वामपंथी पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद देश में जिस प्रकार का वातावरण बनाया गया है, वह आश्चर्यचकित करता है। नि:संदेह हत्या का विरोध किया जाना चाहिए। सामान्य व्यक्ति की हत्या भी सभ्य समाज के माथे पर कलंक है। समवेत स्वर में हत्याओं का विरोध किया जाना चाहिए। लेकिन, गौरी लंकेश की हत्या के बाद उठ रही विरोध की आवाजों से पत्रकार की हत्या के विरुद्ध आक्रोश कम वैचारिक राजनीति का शोर अधिक आ रहा है। आप आगे पढ़े, उससे पहले एक बार फिर दोहरा देता हूं कि सभ्य समाज में हत्याएं कलंक से अधिक कुछ नहीं। हत्या की निंदा ही की जा सकती है और हत्यारों के लिए कड़ी सजा की माँग।
बहरहाल, लंकेश की हत्या के तत्काल बाद, बिना किसी जाँच पड़ताल के किसी राजनीतिक दल और सामाजिक-वैचारिक संगठन को हत्यारा ठहरा देने की प्रवृत्ति को क्या उचित कहा जा सकता है? पत्रकार और लेखक बिरादरी के लोग इस प्रकार के निर्णय देंगे, तब विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही इस बिरादरी के प्रति अविश्वास का वातावरण और अधिक गहराएगा। इस प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप राजनीतिक कार्यकर्ता भी नहीं लगाते। भारत में असहमति के स्तर को हम कितना नीचे ले जाना चाहते हैं? बिना किसी पड़ताल के हम कैसे इस निर्णय पर पहुँच सकते हैं कि गौरी लंकेश की हत्या उनके लिखने-पढ़ने और बोलने के कारण हुई है। क्या हत्या के और कोई कारण नहीं हो सकते? यदि हम लंकेश के भाई को सुने, तब हत्या के दूसरे कारण भी नजर आएंगे। उनके भाई ने तो हत्या में नक्सलियों के शामिल होने का संदेह जताया है।
मीडिया में जिस तरह के शीर्षक (भाजपा विरोधी पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या) से लंकेश की हत्या की खबरें चलाई जा रही हैं, वह यह बताने में काफी हैं कि पत्रकारिता की आड़ में कौन-सा खेल खेला जा रहा है? भला, ‘भाजपा विरोधी पत्रकार’ पत्रकारिता में कोई नयी श्रेणी है क्या? जब संपादक मान रहे हैं कि गौरी लंकेश भाजपा विरोधी थीं, तब वह पत्रकार कहाँ रह गईं? यह तो पक्षकारिता है। उनकी पत्रिका ‘लंकेश पत्रिके’ और सोशल मीडिया पर बयान उनके शब्दों को पढ़कर साफ समझा जा सकता है कि वह भाजपा, आरएसएस और राष्ट्रीय विचारधारा की घोर विरोधी थीं, जबकि कम्युनिस्ट विचारधारा की कट्टर समर्थक थीं। उन्होंने अपने एक ट्वीट में बेहद दु:ख प्रकट किया है- ”कॉमरेड! हमें ‘फेक न्यूज’ और आपस में एक-दूसरे को ‘एक्सपोज’ करने से बचना होगा।” इसी प्रकार एक दूसरे ट्वीट में उन्होंने कहा है- ”मुझे ऐसा क्यों लगता है कि हम आपस में ही लड़ रहे हैं, जबकि हमारा ‘दुश्मन’ हमारे सामने हैं, हमें उस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।” गौरी लंकेश के इन दो ट्वीट से ही उनकी निष्पक्षता और एजेंडा उजागर हो रहा है। उनका एकमेव ध्येय था- किसी भी प्रकार भाजपा-आरएसएस एवं राष्ट्रीय विचारधारा को लांछित करना।
