तकनीकी रणनीतिकार सत्य शंकरन हफ्ते में दो दिन साइकल चलाते हुए अपने दफ्तर तक जाते हैं। उनके घर से दफ्तर की दूरी करीब 20 किलोमीटर है और इस तरह वह आने-जाने में 40 किलोमीटर का सफर साइकल से ही तय करते हैं। उत्तर बेंगलूरु से दक्षिण बेंगलूरु तक के अपने सफर में वह शहर की कई व्यस्त सड़कों से होकर गुजरते हैं। लेकिन कार के बजाय साइकल से जाने पर वह कम-से-कम एक घंटे का समय बचा लेते हैं। शंकरन को अब साइक्लिंग करना इस कदर रास आने लगा है कि वह इसके मुरीद बन चुके हैं। वह कहते हैं, ‘साइकल एक तरह से हमारे शरीर का ही हिस्सा बन जाती है। इससे हमें काफी लचीलापन मिल जाता है।’
शंकरन नागरिकों के उस बढ़ते समूह का हिस्सा हैं जो शहरों में आवागमन के लिए साइकल का इस्तेमाल करना चाहते हैं। अब शहरों में ऐसे लोगों की तादाद बढऩे लगी है जो भीड़भाड़ वाले ट्रैफिक में कार, बस या ऑटो से परहेज करने लगे हैं। साइकल के किफायती होने से भी लोग इसे पसंद कर रहे हैं। आखिर साइकल में पेट्रोल या डीजल का खर्च तो है नहीं। इसके लिए तो बस हाथ और पैरों की ताकत की जरूरत होती है।
साइकल के प्रति बढ़ते रुझान को देखते हुए कर्नाटक सरकार ने बेंगलूरु में 6000 साइकिलों का एक सार्वजनिक पूल बनाने का ऐलान किया है। लोग इन साइकिलों का मिलजुलकर इस्तेमाल कर सकते हैं। मैसूर में भी 450 साइकिलों की एक जन साझेदारी योजना ट्रिन-ट्रिन शुरू की जा चुकी है। निजी क्षेत्र की परिवहन कंपनी जूमकार ने साइकल के साझा इस्तेमाल के बाजार में अपना हाथ आजमाने का फैसला किया है। देश भर में किराये पर कार देने की सेवा देने वाली जूमकार ने अब बेंगलूरु के अलावा चेन्नई और कोलकाता में किराये पर साइकल मुहैया कराना शुरू कर दिया है। इन तीनों शहरों में वह करीब 3,000 साइकिलों के जरिये अपनी सेवा दे रही है।
जूमकार के सह-संस्थापक और मुख्य कार्याधिकारी ग्रेग मोरेन के मुताबिक आने वाले दिनों में देश भर में 10,000 अन्य साइकिलें भी अपने बेड़े में शामिल करने की योजना है। किराये पर साइकल मुहैया कराने के लिए कंपनी ने पेडल नाम से एक अलग इकाई भी बनाई है। मोरेन ने कहा, ‘एक आम शहरी उपभोक्ता के नजरिये से देखें तो चार-पांच किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए दोपहिये से बेहतर कुछ नहीं होता है। इतनी कम दूर जाने के लिए बस का इस्तेमाल आकर्षक नहीं है जबकि ऑटो लेना जेब पर भारी पड़ता है। ऐसे में साइकल हमारे लिए काफी उपयोगी हो जाती है।’ उन्हें उम्मीद है कि नवंबर महीने के अंत तक पेडल के उपभोक्ताओं की संख्या एक लाख तक पहुंच जाएगी।
वल्र्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट इंडिया के संवहनीय शहर कार्यक्रम निदेशक (परिवहन) अमित भट्ट कहते हैं कि दुनिया भर में करीब 500 शहरों में छोटी दूरियों के लिए साइकिल-साझेदारी योजना आजमाई जा रही है। वह कहते हैं, ‘एक शहरी परिवहन साधन के तौर पर साइक्लिंग की तरफ वैश्विक रुझान बढ़ा है और इस बात ने उद्यमियों को भी इस ओर आकर्षित किया है।’
कर्नाटक के शहरी सड़क परिवहन निदेशालय में आयुक्त दर्पण जैन का मानना है कि शहरों में साइक्लिंग को बढ़ावा देने के लिए मुख्य इलाकों की पहचान करना काफी अहम है। इसके अलावा साइकिलों को स्मार्ट कार्ड और क्यूआर कोड-आधारित करना भी जरूरी होगा। गत जून में मैसूर में शुरू हुआ ट्रिन-ट्रिन प्रोजेक्ट धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रहा है। पेडल की किराये पर साइकल मुहैया कराने की सेवा भी अगले साल तक देश के अन्य शहरों में शुरू होने जा रही है। लेकिन चीन की कंपनी ओफो भी भारत में साइकल सेवा शुरू करने की तैयारी कर रही है।
