत बढ़ गई है। लागत के अनुरुप मुनाफा के साथ किसानों का पैदावार बिके तो उनके लिए समस्या नहीं होगी। भाजपा ने 2014 आम चुनाव के पहले स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करने का वायदा किया था जिसमें फसलों के न्यूनतम मूल्य लागत से 50 प्रतिशत अधिक पर खरीदे जाने की बात है। इस दिशा में सरकार को बढ़ना चाहिए। केन्द्र राज्य सरकारों की बैठक बुलाकर साफ राष्ट्रीय नीति बनाए। खद्यान्नों, सब्जियों, फलों के दाम बढ़ने पर हाय तौबा मचाने वालों को भी अपनी सोच बदलनी चाहिए। मंडियों में इतनी निगरानी हो कि किसी किसान का शोषण न हो सके। मध्यप्रदेश सरकार ने न्यूनतम मूल्य से कम पर खरीदने को अपराध घोषित कर दिया है। यह एक अच्छा कदम है। तीसरे, गांवांें मंे शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा की उचित व्यवस्था हो। गांवों के लोगों का बड़ा खर्च तो बीमारी के इलाज पर चला जाता हैं। लोग अपने बच्चों को शिक्षा के लिए शहरों में भेजते हैं। ये सारे खर्च बच जाएं तो किसानों को ज्यादा रुपए की आवश्यकता नहीं होगी।
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