भाजपा के विरुद्ध द्वेषपूर्ण और मानहानिकारक लेखन के लिए गौरी लंकेश को माननीय न्यायालय छह माह के कारावास की सजा भी सुना चुका है। साफ है कि गौरी लंकेश एक एजेंडे के तहत तथ्यहीन खबरें भी अपनी पत्रिका में प्रकाशित करती थीं। अब वही काम उनकी हत्या के बाद उनकी विचारधारा के दूसरे ‘पत्रकार बंधु’ एवं लेखक कर रहे हैं। चूँकि गौरी लंकेश वामपंथ की समर्थक थीं और वह भाजपा-संघ के विरुद्ध द्वेषपूर्ण करती थीं, इसलिए देश में उनकी हत्या पर इस कदर हंगामा मच गया है। देश में पिछले 25 वर्ष में 27 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है, लेकिन ऐसा विरोध कभी हुआ नहीं। अभी तीन वर्षों में ही बड़ी घटनाओं को देखें तो 2015 में उत्तरप्रदेश में पत्रकार जगेंद्र सिंह और मध्यप्रदेश में संदीप कोठारी को जिंदा जला दिया था। वर्ष 2016 में बिहार के राजदेव रंजन और धर्मेंद्र सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी थी। एक भी हत्या विरुद्ध दिल्ली के प्रेस क्लब में मीडिया के स्वनामधन्य पत्रकारों का जुटान हुआ क्या? पत्रकारों की सुरक्षा के लिए क्या इस प्रकार की मुहिम चलाई गई? मतलब साफ है कि यह जो पीड़ा दिख रही है, पत्रकार की हत्या की पीड़ा नहीं है। यह साफतौर पर ‘हत्या पर सियासत’ की नयी परिपाटी है। किसी भी प्रकार के पत्रकारों की चिंता है तब भी हमें गौरी लंकेश की हत्या का जबरदस्त विरोध करना चाहिए था।
हम सबको अपने विरोध से कर्नाटक की कांग्रेस सरकार पर दबाव बनाना चाहिए था कि जल्द से जल्द जाँच अपने अंजाम तक पहुँचे, सीसीटीवी में कैद हत्यारे जल्द सलाखों के पीछे दिखाई दें और हत्या के वास्तविक कारणों का भी खुलासा जल्द हो। किंतु, विरोध में यह तीनों ही प्रमुख माँग अनुपस्थित दिखाई दे रही हैं। गौरी लंकेश की हत्या बेंगलूरू में हुई है। राज्य में कांग्रेस की सरकार है। ऐसे में कर्नाटक की कांग्रेस सरकार को घेरने की जगह हत्या का दोष केंद्र सरकार को देना, किस ओर इशारा करता है?
कर्नाटक में कानून व्यवस्था ठीक नहीं है। गौरी लंकेश की तरह वहाँ भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के साथ ही सरकारी अफसरों की भी हत्याएं हो रही हैं। 14 मार्च, 2017 को बोम्मानहाली म्युनिसिपल काउंसिल के भाजपा सदस्य और दलित नेता श्रीनिवास प्रसाद उर्फ कीथागनहल्ली वासु की बेंगलुरू में हत्या कर दी गई। एक दलित नेता की हत्या पर कहीं कोई बड़ा प्रतिरोध दर्ज नहीं कराया गया, सिर्फ इसलिए क्योंकि श्रीनिवास प्रसाद भाजपा के नेता थे? इसी तरह 22 जून, 2017 को बेल्लारी में दलित नेता और जिला एसटी मोर्चा के अध्यक्ष बांदी रमेश की गुंडों ने हत्या कर दी। 16 अक्टूबर, 2017 को आरएसएस के कार्यकर्ता रुद्रेश की दिन-दहाड़े दो बाइकसवार गुंडों ने हत्या कर दी थी। बीते दो सालों में कर्नाटक में भाजपा, आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के 10 नेताओं की हत्या हुई है। लेकिन, हमारा मीडिया और तथाकथित मानवतावादी वर्ग सोया पड़ा रहा। वह अपनी वैचारिक सियासत के लिए लंकेश की हत्या का इंतजार कर रहा था। यह जो चयनित विरोध और प्रोपोगंडा हो रहा है, वह सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं। समाज स्वयं भी इसका मूल्यांकन कर रहा है। बहरहाल, यदि हम शांति चाहते हैं और लोकतंत्र में वैचारिक असहमतियों को सुरक्षा प्रदान करना चाहते हैं, तब हमें ढोंग बंद करना होगा। वैचारिक हत्याओं के विरोध में जब तक समवेत स्वर बुलंद नहीं होगा, तब तक समाधान नहीं। बाकि, जिनको ‘हत्या पर सियासत’ करनी है, कर ही रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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