लेकिन कारोबार जगत की संलिप्तता बढऩे से साइक्लिंग से जुड़ा एक सवाल मुखर रूप से उठने लगा है। क्या भारत की सड़कें साइकल चालकों के लिए सुरक्षित हैं? द एनर्जी ऐंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सड़क हादसे में मरने वाले साइकल चालकों की संख्या बढ़ती जा रही है। वर्ष 2009 में जहां 5,443 लोग साइकल चलाते समय सड़क हादसों के शिकार हो गए थे वहीं वर्ष 2012 में 6,600 साइकल चालक मारे गए। वहीं सेंटर फॉर साइंस ऐंड इनवायरमेंट (सीएसई) ने 2014 की रिपोर्ट में कहा था कि अकेले दिल्ली में ही हरेक हफ्ते दो साइकल चालक और कार सवार हादसे में मारे जाते हैं। केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वाहनों की अत्यधिक संख्या वाले शहरों- दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और बेंगलूरु में सबसे ज्यादा साइकल चालक हादसों के शिकार होते हैं।
भट्ट साइकल चालकों की सुरक्षा को अहम मुद्दे के तौर पर स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं, ‘शहरों में सुरक्षा को लेकर कोई दो-राय नहीं हो सकती है। लोगों को शहरों में साइकल इस्तेमाल से दूर करने वाली सबसे बड़ी वजह इसका असुरक्षित होना ही है। लोग यह सोच सकते हैं कि साइक्लिंग के लिए ढांचागत सुधार होने पर ही वे शहरों में साइकल चलाना शुरू करेंगे। लेकिन वैश्विक अनुभव यही बताता है कि एक बार शहरों में साइकल चालकों की संख्या बढ़ते ही वहां पर सुरक्षा संबंधी हालात बेहतर होने लगते हैं। यह असमंजस की स्थिति है लेकिन हमें शुरुआत तो करनी ही होगी।’
शंकरन कहते हैं कि सड़कों पर साइकिलों की भरमार करना एक अच्छा कदम होगा लेकिन सुरक्षा का मसला तो बना ही रहेगा। शंकरन कहते हैं, ‘मैं सड़कों पर खुद को तो सुरक्षित महसूस कर सकता हूं लेकिन बच्चों को सुरक्षित नहीं मानूंगा। हर समय सड़क हादसे होते रहते हैं लिहाजा हमें एयर बैग जैसे सुरक्षा उपायों को अपनाने पर गौर करना होगा। लेकिन साइकिलों में ऐसे सुरक्षात्मक उपाय तो होते नहीं हैं।’
गैर-सरकारी संगठन ‘सिटिजंस फॉर सस्टेनेबिलिटी’ के सदस्य शंकरन कहते हैं कि इन सुरक्षात्मक समस्याओं के चलते बहुत लोग साइकल पर पैसे नहीं खर्च करना चाहते हैं लेकिन ट्रिन-ट्रिन परियोजना ऐसे लोगों का ध्यान रख रही है। अब साइकल चालकों के लिए ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने की जरूत है।
भट्ट का मानना है कि एम्सटर्डम ने 30-40 साल पहले ही साइक्लिंग को बढ़ावा देकर एकदम सही कदम उठाया था। वह कहते हैं, ‘न्यूयॉर्क शहर में भी पिछले सात-आठ वर्षों में साइकिलों का इस्तेमाल करने वालों की संख्या करीब आठ गुनी हो चुकी है। इस बढ़ोतरी में किराये पर साइकल मिलने की व्यवस्था का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा साइक्लिंग के लिए मददगार ढांचा होने से भी इसे बढ़ावा मिला है।’
बहरहाल भारत में भी अब साइकल के प्रति शहरी निवासियों का रुझान बढऩे लगा है। मैसूर के अलावा भोपाल में भी साइकिलों के लिए खास लेन बनाने का काम शुरू हो चुका है। दर्पण जैन कहते हैं, ‘बेंगलूरु में भी राज्य सरकार उन इलाकों की पहचान कर रही है जहां साइकिलों को अन्य परिवहन साधनों से अलग रखना है। हम साइकल लेन और अन्य ढांचागत आधार तैयार करने में लगे हुए हैं।’
