ये 1949 का साल था. करीब 30 साल के एक लेखक ने अशोक कुमार सहित ‘बॉम्बे टॉकीज’ के डायरेक्टरों को एक कहानी सुनाई.
पुर्नजन्म और मोहब्बत की दास्तां पर आधारित इस कहानी को सुनाने के साथ लेखक ने खुद ही इसका निर्देशन करने की पेशकश की. लेखक की जिद के सामने अशोक कुमार झुके और इसका नतीजा रहा ‘बॉम्बे टॉकीज’ ही नहीं बल्कि भारतीय फिल्म के सबसे बड़ी क्लासिक फिल्मों में शुमार फिल्म ‘महल’ का बनना.
‘आएगा, आएगा, आएगा आनेवाला…’ गीत आज भी सुनें तो इस संस्पेंस थ्रिलर फिल्म को लेकर एक हूक सी पैदा होती है.
भारत की पहली हॉरर फिल्म के रूप में मशहूर हुई ‘महल’ के असर का अंदाजा तब होता है जब आप इसके तर्ज पर बने फिल्मों की लिस्ट देखते हैं- बिमल राय की 1958 में बनी ‘मधुमती’, बीरेन नाग की 1962 में बनी ‘बीस साल बाद’, 1964 में बनी ‘कोहरा’ और इसी साल आई राज खोसला की ‘वो कौन थी.’
इतनी फिल्मों के बाद भी ऑरिजनल महल का जादू फीका नहीं पड़ा है. इस फिल्म की कहानी, संवाद, और निर्देशन कमाल अमरोही का था, जो पिछले दस सालों से फिल्मी दुनिया में संघर्ष कर रहे थे. हालांकि 1939 की सुपरहिट फिल्म ‘पुकार’ के लिए उन्होंने लेखन का काम किया था.
लेकिन ‘महल’ की कामयाबी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के अमरोहा से लाहौर के रास्ते मुंबई आए इस संजीदा लेखक को रातों रात सुपर स्टार का दर्जा दे दिया. ‘महल’ फिल्म के कुछ संवाद तो आज भी लोगों की जुबां पर मौजूद होंगे- ‘मुझे जरा होश में आने दो, मैं खामोश रहना चाहता हूं…’ या ‘फिर स्लो पॉयजन अक्सर मीठे होते हैं और धोखे अक्सर हसीन होते हैं…’
‘महल’ ने ही मधुबाला और लता मंगेशकर को सुपर स्टार बनाया. ‘आई वांट टू लिव- द स्टोरी ऑफ मधुबाला’ में खतीजा अकबर ने लिखा है कि अशोक कुमार और ‘बॉम्बे टॉकीज’ के लोग इस फिल्म में सुरैया को लेना चाहते थे.
लेकिन ये फिल्म के निर्देशक कमाल अमरोही थे, जिन्होंने 16 साल की मधुबाला को ना केवल मौका दिया बल्कि पहली ही फिल्म में सुपर स्टार बना दिया. कमाल अमरोही किस तरह के डायरेक्टर थे इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने ‘महल’ का एक गाना ‘मुश्किल है बहुत मुश्किल है…’ महज एक सिंगल शॉट में फिल्माया लिया था.
नसरीन मुन्नी कबीर की किताब लता मंगेशकर इन हर वायस में लता मंगेशकर ने कमाल अमरोही के संगीत की समझ की काफ़ी तारीफ़ की है. कमाल अमरोही ने ‘आएगा, आएगा, आएगा आनेवाला…’ की धुन का इस्तेमाल फ़िल्म में सात बार करने का मन बनाया और आज भी पूरी फ़िल्म इस एक गाने से उलझी मालूम होती है.
इस फिल्म की कामयाबी का असर कहीं और भी हुआ था. इसका जिक्र आउटलुक के संस्थापक संपादक विनोद मेहता ने अपनी पुस्तक ‘मीना कुमारी-द क्लासिक बायोग्राफी’ में किया है.
विनोद मेहता ने लिखा है, “एक अंग्रेजी पत्रिका देखते हुए मीना कुमारी की नजर एक तस्वीर पर पड़ी. ये तस्वीर कमाल अमरोही की थी, ‘महल’ के बाद जिसे हर स्टूडियो अपने यहां काम देना चाहता था. कहा जाने लगा था कि उन्हें लाख रुपये तक ऑफ़र किए जा रहे हैं. लेकिन मीना कुमारी को उस तस्वीर के साथ लेखक लिखा होना पसंद आया होगा.”
विनोद मेहता के मुताबिक कमाल अमरोही को लेकर ऐसा आकर्षण मधुबाला में भी था, लेकिन कमाल ने खुद मधुबाला में कोई दिलचस्पी नहीं ली थी. वहीं मीना कुमारी को उन्होंने ‘अनारकली’ फिल्म के लिए साइन किया. हालांकि ये फिल्म पूरी नहीं हो पाई क्योंकि प्रोड्यूसर इस फिल्म का बजट कम रखना चाहते थे, जो कमाल को पसंद नहीं आया.
