भारत के चर्चित मोती वैज्ञानिक डा. अजय कुमार सोनकर ने काला मोती बनाने की क्षमता रखने वाली सीप की नस्ल ‘पिंक टाडा मार्गेरेटिफेरा’ सीप में पहली बार मनचाही शक्ल का मोती बनाने में कामयाबी हासिल की है। इस मोती को भगवान गणेश की शक्ल दी गई है। पर्ल एक्वाकल्चर के क्षेत्र में भारत का नाम विश्व पटल पर लाने वाले इस युवा वैज्ञानिक ने बताया कि अंडमान के समुद्री क्षेत्र में ‘ब्लैक लिप आयस्टर’ यानी काला मोती बनाने की क्षमता वाले सीप पाए जाते हैं और मेरा प्रयोग था कि कैसे मोती को मनचाही शक्ल दी जा सकती है। ऐसा पहला मोती गणेश की शक्ल में है। हमने अभी तक ‘पिंक टाडा मार्गेरेटिफेरा’ सीप में पारंपरिक काला गोलाकार मोती तो बनाया था लेकिन एक आकृति की शक्ल देने के लिहाज से मुझे सीपों की यह नस्ल बेहद उपयुक्तलगी क्योंकि इसका आकार बड़ा होता है और इसमें गोलाकार ‘न्युक्लियस’ के स्थान पर ‘न्युक्लियस’ के रूप में किसी आकृति को सीपों की सर्जरी करके उनके बदन में रखना आसान था।
उन्होंने बताया कि पहली बार मैंने इस प्रयोग को नियंत्रित वातावरण में किया जहां समुद्र के पानी को अलग एक ‘कल्चर टैंक’ में इकट्ठा कर बड़े पंखों के जरिये कृत्रिम तरीके से समुद्री लहरों को पैदा किया गया। इस प्रयोग के दौरान पाया गया कि समुद्र की लहरों की दिशा व तीव्रता का सीप में पल रहे मोतियों के रंग रूप में निर्णायक योगदान होता है। यह समुद्र की गहराई, एल्गी (जिसे सीप भोजन के रूप में इस्तेमाल करती हैं) की मात्रा, तापामन से भी कहीं ज्यादा सीप के रंग रूप के निर्धारण में भूमिका अदा करती हैं। उन्होंने अपने प्रयोग के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि वास्तव में समुद्री सीप अपने शरीर से निकलने वाले एक धागे जैसे दिखने वाले पदार्थ की मदद से आसपास के पत्थरों से और चट्टानों के बीच की दरारों में आजीवन चिपके रहते हैं जिसके कारण समुद्री लहरें सीपों द्वारा चुने सुरक्षित व उपयुक्त स्थान से उन्हें हटा नहीं पाती। लेकिन इन लहरों की उनके भीतर पल रहे मोती के रंग रूप के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उन्होंने बताया कि जिन सीपों को बिना लहरों वाले वातावरण में रखा गया, उनमें बने मोती समान रूप से ‘सिल्वरी ग्रे’ रंग के थे लेकिन लहरों के प्रभाव में मोती में इंद्रधनुषी रंग पैदा हुआ।
उन्होंने बताया कि मोती मूलत: कैल्शियम कार्बोनेट होता है जो दो प्रकार के होते हैं- कैल्साइट बाकी पेज 8 पर कैल्शियम कार्बोनेट और एरागोनाइट कैल्शियम कार्बोनेट। मीठे पानी में एरागोनाइट कैल्शियम कार्बोनेट नगण्य मात्रा में और समुद्री सीपों द्वारा बनाए गए मोती में बहुतायत (लगभग 50 से 85 फीसद) में पाया जाता है। इसलिए समुद्री मोती की आभा हजारों साल एक जैसी चमकदार बनी रहती है जबकि मीठे पानी में बने मोती में कैल्साइट कैल्शियम कार्बोनेट अधिक और एरागोनाइट कैल्शियम कार्बोनेट (लगभग पांच से 10 प्रतिशत) कम होता है और यह अपनी चमक कुछ ही सालों में खो बैठता है और हड्डी सा दिखने लगता है। ऐसा मोती की संरचना में भिन्नता के कारण भी होता है।
चीनी मोती मीठे पानी में इसी कैल्साइट कैल्शियम कार्बोनेट से बने होते हैं और इसी वजह से सस्ते होते हैं क्योंकि उनमें चमक के लिए जिम्मेदार (पर्ली) अवयव कम हैं।उन्होंने बताया कि चीन का मोती उत्पादन मीठे पानी तक सीमित है और समुद्री सीपों में मोती बनाने में पूरी तरह असफल है। उनके पास जरूरी सीपों की नस्ल भी नहीं हैं। उनका सारा काम मीठे पानी में होता है जहां वो एक ही सीप के ‘मेन्टल’ में 10 से 15 मोती बनाते हैं। इसलिए चीन के बने मोती सस्ते हैं। इस प्रकार भारत काले मोती और अन्य बहुमूल्य मोती उत्पादन के क्षेत्र में विश्व का अग्रणी देश हो सकता है। अंडमान के अछूते समुद्री वातावरण में पाए जाने वाले बहुमूल्य और दुर्लभ सीपों के उपयोग से इन द्वीपों को बहुमूल्य रत्नों के मुख्य स्रोत के रूप में विकसित किया जा सकता है।
डॉ. अजय सोनकर की वेब साईट http://www.pearlindia.org
साभार- इंडियन एक्सप्रेस से