गुजरात में 9 और 14 तारीख को होने वाले विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं और जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, राजनीतिक दलों की आक्रामकता बढ़ती जा रही है। नोटबंदी और जीएसटी के नेगेटिव पक्ष को छोड़कर कांग्रेस के पास कोई मुद्दा ही नहीं है। भाजपा भी मुद्दाविहीन दिखाई दे रही है। ऐसे में जनता को भ्रमित करने के लिए उसका शीर्ष नेतृत्व अनाप-शनाप बयानबाजी कर रहा है। चुनाव में जनता से जुड़े एवं कतिमय बड़े मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए थी। लेकिन, अब तक के चुनाव प्रचार से इतना तो साफ हो गया है कि यह चुनाव मुद्दाविहीन चुनाव है। इस चुनाव में जनता की समस्याओं, मसलन, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, पानी, बिजली आदि पर कोई बात नहीं की जा रही है। आदिवासी समस्याएं, गुजरात चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए, लेकिन ऐसा न होना भी इन चुनावों की सबसे बड़ी विडम्बना है।
कांग्रेस हो या भाजपा और अन्य दलों ने इस महत्वपूर्ण मुद्दें को तवज्जों न देकर राजनीतिक अपरिपक्वता का ही परिचय दिया है। आरक्षण, दलित उत्पीड़न जैसे मुद्दों को कांग्रेस भुनाना चाहती है लेकिन आदिवासी जनता की समस्या पर कोई ठोस वादा किसी भी पार्टी की तरफ से होता नहीं दिख रहा है। जबकि गुजरात के राजनीतिक मस्तक पर ये ही आदिवासी तिलक करते रहे हैं। लेकिन कोई भी दल इस बात को स्वीकार नहीं कर रहा है। क्या यह सोची-समझी रणनीति है या आदिवासी समाज की उपेक्षा? इस बार गुजरात के इन चुनावों में आदिवासी लोगों के प्रति उदासीनता के कारण भी ये चुनाव भाजपा के लिये लोहे के चने चबाने जैसे साबित हो रहे हैं।
आजादी के सात दशक बाद भी गुजरात के आदिवासी उपेक्षित, शोषित और पीड़ित नजर आते हैं। राजनीतिक पार्टियाँ और नेता आदिवासियों के उत्थान की बात करते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं करते। आज इन क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वरोजगार एवं विकास का जो वातावरण निर्मित होना चाहिए, वैसा नहीं हो पा रहा है, इस पर कोई ठोस आश्वासन इन चुनावों में मिलना चाहिए, वह भी मिलता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। अक्सर आदिवासियों की अनदेखी कर तात्कालिक राजनीतिक लाभ लेने वाली बातों को हवा देना एक परम्परा बन गयी है। इस परम्परा को बदले बिना देश को वास्तविक उन्नति की ओर अग्रसर नहीं किया जा सकता। देश के विकास में आदिवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका है और इस भूमिका को सही अर्थाें में स्वीकार करना वर्तमान की बड़ी जरूरत है और इसके लिए चुनाव का समय निर्णायक होता है।
गुजरात में अभी भी आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवनयापन कर रहे हैं। जबकि केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी 7 दशक में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएँ, पीने का साफ पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं। आखिर चुनाव का समय इन स्थितियों में बदलाव का निर्णायक दौर होता है, लेकिन इनकी उपेक्षा चुनाव की पृष्ठभूमि को ही धुंधला रही है।
गुजरात को हम भले ही समृद्ध एवं विकसित राज्य की श्रेणी में शामिल कर लें, लेकिन यहां आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं। इसका फायदा उठाकर मध्यप्रदेश से सटे नक्सली उन्हें अपने से जोड़ लेते हैं। सरकार आदिवासियों को लाभ पहुँचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना ही योजना बना लेती हैं। ऐसी योजनाओं का आदिवासियों को लाभ नहीं होता, अलबत्ता योजना बनाने वाले जरूर फायदे में रहते हैं। महँगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं खरीद पा रहे हैं। वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। अतः गुजरात की बहुसंख्य आबादी आदिवासियों पर विशेष ध्यान देना होगा।
समग्र देश के आदिवासी समुदाय का नेतृत्व करने वाले गुजरात के आदिवासी समुदाय के प्रेरणापुरुष गणि राजेन्द्र विजयजी पर पिछले दिनों जिस तरह की आक्रामक एवं अराजक घटनाएं हुई हैं और उसके बावजूद उनकी सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम न होना भी गुजरात के आदिवासी समुदाय की नाराजगी का कारण बना है। इस स्थिति का भी इन चुनावों पर नकारात्मक असर होगा। गणि राजेन्द्र विजयजी ने गलत आधार पर गैर-आदिवासी को आदिवासी सूची में शामिल किये जाने एवं उन्हें लाभ पहुंचाने की वर्तमान एवं पूर्व सरकारों की नीतियों का विरोध किया। सन् 1956 से लेकर 2017 तक के समय में सौराष्ट्र के गिर, वरड़ा, आलेच के जंगलों में रहने वाले भरवाड़, चारण, रबारी एवं सिद्धि मुस्लिमों को इनके संगठनों के दवाब में आकर गलत तरीकों से आदिवासी बनाकर उन्हें आदिवासी जाति के प्रमाण-पत्र दिये जाने की घटना को लेकर गणि राजेन्द्र विजयजी ने आन्दोलन शुरु किया। उनका