Monday, November 25, 2024
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पाखंडियों के आगे जब सरकारें और नेता हाजरी लगाते हैं

गुरमीत राम रहीम प्रकरण में ऐसे अनेक पहलू उभरे जिन पर गहन चर्चा आवश्यक है। पूरे देश के मानस को टटोला जाए तो इस प्रकरण को लेकर आपको आंतरिक उबाल दिखेगा। लोेगों को साफ लग रहा है कि जो कुछ नहीं होना चाहिए था, जिन सबको रोका जा सकता था वही सब हो गया। इसमें सरकार तो नंगी हुई ही, धर्म के नाम पर करोड़ों भक्तों को शांति, संयम, सामाजिक समरसता, अहिंसा और सच्चाई का रास्ता दिखाने का दावा करने वाले बाबा का ऐसा रुप सामने आया जिससे धार्मिक संप्रदायों के प्रति वितृष्णा पैदा होती है। इसलिए यह प्रकरण केवल एक व्यक्ति को सजा होने, या उसके समर्थकों के कुछ घंटों के उत्पात और फिर मजबूरी में की गई पुलिस कार्रवाई मेें मारे गए लोगों तक सीमित नहीं है। इसका आयाम काफी विस्तृत है। धर्म और राजनीति के संबंधों को लेकर इस देश में दो मत रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि धर्म और राजनीति के बीच कोइ्र संबंध नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत गांधी जी ने धर्म को राजनीति की आत्मा कहा और तर्क दिया कि धर्मविहीन राजनीति आत्माविहीन प्राणी के समान है। किंतु गांधी जी यहां सच्चे धर्म की बात करते थे। उनकी कल्पना ऐसी राजनीति की थी जो धर्म के सच्चे मार्ग का अनुसरण करने यानी जो उसका कर्तव्य है उससे कठिन से कठिन अवस्था में भी आबद्ध रहे। यह एक उपयुक्त और स्वीकार्य सद्विचार था।

किंतु जब धर्मसंस्था ही पतन की ओर हो तो क्या किया जाए। हम न भूलें कि डेरा सच्चा सौदा के करोड़ों समर्थक चुनाव आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली में मतदाता भी हैं। गुरमीत राम रहीम उसके प्रमुख होने के कारण सत्ताओं से सीधा वास्ता रखते थे। सभी पार्टियों और सरकारों के साथ उनका रिश्ता रहा है। यह सत्ता तक पहुंच उनको आज तक बचाए रखने में सफल रहा। उनकी जगह कोई दूसरा होता तो न जाने कब जेल पहुंच चुका होता। बलात्कार और यौन शोषण की यदि प्राथमिकी दर्ज हो जाए तो व्यक्ति गिरफ्तार होकर जेल पहुंच जाता है। भले वह बाद में निर्दोष भी साबित हो लेकिन उसे जेल जाना ही पड़ता है। गुरमीत राम रहीम को न्यायालय द्वारा दोषी साबित किए जाने के बाद जेल भेजा गया। धर्मसत्ता की भूमिका समाज को सही दिशा देने की है। समाज जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग राजनीति भी है। धर्मसत्ता और राजसत्ता का संबंध ऐसा हो जहां धर्म राजसत्ता को सही दिशा दे तो ऐसा संबंध देश के लिए कल्याणकारी होता है। हम नहीं कहते कि डेरा सच्चा सौदा का समाज में योगदान नहीं है, या उसने सच्चे धार्मिक कृत्य नहीं किए हैं। किंतु इस प्रकरण में तो उसका भयावह चेहरा सामने आया है। वस्तुतः धर्मसत्ता ही राजसत्ता से अपने संबंधों के मद में आ जाए, उसका आचरण विकृत राजसत्ता की तरह हो जाए तो ऐसा संबंध हर दृष्टि से घातक होता है। यही इस प्रकरण का मूल है। यह तो साफ है कि डेरा सच्चा सौदा के करोड़ों समर्थक हरियाणा से लेकर पंजाब, राजस्थान, हिमाचल आदि में फैले हैं। पार्टियां मतदान के समय उनके यहां वोटों की भीख मांगने जातीं हैं और जब मतदान नहीं हो तो संबंध बनाए रखने की कोशिश करतीं हैं। जब मुख्यमंत्री और मंत्री वहां जाकर हाजिरी लगाएंगे, बाबा के चरण छूएंगे तो प्रशासन में नीचे के अधिकारियों की क्या बिसात की वो उनके खिलाफ कोई कदम उठाए।

