जिन्दगी हमसे यही चाहती है कि हम अपने उजाले खुद तय करें और उन पर यकीन रखे। सफल एवं सार्थक जीवन का सबसे बड़ा उजाला है सकारात्मकता। जीवन को खुशियों के उजास से भरना कोई कठिन काम नहीं है, बशर्तें कि हम जिन्दगी की ओर एक विश्वासभरा कदम उठाने के लिये तैयार हो। डेन हेरिस एक सवाल पूछते हैं कि जब ‘खुशी हम सबकी जरूरत है और जिम्मेदारी भी तो क्यों हमारी यह जरूरत पूरी नहीं हो पा रही और क्या वहज है कि हम दुनिया को खुशियों से भर देने की जिम्मेदारी ठीक तरह से नहीं निभा पा रहे हैं?’ इस सवाल के बहुत से उत्तर हो सकते हैं, इसका मुख्य कारण है हमारी स्वयं की नकारात्मकता। हमें बस एक पल ठहरकर अपने भीतर झांकने की कोशिश करनी होगी, तभी मालूम होगा कि हम क्या बिसराए पड़े थे और क्या अनदेखा कर रहे थे। रूमीं ने तो ठीक ही कहा कि ‘जान लेने का मतलब किसी किताब को लफ्ज-दर-लफ्ज रट लेना नहीं, जान लेने का मतलब ये समझ जाना कि तुम क्या नहीं जानते।’ लेकिन समस्या यह है कि सौ में से सतहत्तर लोग जिंदगी को ऐसे जीते हैं, जैसे कोई किराने की दुकान का हिसाब पूरा करता हो। क्योंकि उनको नहीं मालूम कि उन्हें जिंदगी से शांति चाहिए या विश्राम। ईमानदारी चाहिए या पैसा। परोपकार चाहिए या स्वार्थपूर्ति..?
जीवन के फल असीमित है, लेकिन सांसें तो सीमित हैं। इसलिए इसे अंधेरे में खर्च क्यों करें? क्यों दूसरों के विचारों के शोर में अपने अंतस की आवाज को डूबने दें? क्यों चिंता करें कि कल क्या होगा? करें तो बस इतना करें कि एक संकल्प लें विश्वास का, उजास का, कुछ नया करने का, कुछ बड़ा करने का।
जीवन का सबसे महत्वपूर्ण उजाला है सकारात्मकता। दृष्टिकोण जब सकारात्मक बन जाता है तो दुःख, क्षोभ, हताशा, निराशा, अभाव कुछ भी नहीं रह जाता। चित्त और मन आनंद तथा प्रसन्नता से परिपूर्ण रहता है। दुःख और शोक उपजता है नेगेटिव थिंकिंग से। संकल्प के द्वारा हम अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक बनाएं। चेतना पर नकारात्मक भावों की जंग न लगने दें, उस पर आवरण न आने दें। ध्यान के द्वारा, मंत्र-जप के द्वारा चेतना को निर्मल बनाते रहें, साफ करते रहें। अगर ऐसा होता है तो जीवन में कभी दुःख, निराशा और दरिद्रता नहीं आएगी। जीवन पूर्ण समाधि और आनंद के साथ बीतेगा।
मैक्स के अनुसार, ‘संघर्ष चाहे खुद से हो या किसी और से जिंदगी मे ंएक योद्धा की तरह खड़े होने के लिए आत्म-छवि में सुधार सबसे ज्यादा अहम है।’और केवल मैक्स नहीं, दुनिया के सभी मनोवैज्ञानिक इस बात से इत्तिफाक रखते हैं कि ‘संघर्ष के बिना जीवन नहीं, लेकिन इस जीवन संघर्ष में यदि व्यक्ति सकारात्मक सोच रखता है, तो परिणाम भी सकारात्मक हासिल करता है।’ सफलता, असफलता कुछ और नहीं हमारे विचारों का खेल भर है। यर्जुर्वेद में प्रार्थना के स्वर है कि ‘‘देवजन मुझे पवित्र करें, मन से सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करें, विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें, अग्नि मुझे पवित्र करे।’’ पवित्रता की यह कामना हर व्यक्ति के लिए काम्य है। इस पथ पर अविराम गति से वही व्यक्ति आगे बढ़ सकता है, जो चित्त की पवित्रता एवं निर्मलता के प्रति पूर्ण जागरूक हो। निर्मल चित्त ही अध्यात्म की गहराई तक पहुंच सकता है।