यह अलग बात है कि चंडीगढ़ जैसे जिन शहरों में पहले से साइकल ट्रैक मौजूद हैं वहां पर भी लोग इनका इस्तेमाल करने से परहेज ही करते हैं। अगर रोटी, कपड़ा और मकान बुनियादी जरूरतें हैं तो गाड़ी के मामले में लोग अपनी हैसियत से आगे जाकर काम करते हैं और पैसे एवं रसूख का रौब डालने के लिए महंगी गाडिय़ां चलाते हैं। भट्ट का कहना है कि साइक्लिंग के प्रोत्साहन का एक तरीका इसके साथ जुड़ी भ्रांतियों को दूर करना होगा। वह कहते हैं, ‘लोगों के बीच यह धारणा है कि साइकल केवल गरीब लोग ही चलाते हैं। ऐसे में हमें मध्यवर्ग के अधिक लोगों को साइकल का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करना होगा।’
साइकल चालकों के लिए शहर के सुरक्षित मार्गों की पहचान करना भी जरूरी होगा। मोरेन कहते हैं कि सुरक्षित मार्गों की पहचान करने के लिए पीईडीएल तकनीक का इस्तेमाल करेगा। आने वाले दिनों में उपभोक्ता-आधारित तकनीकें विकसित की जाएंगी। उनका कहना है, ‘हमें पता है कि भारी भीड़ वाले इलाकों में साइकल चालकों को काफी परेशानी होगी। ऐसे में हम ऐसी तकनीक पर काम कर रहे हैं जो इन चालकों को कम भीड़ वाले वैकल्पिक रास्तों के बारे में बता सके।’
कुछ लोगों का कहना है कि मोटरसाइकल चलाने वाले लोगों की तरह साइकल चालकों को भी हेलमेट जैसे सुरक्षा उपकरण इस्तेमाल करने चाहिए। शंकरन कहते हैं, ‘मैं साइकल चलाते समय साइक्लिंग हेलमेट पहनता हूं। इससे मुझे थोड़ा सुरक्षित महसूस होता है लेकिन पूरी तरह सुरक्षित तो यह भी नहीं है। गाडियां और कारें चलाने वालों को भी जिम्मेदार होना होगा। साइक्लिंग हेलमेट के महंगे होने से भी हर कोई इसका खर्च नहीं उठा सकता है।’ चंडीगढ़ के उदाहरण से हम शहरों में साइकल चालकों की जान पर बने जोखिम का बेहतर अंदाजा लगा सकते हैं। इस शहर में साइक्लिंग ट्रैक और बेहतर पुलिस व्यवस्था के बावजूद 2010 से लेकर 2016 के बीच 240 साइकल चालकों की हादसों में मौत हो चुकी है।
साइक्लिंग सुविधाओं को बेहतर करने में जुटे भारत को चीन के अनुभव से कुछ सबक भी सीखने की जरूरत है। चीन में करीब एक अरब डॉलर मूल्य का साइकल साझेदारी बाजार है। लेकिन शहरों में इन साइकिलों को रखने के लिए समुचित डॉकिंग स्टेशन नहीं होने से ये इधर-उधर पड़ी रहती हैं। इसके चलते पेइचिंग और शांघाई में तो साझा करने के लिए नई साइकिलों को शामिल करने पर रोक ही लगा दी गई है। जूमकार के मोरेन कहते हैं कि चीन की गलती भारत को नहीं दोहरानी होगी। पहले तो चीन ने शेयरिंग वाली साइकिलों को कहीं पर भी खड़ा करने की छूट दे दी लेकिन जब इससे अव्यवस्था की स्थिति बनने लगी तो चीन सरकार की नींद टूटी।
बहरहाल साइकल के इस्तेमाल को बढ़ावा देना एक और वजह से फायदेमंद है। हमें ध्यान रखना होगा कि दुनिया के शीर्ष 20 में से 13 सर्वाधिक प्रदूषित शहर भारत में ही हैं। इसके अलावा दुनिया भर के दमा रोगियों की 10 फीसदी संख्या भारत में ही है। ऐसी स्थिति में अगर भारतीय शहरों में अत्यधिक साइकिलों की भरमार जैसी समस्या खड़ी भी होती है तो उसका मतलब यही होगा कि प्रदूषण के मोर्चे पर हमें कुछ राहत मिलेगी। अपने आप में यह एक बढिय़ा सोच है लेकिन सड़कों पर केवल साइकिलों की संख्या बढ़ा देना ही काफी नहीं होगा। बेहतर ढांचा बनाने के साथ ही साइकल उपयोग के प्रति अपनी सोच भी बदलनी होगी।
साभार- http://hindi.business-standard.com/ से