कोई इंसान कितना जुनूनी हो सकता है और अपने जुनून के लिए जीवन के पूरे तीस साल दाँव पर लगा दे उसका साक्षात उदाहरण है एकात्म मानव अनुसंधान एवँ विकास प्रतिष्ठान के डॉ. महेश शर्मा। पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. महेश शर्मा ने तीस साल के अनथक प्रयासों के बाद पं. दीनदयाल उपाध्याय के शताब्दी वर्ष में स्वर्गीय दीनदयाल उपाध्याय वाङ्मय के 15 खंडों में प्रकाशित कर एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज इस देश को दिया है जिसमें पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अपने समकालीन भारत से लेकर आने वाले दौर में भारत के समक्ष चुनौती बनकर खड़े रहने वाले खतरों से आगाह किया था। एकात्म मानवतावाद का सिद्धांत देने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय को सामाजिक-राजनैतिक दर्शन के लिए जाना जाता है। इस संपूर्ण खंड का प्रकाशन प्रभात प्रकाशन किया है।
पंद्रह संस्करण वाले इस संग्रह में पंडित उपाध्याय के जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों, जनसंघ की यात्रा, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, ताशकंद समझौते और गोवा की स्वतंत्रता जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया गया है।
खचाखच भरे सभा मुंबई के बिड़ला मातुश्री सभागार में इस वाङ्मय का विमोचन गोआ की राज्यपाल विदुषी श्रीमती मृदुला सिन्हा, परमपूज्य स्वामी श्री गोविन्ददेव गिरीजी की उपस्थिति में संपन्न हुआ। इस संपूर्ण वाङ्मय की कल्पना ही अपने आप में रोमांचित करने वाली तो है ही, यह जानकर भी हैरानी होती है कि दीनदयाल उपाध्याय के जीवनकाल से लेकर उनसे जुड़े हर व्यक्ति से मिलकर, उनके छोटे से छोटे संस्मरण, उनके जीवन की हर घटना, उनके उपलब्ध हर वक्तव्य, लेखों, पत्र-व्यवहार से लेकर तमाम ऐसी घटनाओँ और किस्से कहानियों को इतने सुरुचिपूर्ण तरीके से समेटा गया है कि ये वाङ्मय भारत के अतीत और भविष्य का एक सशक्त दस्तावेज बन गया है।
श्रीमती मृदुला सिन्हा ने कहा कि पं. दीनदयालजी ने एक शब्द दिया था चित्ती-जिसका मतलब होता है चैतन्य सत्ता। ये शब्द उन्होंने उपनिषदों से लिया था। मैं उनके इस शब्द और उनके द्वारा इसकी जो व्याख्या प्रस्तुत की गई थी मैं उससे इतनी प्रभावित हुई कि मेरी पोती का जन्म होने पर मैने उसका नाम चित्ती रख दिया। उन्होंने कहा कि पं. दीनदयाल जी ने अपने जीवन में जो एकात्म मानववाद का दर्शन दिया है वह अब भारत में ही नहीं बल्कि विश्व भर में वैचारिक क्रांति का आधार बनेगा। श्रीमती सिन्हा ने कहा कि ये सोचकर ही आश्चर्य होता है कि महेश शर्मा जी ने इन 15 खंडों के प्रकाशन मे 30 साल खपा दिए और एक ऐसी धरोहर को सुरक्षित कर लिया कि आने वाली पीढियाँ हम पर गौरव महसूस करेगी।
इस अवसर पर परमपूज्य स्वामी गोविंददेव गिरिजी ने कहा कि जब 1947 में हमारा देश आजाद हो गया तब भी गोआ पुर्तगालियों के और पांडिचेरी फ्रांस के कब्जे में था, पं. दीनदयाल जी ने गोआ मुक्ति आंदोलन के माध्यम से तो महर्षि अरविंद ने पांडिचेरी को लेकर पूरे देश को जगाया। ये उनकी दूरदृष्टि ही थी कि पांडिचेरी और गोआ को भी हम विदेशियों के कब्जे से मुक्त करा सके। उन्होंने कहा कि उनके नेतृत्व में भारतीय जनसंघ सत्तारुढ़ कांग्रेस के सामने एक सशक्त राष्ट्रीय दल और विपक्ष के रूप में खड़ा हुआ और आज यह भारतीय जनता पार्टी के रूप में सत्ता में है।