स्वामी विवेकानंद कहते है- ‘‘निर्मल हृदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है। इसलिए सारी साधना हृदय को निर्मल करने के लिए ही है। जब वह निर्मल हो जाता है तो सारे सत्य उसी क्षण उसमें प्रतिबिम्बित हो जाते हैं।’ पवित्रता के बिना आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितनी अपवित्र कार्य।’’
सामान्य व्यक्ति इस भाषा में सोच सकता है कि मैं अकारण दूसरों को सहन क्यों करूं? लेकिन एक साधक मानसिक पावित्र्य के कारण गालियों की बौछार एवं प्रतिकूलता में भी यही चिंतन करता है कि परिस्थितियों एवं कष्टों का उपादन मैं स्वयं हूं। अतः बाह्य निमित्तों से अप्रभावित रहना ही साधना की तेजस्विता है। मानसिक निर्मलता के लिए इंसान को हजरत मुहम्मद पैगम्बर की यह शिक्षा सतत स्मृति में रखनी चाहिए- ‘‘अच्छा काम करने की मन में आए तो तुम्हें सोचना चाहिए कि तुम्हारी जिंदगी अगले क्षण समाप्त हो सकती है। अतः काम तुरंत शुरू कर दो। इसके विपरीत अगर बुरे कामों का विचार आए तो सोचो कि मैं अभी वर्षों जीने वाला हूं। बाद में कभी भी उस काम को पूरा कर लूंगा।’’
बर्टेªड रसेल अपने अनुभूत सत्यों की अभिव्यक्ति इस भाषा में देते हैं- ‘‘अपने लम्बे जीवन में मैंने कुछ धु्रव सत्य देखें हैं- पहला यह है कि घृणा, द्वेष और मोह को पल-पल मरना पड़ता है। निरंकुश इच्छाएं चेतना पर हावी होकर जीवन को असंतुलित और दुःखी बना देती है।’’ एक सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति आवश्यकता एवं आकांक्षा में भेदरेखा करना जानता है। इसलिए इच्छाएं उसे गलत दिशा में प्रवृत्त नहीं होने देतीं।’’
मानसिक निर्मलता सधने के बाद व्यक्ति चाहे एकांत में रहे या समूह में, चित्र देखे या प्रवचन सुने, मनोनुकूल भोजन पाए या रूखा-सूखा, वैभव में रहे या अभाव में, सत्ता में रहे या सत्ताच्युत- कोई भी स्थिति उसके मन में विक्षेप पैदा नहीं कर सकती। वह अपनी मानसिक पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखता है। वह पवित्रता कर्म को भी सदैव पवित्र रखती है, क्योंकि विचार आचार को प्रभावित करता है और आचार विचार बनता है। अतः बुरे विचारों से आक्रान्त होकर अपने आदर्शों को छोड़ना सबसे बड़ी कमजोरी है
।
भगवान महावीर ने इन्हीं रास्तों पर चलकर अपना सफर तय किया वे जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने जीवनभर अनगिनत संघर्षों को झेला, कष्टों को सहा, दुःख में से सुख खोजा और कृतकर्मों का भुगतान कर सत्य तक पहुंचे। वे हमारे लिए आदर्शों की ऊंची मीनार बन गए। उन्होंने समझ दी कि महानता कभी भौतिक पदार्थों की तुला पर नहीं तुलती, उसके लिए सच्चाई के साथ जीए गए अनुभवों के बटखरे चाहिए।
हम जिसकी आकांक्षा करते हैं और जिसे पाने के लिए अंतिम सांस तक मृगछौने की तरह भटकते हैं, महापुरुष उन्हें बोझ समझकर छोड़ देते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि परिग्रही चेतना का अंतिम परिणाम दुःख-परम्परा का हेतु है।
