Wednesday, December 25, 2024
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काश हम अपने पूर्वजों की पानी बचाने की कला को सीख पाते

अपनी पुस्तक कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट में मैंने यह दर्शाया है कि कैसे हमें देश में जल प्रबंधन की बहुमूल्य निधि मिली। अब जबकि भीषण गर्मी सर पर आ गई है, मैं इसे आपके सामने स्पष्ट करना चाहती हूं। हमें इस बारे में जानने की आवश्यकता है क्योंकि अब यह स्पष्ट हो चला है कि हमें वर्षा की एक-एक बूंद के संचयन का विज्ञान और इससे जुड़ी कला को सीखना होगा। यह सन 1990 के दशक के शुरुआती दिनों की बात है। हम बीकानेर जा रहे थे। पर्यावरणविद और सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वॉयरनमेंट (सीएसई) के तत्कालीन निदेशक अनिल अग्रवाल लाल रंग की अपनी नई मारुति 800 चला रहे थे। उन्होंने कार चलाना हाल ही में सीखा था और हम शुभू पटवा का काम देखने के लिए सड़क मार्ग से जा रहे थे। उस समय शुभू बीकानेर के आसपास के चारागाहों को बचाने के लिए काम कर रहे थे। हमारे साथ गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र भी थे। मुझे याद है वह सफर धूल भरा था। उस इकहरे रास्ते पर आगे बढ़ते हुए हमें छोटी बसावटें और खेजड़ी के वृक्ष नजर आ रहे थे जिनका इस्तेमाल जानवरों और इंसानों के भोजन के रूप में होता है। तभी अचानक कुछ नजर आया और अनिल ने कार रोक दी। जमीन पर एक उलटी तश्तरी या उलटे कप जैसी आकृति दिख रही थी। हम नजदीक की बस्ती तक गए और वहां लोगों से पूछा कि वह क्या आकृति है? उन्होंने बताया कि यह उनकी पानी की व्यवस्था थी। उन्होंने जमीन में चूने की मदद से नालीनुमा संरचना बनाई थी। बारिश का पूरा पानी इसके माध्यम से करीब स्थित कुएं में जाता था। कुएं को गंदगी से बचाने के लिए ढक दिया गया था।

अनिल और अनुपम इस सबक से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने जीवन के अगले कई वर्ष देश के लोगों को बारिश के पानी का महत्त्व समझाते हुए बिता दिए। उनके साथ मैंने भी सीखा। अनिल ने यह आकलन किया कि विकेंद्रीकृत वर्षा जल प्रबंधन के इस ढांचे में बहुत संभावना निहित है। महज 100 मिलीमीटर वर्षा वाले एक हेक्टेयर भूभाग से 10 लाख लीटर तक पानी बचाया जा सकता था। रेगिस्तानी इलाकों में औसतन इतनी ही बारिश होती है। पांच लोगों के एक परिवार को पीने और खाना बनाने के लिए रोज 10-15 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यानी सालाना 4,000-5,000 लीटर पानी। यानी एक हेक्टेयर इलाके से संचयित जल से करीब 200-300 परिवारों को पानी मिल सकता है। बाद में एक अन्य अनुभव ने न केवल वर्षा जल भंडारण की संभावनाओं को लेकर मेरी समझ दुरुस्त की बल्कि हमारे साथ उसके संबंध को लेकर भी। एक बार हम पूर्वी भारत के खूबसूरत राज्य मेघालय में थे। मुझे स्कूल में पढ़ाया गया था कि चेरापूंजी धरती का सबसे अधिक बारिश वाला स्थान है। वहां एक छोटे सरकारी अतिथिगृह में हमें एक बड़ा सा बोर्ड नजर आया जिस पर लिखा था- पानी कीमती है, कृपया इसे सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करें। यह अद्भुत बात थी। क्या 14,000 मिमी बारिश वाली जगह जो एक ऊंचे स्टेडियम को पानी से भरने की कुव्वत रखती हो, क्या वहां भी पानी की कमी थी?

मैं और अनिल जैसलमेर से लौटे ही थे। वह बमुश्किल 50-100 मिमी बारिश वाला शहर था लेकिन वही पश्चिम से पूर्व को जाने वाले कारोबारी कारवां का पारगमन स्थल था। आखिर यहां एक बेहतरीन सभ्यता कैसे फली फूली और पीले बलुआ पत्थर का एक शानदार किला बना? इसका जवाब हमें शहर के वर्षा जल संचयन के तरीके में मिले। यहां छत से टैंक में जल संचयन किया जाता था ताकि विपरीत परिस्थितियों में भी भविष्य के लिए पानी बचाया जा सके। हमने जोधपुर की यात्रा भी की थी जहां पुरा विशेषज्ञ और रेतीले क्षेत्र के जानकार एसएम मोहनोट ने हमें जल संचयन की एक जटिल प्रक्रिया दिखाई। यहां एक विशाल किला था जो ग्रेनाइट की पहाडिय़ों से घिरा था। पहाड़ों से पूरा पानी बहकर किले के भीतर पहले टैंक में आता था। युद्ध के समय यह पानी काम आता था। जब पानी का स्तर रानीसर नामक इस टैंक से ऊपर निकल जाता तो वह अगले टैंक में जाता जो बाहर था और आम जनता के लिए सुलभ था। बारिश को शहर भर की ढेर सारी खूबसूरत बावडिय़ों के जरिये एकत्रित किया जाता था। बारिश के पानी का तमाम छतों पर संचयन किया जाता और फिर उसे भूमिगत टैंक में जमा किया जाता। छत को साफ रखा जाता ताकि पानी पीने लायक रहे। यह बहुत अच्छा था लेकिन जिस समय हमने देखा यह व्यवस्था ठप हो चुकी थी। बावडिय़ों में कूड़ा-कचरा भरा हुआ था। जिन क्षेत्रों से वर्षा जल संचयन किया जाता था उनमें जमकर खनन किया जा रहा था। अब वर्षा का पानी जल टैंक में नहीं जा रहा था। यह व्यवस्था ठप हो रही थी। मैंने कुछ अहम सबक सीखे थे। पानी और संस्कृति साथ-साथ चलते हैं। पानी की कमी का संबंध केवल बारिश की कमी से नहीं है। बल्कि यह हमारे समाज की विफलता है जो पानी को साझा करने और उसके साथ सहजीविता में नाकाम रहा है। हमें बार-बार यह सबक सीखने की आवश्यकता है ताकि हम आने वाले दिनों में पानी की असुरक्षा से निपट सकें और अपना अस्तित्व कायम रख सकें।

साभार- http://hindi.business-standard.com/s से

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