श्री महेश चन्द्र शर्मा ने कहा कि दीनदयाल जी के विचारों को अंग्रेजी के शब्द इज़्म और हिंदी शब्द वाद से नहीं समझा जा सकता। दीनदयाल जी की पूरी सोच भारतीय दर्शन वसुधैव कुटुंबकम का चिंतन है।
इस अवसर पर समारोह के आयोजक हेमा फाउंडेशन के श्री महेन्द्र काबरा ने कहा कि हेमा फाउंडेशन द्वारा बच्चों में शिक्षा, संस्कृति, नैतिक मूल्यों के विकास हेतु कार्य किया जा रहा है।
समारोह के शुभारंभ पर हेमा फाउंडेशन द्वारा पं. दीनदयाल उपाध्याय पर बनाए गए वृत्त चित्र का भी प्रदर्शन किया गया।
समारोह में हेमा फाउंडेशन के मार्गदर्शक श्री राम रत्न काबरा और प्भीरभात प्रकाशन के श्री प्रभात कुमार भी उपस्थित थे।
पं. दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानवदर्शन’ के बारे मॆं
क्या बाजारवाद (पूँजीवाद) तथा राज्यवाद (साम्यवाद) विचारधाराएँ आधुनिक मानव को भीतरी सुख दिला सकती हैं? क्या इस देश के करोड़ों लोग पश्चिमी अवधारणाओं के अनुसार ही जीवन जीने को अभिशप्त हैं? क्या भारत की प्रजा के पास इसका कोई समाधान नहीं है? भारत के एक युगऋषि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इन सवालों, इन खतरों को दशकों पहले ही भाँप लिया था और भारतीय परंपराओं के खजाने में ही इनके उत्तर भी खोज लिये थे। उन्होंने व्यष्टि बनाम समष्टि के पाश्चात्य समीकरण को अमानवीय बताया था तथा व्यष्टि एवं समष्टि की एकात्मता से ही मानव की पहचान की थी। उन्होंने इस पहचान के लिए ‘एकात्म मानवदर्शन’ के रूप में एक दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की थी।
पर विडंबना, उनकी यह खोज, उनका यह दर्शन आगे न बढ़ सका। प्रयास कुछ अधूरे रहे। दोष शायद परिस्थितियों का रहा। लेकिन इस शताब्दी के प्रारंभ में कुछ सामाजिक व अकादमिक कार्यकर्ताओं ने इस धारा को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। इस समूह का अनुभव रहा कि गहन अनुसंधान एवं व्यावहारिक परियोजनाओं का सूत्रपात करने से ही इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। उसी विचार व अनुभव में से उत्पत्ति हुई ‘एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान’ की।
पं. दीनदयाल उपाध्याय के बारे में
25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में, दीनदयाल जी का जन्म हुआ था।
पं. दीनदयाल एक प्रखर राष्ट्रवादी, चिंतक, विचारक व लेखक थे। उनका मानना था कि समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति का विकास और उन्नयन करने से ही समाज का उत्थान होगा। यही भाव उनके द्वारा प्रणीत ‘एकात्म मानववाद’ के सिद्धांत में निरूपित है।
उन्होंने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की। बी.एस-सी., बी.टी. करने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गए। अतः कॉलेज छोड़ने के तुरंत बाद वे संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बनकर राष्ट्रकार्य में प्रवृत्त हो गए।
सन् 1951 में भारतीय जनसंघ का निर्माण होने पर वे उसके मंत्री बनाए गए। दो वर्ष बाद सन् 1953 में भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसंबर 1967) में वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 11 फरवरी, 1968 की रात में रेलयात्रा के दौरान मुगलसराय स्टेशन के आसपास अज्ञात व्यक्तियों ने उनकी हत्या कर दी।