कमाल अमरोही के पूरे करियर के दौरान ये बात साफ़ देखने को मिली कि उन्होंने जो भी किया, तबियत से किया, पूरे इत्मीनान से किया और ख़र्चे की परवाह नहीं की.
हालांकि इस दौरान मीना कुमारी एक सड़क हादसे की चपेट में आ गईं और उन्हें पूना के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया. कमाल अमरोही जब पहली बार उन्हें अस्पताल में देखने पहुंचे तो मीना कुमारी की छोटी बहन ने उन्हें बताया कि आपा तो मौसम्बी का जूस नहीं पी रही हैं.
लेकिन कमाल अमरोही के सामने मीना कुमारी ने झटके से जूस पी लिया. इसके बाद मीना कुमारी को देखने के लिए कमाल अमरोही सप्ताह के एक दिन मुंबई से पूना आने लगे. कुछ ही दिनों में लगने लगा कि एक दिन की मुलाकात में दिल की बात नहीं हो पा रही है, तो फिर दोनों ने रोजाना एक दूसरे को खत लिखने का फ़ैसला लिया.
विनोद मेहता ने इस बारे में लिखा है, “31 साल का एक आदमी काली शेरवानी में एंबैसडर कार से उतरता और खतों के लिफाफे के साथ एक प्राइवेट कमरे तक जाता था जहां 18 साल की मीना कुमारी बेड पर मौजूद हैं. दोनों एक दूसरे को लिखे खत देते हैं और थोड़ी ही देर में अमरोही कार से मुंबई के लिए रवाना हो जाते हैं.”
ज़ाहिर है कि मीना कुमारी और कमाल अमरोही एक दूसरे को कुछ इस कदर देखने लगे थे जिसे आज की तारीख में मेड फॉर इच अदर कहा जाता है.
मीना कुमारी के पिता नहीं चाहते थे उनकी बेटी इतनी जल्दी शादी करे और वो भी ऐसे शख्स से जो पहले ही दो शादियां कर चुका हो और तीन बच्चे का पिता हो. लेकिन मीना कुमारी और कमाल अमरोही के लिए एक दूसरे के बिना रह पाना मुश्किल होता गया और आख़िर में 14 फरवरी, 1952 को मीना कुमारी से कमाल अमरोही ने शादी कर ली.
ये शादी कैसे हुई इसके बारे में विनोद मेहता ने लिखा है, “मीना कुमारी अपनी बहन के साथ वॉर्डन रोड पर स्थित एक मसाज क्लिनिक पर रोज जाती थीं, एक्सीडेंट के बाद ये उनके इलाज का हिस्सा था. उनके पिता कार से उन्हें छोड़ने आते थे, दो घंटे के लिए. 14 फरवरी, 1952 को दोनों बहनें पिता के छोड़ने के बाद कमाल अमरोही और उनके सहायक बाकर के साथ निकाह कराने पहुंची. काजी पहले तैयार थे, उन्होंने पहले सुन्नी रवायत से और फिर शिया रवायत से निकाह करवाया.”
इसके बाद मीना कुमारी अपनी बहन के साथ डॉक्टर के क्लिनिक लौटीं और फिर अपने घर. इस शादी के एक साल और कुछ महीनों के बाद अगस्त, 1953 में मीना कुमारी, कमाल अमरोही के घर पहुंचीं. अपने पिता का घर छोड़कर और एक दर्जन साड़ियों के साथ. मीना कमाल को चंदन कहती थीं और कमाल मीना को मंजू.
मीना कुमारी को लेकर कमाल अमरोही ने अपनी दूसरी फिल्म ‘दायरा’ इसी दौरान बनाई. इस फिल्म में एक कम उम्र की लड़की अपने से अधिक उम्र के शख्स से शादी करती है और फिर एक युवा के साथ प्यार में पड़ जाती है. 1953 में बनी ये फिल्म फ्लॉप हो गई थी, लेकिन तब लोगों ने माना था कि ये कमाल-मीना की अपनी प्रेम कहानी है.
लेकिन मीना कुमारी और कमाल अमरोही की ये प्रेम कहानी बहुत कामयाब नहीं रहीं. मीना कुमारी तब तक सुपर स्टार बन चुकीं थीं और कभी सिनेमाई दुनिया के उभरते डायरेक्टर और निर्देशक को ये पसंद नहीं था कि उनकी पहचान उनकी पत्नी के नाम से हो. दोनों के आपसी अहम टकराने लगे.
इस बीच 1953 में कमाल अमरोही ने ‘पाकीज़ा’ की कल्पना की. मीना कुमारी और राजकुमार की इस फिल्म को बनाने के दौरान पति-पत्नी का संबंध अपने बुरे दौर में पहुंच गया था. 1964 में मीना कुमारी और कमाल अमरोही अलग हो गए और ‘पाकीज़ा’ भी लटक गई.