मानना है कि यह पूरी प्रक्रिया बिल्कुल गलत, असंवैधानिक एवं गैर आदिवासी जातियों को लाभ पहुंचाने की कुचेष्टा है, जिससे मूल आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो रहा है, उन्हें नौकरियों एवं अन्य सुविधाओं से वंचित होना पर रहा है। यह मूल आदिवासी समुदाय के साथ अन्याय है और उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित करना है। पिछले 60 वर्षों से चला आ रहा मूल आदिवासी जाति के अधिकारों के जबरन हथियाने और उनके नाम पर दूसरी जातियों को लाभ पहुंचाने की अलोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को तत्काल रोका जाना आवश्यक है अन्यथा इन स्थितियों के कारण आदिवासी जनजीवन में पनप रहा आक्रोश एवं विरोध विस्फोटक स्थिति में पहुंच सकता है। गणि राजेन्द्र विजयजी न केवल गुजरात बल्कि देश में सर्वत्र आदिवासी समुदाय को उनके अधिकार दिलाने एवं उनके जीवन के उन्नत बनाने के लिये प्रयासरत है। ऐसे कार्यों की सराहना की बजाय विरोध एवं विध्वंस झेलना पड़े, यह लोकतंत्र के लिये शर्मनाक है।
अब जबकि गणि राजेन्द्र विजयजी के प्रयासों से आदिवासी क्षेत्र में शिक्षा को लेकर भी जागृति का माहौल बना है। उनका मानना है कि सरकार के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों को इस दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बनानी चाहिए। जैसाकि छोटा उदयपुर में उनके स्वयं के नेतृत्व में सुखी परिवार फाउंडेशन के द्वारा बालिका शिक्षा एवं शिक्षा की दृष्टि से एक अभिनव क्रांति घटित हुई है। लेकिन आदिवासी समुदाय की शिक्षा राज्य एवं केन्द्र सरकार के लिए एक चुनौती का प्रश्न है। आदिवासी समुदाय में शिक्षा के स्तर को बढ़ाना एवं इसे सुनिश्चित करना जरूरी है। यह एक ऐसी समस्या है जिसका समाधान हमें समग्रता से ढूंढना होगा। इसके लिए जरूरी है कि पहले हम उन समस्याओं को सुलझाएं जिनके कारण आदिवासी बच्चों का स्कूलों में ठहराव नहीं हो पा रहा है, उनका नामांकन नहीं हो पा रहा, पाठशाला से बाहर होने की दर, खासकर लड़कियों में लगातार बढ़ती जा रही है। बच्चे घरों में, होटलों या ढाबों पर या खेतों के काम कर रहे हैं। कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका हल हमें समस्या की जड़ तक ले जाएगा। इससे निपटने के लिए समाज, राज्य एवं केन्द्र को सघन प्रयास करने होंगे और ये इन चुनावों में ये मुद्दें उठने चाहिए थे, ऐसा न होना राजनीतिक दलों की सोच एवं मंशा पर सवाल खड़े करती है।
हमें यह समझना होगा कि एक मात्र शिक्षा की जागृति से ही आदिवासियों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आएगा। बदलाव के लिए जरूरत है उनकी कुछ मूल समस्याओं के हल ढूंढना। भारत के जंगल समृद्ध हैं, आर्थिक रूप से और पर्यावरण की दृष्टि से भी। देश के जंगलों की कीमत खरबों रुपये आंकी गई है। ये भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से तो कम है लेकिन कनाडा, मेक्सिको और रूस जैसे देशों के सकल उत्पाद से ज्यादा है। इसके बावजूद यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन में आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाये खड़ी रहती हैं। आदिवासियों की विडंबना यह है कि जंगलों के औद्योगिक इस्तेमाल से सरकार का खजाना तो भरता है लेकिन इस आमदनी के इस्तेमाल में स्थानीय आदिवासी समुदायों की भागीदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है।
जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने आदिवासियों को जंगलों से दूर किया है। आर्थिक जरूरतों की वजह से आदिवासी जनजातियों के एक वर्ग को शहरों का रुख करना पड़ा है। विस्थापन और पलायन ने आदिवासी संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और संस्कार को बहुत हद तक प्रभावित किया है। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चलते आज का विस्थापित आदिवासी समाज, खासतौर पर उसकी नई पीढ़ी, अपनी संस्कृति से लगातार दूर होती जा रही है। आधुनिक शहरी संस्कृति के संपर्क ने आदिवासी युवाओं को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां वे न तो अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही पूरी तरह मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आदिवासी काॅर्निवल में आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं की और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं। लेकिन इन चुनावों में उनके द्वारा आदिवासी समुदायों के समग्र विकास की चर्चा न होना, आश्चर्यकारी है। क्योंकि आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देश व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतन्त्र नागरिकों को बहुत गम्भीरता से सोचना चाहिए। और इस बार के गुजरात चुनाव इसकी एक सार्थक पहल बनकर प्रस्तुत हो, यह अपेक्षित है। प्रेषक
(ललित गर्ग)
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