पं. दीनदयाल उपाध्याय का विराट दर्शन
पंडित दीनदयालजी ने पाकिस्तान, चीन, बौद्ध धर्म, भारतीय अर्थव्यवस्था, तकनीक, भारतीय महिलाओं, भगवान श्रीकृष्ण और भारतीय संस्कृति जैसे विषयों पर काफी विस्तार में लिखा है। आज से 50 साल पहले दीनदयाल ने पाकिस्तान और चीन को लेकर अपने लेखों में जिस तरह की आशंकाएं जताई थीं, आज उसी तरह की परिस्थितियां देश के सामने मौजूद हैं।
उनकी दूरदृष्टि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1961 में एक लेख में उन्होंने फिरोजपुर में सतलुज के किनारों पर पाकिस्तानी कब्जे या भारतीय क्षेत्र से बहने वाली इचामती नदी के इस्तेमाल की अनुमति को भारत की रणनीतिक हार करार दिया था। उन्होंने लिखा था कि भविष्य में इसे लेकर भारत को समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। दीनदयाल उपाध्याय का कहना था कि सीमाओं की सुरक्षा केवल सेना पर नहीं, बल्कि सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों के पक्के इरादों पर भी निर्भर करती है। उनका मानना था कि देश के विकास के लिए विदेशी मॉडल पर आश्रित नहीं होना चाहिए।
पं. दीनदयाल उपाध्याय संपूर्ण वाङ्मय के बारे में
दीनदयाल उपाध्याय संपूर्ण वाङ्मय कुल मिलाकर 15 खंडों में संपादित किया गया है। संपादक हैं एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष डा॰ महेश चन्द्र शर्मा। डा॰ शर्मा इससे पूर्व दीनदयाल उपाध्याय कर्तृत्व एवं विचार विषय पर शोध कर चुके हैं।
इस वाङ्मय में वर्ष 1940 में दीनदयालजी के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में प्रचारक बनाने से लेकर वर्ष 1968 में उनकी हत्या तक के संपूर्ण कृतित्व को समाहित किया गया है। सुविधा और स्पष्टता के लिए इन 15 खंडों को अलग अलग कालावधि में विभाजित किया गया है। इस अवधि में देश में घटी विभिन्न घटनाओं पर दीनदयालजी के विचारों और उनके प्रेरित आंदोलनों के विवरणों को समाहित किया गया है। इनके जरिए तत्कालीन राजनीतिक उथल पुथल को गहराई से समझा जा सकता है।
वाङ्मय के खंड एक में वर्ष 1940 से 1950 तक एक दशक की सामग्री प्रकाशित की गई है। खंड दो में वर्ष 1951-52 और 1953 की गतिविधिओं को शामिल किया गया है। खंड तीन वर्ष 1954-1955, खंड चार 1956-1957, खंड पाँच एवं छह 1958 से संबन्धित हैं। खंड सात वर्ष 1959, खंड आठ 1960, खंड नौ 1961, खंड दस 1962, खंड ग्यारह 1963-64, खंड बारह 1965, खंड तेरह 1966 और खंड चौदह 1967-68 से संबन्धित है। खंड पंद्रह में उनके कई बौद्धिक वर्गों और उनकी हत्या से संबन्धित सामग्री शामिल की गई है।
दीनदयाल संपूर्ण वाङ्मय को प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है। राजस्थान से पूर्व राज्यसभा सांसद महेश चंद्र शर्मा ने पिछले 30 सालों से दीनदयाल उपाध्याय के जीवन और उनके लेखन शोध कर ये वांङ्मय संपादित किया है। उन्होंने इस वाङ्मय के सभी खंडों को आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक एमएस गोलवरकर और जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को समर्पित किया है। इस वाङ्मय में कांग्रेस सदस्य संपूर्णानंद, गांधीवादी स्कॉलर धर्मपाल तथा 92 वर्षीय संघ के वरिष्ठ प्रचारक एमजी वैद्य का सहयोग भी महत्वपूर्ण रहा है।
हेमा फाउंडेशन की वेब साईट-http://www.hemafoundation.org/