इस बीच 1960 में मुगले आज़म फ़िल्म के डॉयलॉग लिख कर भी कमाल अमरोही ने अपने लेखन का जलवा बनाए रखा, इस फ़िल्म के लिए उन्हें फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला था.
हालांकि 1968 में मीना कुमारी, कमाल अमरोही के अनुरोध पर ‘पाकीज़ा’ के लिए काम करने के लिए तैयार हो गईं. नवाबी और अवधी संस्कृति को पर्दे पर पेश करने वाली इस संगीतमय फिल्म की गिनती बॉलीवुड की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में होती है.
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ भाटिया ने कमाल अमरोही पर लिखे एक लेख में लिखा है, “कमाल अमरोही ने पाकीज़ा में अपना दिल, आत्मा और पूरी दौलत झोंक दी थी.”
मीना कुमारी तब तक लीवर सिरोसिस की चपेट में आ चुकी थीं, उन्होंने जैसे तैसे ये फिल्म पूरी की. फिल्म फरवरी, 1972 में रिलीज़ हुई, शुरुआत बहुत दमदार नहीं हुई लेकिन मार्च 1972 में मीना कुमारी के निधन के बाद इस फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए.
इस फिल्म की कामयाबी और मीना कुमारी की मौत ने कमाल अमरोही की आत्मा को कुछ इस तरह झिंझोरा कि उनका मन फिल्म दुनिया से लगभग उचट गया.
हालांकि करीब एक दशक बाद उन्होंने 1983 में रजिया सुल्ताना से वापसी ज़रूर की. ये फ़िल्म भले कामयाब नहीं हुई लेकिन कमाल अमरोही ने दिखाया कि वे आला दर्जे के निर्देशक हैं और रहेंगे.
ऐसा नहीं था, कमाल अमरोही का व्यक्तित्व का हर पहलू शानदार ही था, दरअसल उनमें खुद को लेकर एक तरह के अहम का भाव पनप आया था और वो फिल्मी दुनिया की कामयाबी ने उन्हें काफी हद तक स्वार्थी भी बना दिया था. उनके इस पहलू का दिलचस्प जिक्र बीते जमाने के जाने माने कलाकार और निर्देशक किशोर साहू ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में किया है.
किशोह साहू ने 1960 में ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ फिल्म का निर्देशन किया था. मीना कुमारी और राजकुमार अभिनीत इस फ़िल्म के प्रोड्यूसर थे कमाल अमरोही. कमाल ने इस फिल्म की शूटिंग और इसके पूरा होने के दौरान किशोर शाहू को नीचा दिखाने के लिए तरह तरह से परेशान किया था.
इतना ही नहीं फिल्म के रेशेज देखने के बाद अमरोही ने इस फिल्म में काफी बदलाव करना चाहा था, लेकिन राजकुमार, नादिरा और काफी हद तक मीना कुमारी इसके लिए तैयार नहीं हुए तो अमरोही ने इसकी रिलीज को लटका दिया. मशहूर फिल्म निर्देशक के. आसिफ की मध्यस्थता से फिल्म रिलीज हुई तब गुस्से में प्रोड्यूसर के तौर पर अमरोही ने अपने सहायक बाकर का नाम प्रिंट में दे दिया.
साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “कमाल ने मुझसे कहा था कि फिल्म जब जुबली होगी तो साहू साब आपको आपकी पसंद की कार गिफ्ट करूंगा. फिल्म जब जुबली मनाने लगी तो उन्होंने फिल्म के पोस्टर पर प्रोड्यूसर के तौर पर बाकर का नाम हटाकर अपना नाम डलवाना शुरू कर दिया, लेकिन कार गिफ्ट करने का वादा उन्होंने कभी पूरा नहीं किया.”
‘रज़िया सुल्तान’ की नाकामी के बाद कमाल अमरोही ने कोई फिल्म नहीं बनाई, हालांकि ‘आख़िरी मुगल’ और ‘मजमून’ जैसी कुछ फिल्मों के विषय पर उन्होंने काम ज़रूर किया था जो अधूरी रह गईं. उनका निधन 11 फरवरी, 1993 को हुआ था.
बहरहाल, कमाल अमरोही की चार इन फिल्मों में एक बात साफ़ तौर पर नज़र आती है, जहां प्रेमी जोड़ों को तरह तरह के बाधाओं का सामना करना पड़ता है. ‘महल’ में मौत ये बाधा थी, ‘पाकीज़ा’ में सामाजिक मान्यताएं बाधा हैं, ‘रज़िया सुल्ताना’ में शाही परंपराएं हैं और ‘दायरा’ में विवाह.
कमाल अमरोही के किरदार इन बाधाओं को पार करने का साहस भी नहीं दिखा पाते हैं. बावजूद इसके ये सारी फिल्में अपनी नफ़ासत और स्टाइल के लिए हमेशा याद की जाएंगी और साथ ही याद आएंगे कमाल अमरोही.
साभार-http://www.bbc.com/hindi/ से