जेफ ओल्सन की किताब ‘द स्लाइट एज’ में खुशी की तलाश का एक पूरा दर्शन छिपा है। ओल्सन का कहना है कि हर दिन तुम जो भी करते हो, उसमें बहुत कुछ निरर्थक लगता है, लेकिन जीवन में हर छोटी से छोटी बात का अर्थ होता है। आज तुम्हारे पास एक सिक्का है। अगर वो हर दिन दोगुना होता रहे, तो कुछ ही समय में वह बढ़ते-बढ़ते लाखों में तब्दील हो जाएगा। इसी तरह यदि तुम हर दिन एक दिशा में दोगुना न सही एक प्रतिशत भी बढ़ते रहो, तो एक साल में तुम खुद को तीन सौ पैंसठ गुना ज्यादा बेहतर स्थिति में पाओगे। हर बीतता हुआ क्षण तुम्हें, बेहतर बनने का अवसर दे रहा है, बशर्ते तुम होना चाहिए। लेकिन हम बहुत बार अपने द्वारा लिए गए निर्णय, संजोए गए सपने और स्वीकृत प्रतिज्ञा से स्खलित हो जाते हैं, क्योंकि हम औरों जैसा बनना और होना चाहते हैं। हम भूल जाते हैं कि औरों जैसा बनने मंे प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, दुःख, अशांति व तनाव के सिवाय कुछ नहीं मिलने वाला है। इसीलिए महापुरुष सिर्फ अपने जैसा बनाना चाहते हैं। और यही वस्तु का सच्चा स्वभाव है- आवृत्त चेतना के अनावरण का शुभ संकेत।
हमारी गलती यह है कि हम अपनी हर अनगढ़ता, हर अपूर्णता के लिए दुनिया को जिम्मेवार ठहराते हैं और अपनी छैनी-हथौड़ी लेकर उसकी काट-तराश में जुट जाते हैं। जबकि साक्षी भाव से देखें, तो दर्शन हो या विज्ञान सबका कहना यही है कि बाहर कुछ भी नहीं.. हमारी तमाम यात्राएं हमसे आरंभ होकर हम पर ही खत्म होती हैं। जैसे हम आसमान में सूरज और चांद को एक साथ नहीं देख पाते। उसी तरह हम नहीं देख पाते कि हमारी हर कहानी की पूर्णता हमारे भीतर लिखी थी। हमारे हर गीत की धुन, हमारे भीतर तैर रही थी और हमारे हर सवाल का उत्तर हमारे भीतर मौजूद था। हम उस समय बहुत बौने बन जाते हैं जब सुख-दुःख के परिणामों का जिम्मेदार ईश्वर को या अन्य किन्हीं निमित्तों को मान बैठते हैं। स्वयं की सुरक्षा में औरों की दोषी ठहराकर कुछ समय के लिए बचा जा सकता है किन्तु सचाई यह है कि हर प्राणी स्वयं सुख-दुःख का कत्र्ता, भोक्ता और संहर्ता है। तभी तो जिन महान् लोगों के लक्ष्य बड़े होते हैं, वे कर्म-क्षेत्र से भागते नहीं, वे पुरुषार्थ और विवेक के हाथों से कर्म की भाग्यलिपि बदलते हैं।
हमारा मन बहुत होशियार है। हम जब औरों के बीच अपनी योग्यता से व्यक्तित्व को नयी पहचान नहीं दे सकते, तब हमारा आहत मन दूसरों की बुराइयों को देख खुश होता है ताकि स्वयं की कुरूपताएं उसे सामान्य-सी नजर आएं। जिन लोगों के सपने बड़े होते हैं वे न अपनी गलती को नजरन्दाज करते हैं और न औरों की गलतियों को प्रोत्साहन देते हैं, क्योंकि चिनगारी भले ही छोटी क्यों न हो, आग बन जला सकती है।
चाक पर मिट्टी को आकार देते हुए, नदी में जाल डालते हुए, जंग के मैदान में तलवार चलाते हुए या गुरु के सम्मुख बैठ किताबों की गंध महसूस करते हुए हम सुख, संतुष्टि और सत्य को किसी भी क्षण, किसी भी रास्ते से पा सकते हंै। बस हमारी तलाश की दिशा सकारात्मक होनी चाहिए। लेकिन हम विकास की ऊंचाइयों को छूते-छूते पिछड़ जाते हैं, क्योंकि हमारी सोच अंधविश्वासों, अर्थशून्य परम्पराओं, भ्रान्त धारणाओं और सैद्धान्तिक आग्रहों से बंधी होती है पर सफलता का इतिहास रचने वाले लोग कहीं किसी से बंधकर नहीं चलते, क्योंकि बंधा व्यक्तित्व उधारा, अमौलिक और जूठा जीवन जी सकता है किन्तु अपनी जिन्दगी में कभी क्रांतिकारी मौलिक पथ नहीं अपना सकता जबकि महानता का दूसरा नाम मौलिकता है। एक सबक हमेशा गांठ बांधकर रखें कि खेल छोड़ देने वाला कभी नहीं जीतता और जीतने वाला कभी खेल नहीं छोड़ता। यदि बड़े काम नहीं कर सकते, तो छोटे काम बड़े ढंग से करो।
(ललित गर्ग)
60, मौसम विहार, तीसरा माला, डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-110051
फोनः 22727486, 9811051133