तो धर्मसत्ता यानी डेरा सच्चा सौदा तथा राजनीति के इस संबंध ने इतना बड़ा खूनी प्रकरण पैदा कर दिया है। आप देखिए न कोई व्यक्ति आरोपी के रुप में न्यायालय में अपना फैसला सुनने जा रहा है लेकिन गाड़ियों का काफिला देखकर लगता है कि पुराने जमाने का कोई महाराज किसी जश्न या जलसे में जा रहे हों। यह कैसा धार्मिक व्यक्तित्व है! संपत्ति और सत्ता का ऐसा घृणित प्रदर्शन करने वाले को आप धार्मिक व्यक्ति कैसे मान सकते हैं? न्यायालय मंे पहंुचने तक उसके साथ सत्ता का व्यवहार किसी माननीय जैसा रहता है। आखिर हंगामा होने के बाद अतिरिक्त महाधिवक्ता को पद से हटाने को सरकार को विवश होना पड़ा, क्योंकि वो गुरमीत राम रहीम का बैग उठाते देखे गए। पता नहीं और किसने क्या किया होगा। वास्तव में इस प्रकरण में कोई भी देख सकता था कि पूरी हरियाणा सरकार गुरमीत राम रहीम और उनकी डेरा सच्चा सौदा के सामने आत्मसमर्पण किए रही। दोे-तीन दिनों तक तो लगा ही नहीं कि प्रदेश में कोई सरकार भी है। अगर न्यायालय ने फटकार नहीं लगाई होती तो शायद 24 अगस्त की रात्रि में जो दिखावटी कार्रवाई हुई वह भी नहीं होती। देश को धर्म और राजनीति का ऐसा संबंध नहीं चाहिए।

हरियाणा सरकार ने अपने दायित्व का इस मामले में बिल्कुल पालन नहीं किया। सवाल है कि लोग सरकार क्यों चुनते हैं। सरकार की प्राथमिक भूमिका कानून और व्यवस्था बनाए रखने की है। इसके लिए यदि सरकार न्यायालय पर निर्भर हो जाए तो फिर सरकार होने का मतलब क्या है। अगर न्यायालय को ही सारे निर्देश देने हैं तो फिर लोकतंत्र कहां है। हाल के वर्षों में देखा गया है कि सरकारे कठिन समयों में अपरिहार्य कठोर निर्णयों से भी बचने की कोशिश करतीं हैं और उनको न्यायालय के मत्थे छोड़ देती है। तीन तलाक का मसला न्यायालय का मसलना नहीं था। यह संसद का मसला था। किंतु सरकार ने हिम्मत नहीं दिखाई कि इसे संसद में लाकर अवैध घोषित किया जाए। यह स्थिति केन्द्र से लेकर राज्यों तक है। हरियाणा में उच्च न्यायालय के फटकार के बाद सरकार का ठेला गाड़ी की तरह आगे बढ़ना संसदीय लोकतंत्र की दृष्टि से भयावह संकेत हैं। भविष्य में यदि इससे भी कोई कठिन समय आए तो भी सरकार न्यायालय का मुंह ताकेगी? सरकार डेरा सच्चा सौदा को नाराज नहीं करना चाहती थी, क्योंकि उसको वोट कटने का भय था। मनोहर लाल खट्टर की जगह किसी दूसरी पार्टी का मुख्यमंत्री होता तो उसकी भी दशा शायद यही होती। सबको वोट चाहिए। हरियाणा की तीन दर्जन सीटों पर डेरा का प्रभाव है और उनमें से आधा ऐसे हैं जहां डेरा के वोट से ही भाजपा के विधायक जीते हैं। डेरा सच्चा कभी किसी पार्टी को वोट देता है तो कभी किसी को। यही कारण है कि जिन लड़कियों का वहां यौन शोषण हुआ उनके साथ समय पर न्याय नहीं हो सका। जब घटना हुई तो ओम प्रकाश चौटाला की सरकार थी। उसके बाद कांग्रेस की सरकार आई और अब भाजपा की सरकार है। किसी सरकार में जितनी त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए नहीं हुई। पुलिस प्रशासन ने तो मानो गुरमीत राम रहीम के सामने हथियार डाल दिया था। यहां भी न्यायालय की भूमिका ही अग्रणी रही है। यह स्थिति निस्संदेह, उन सब लोगों के लिए आतंकित करने वाली है जो भारत में संसदीय लोकतंत्र के सुखद और स्वस्थ भविष्य की कल्पना करते हैं।

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