डेटा की कीमतों में गिरावट भले ही दूरसंचार उद्योग के लिए अच्छी न हो लेकिन अर्थव्यवस्था को इससे अत्यंत महत्त्वपूर्ण लाभ हुए हैं। प्रतिव्यक्ति आय की तुलना में देखा जाए तो हमारे देश के मोबाइल नेटवर्कों पर डेटा दर में काफी कमी आई है। दो वर्ष पहले जहां यह दुनिया में सबसे महंगा था, वहीं आज 95 फीसदी की गिरावट के साथ यह दुनिया में सबसे सस्ता हो गया है। कीमतों में ऐसी जबरदस्त गिरावट आदतों और व्यवहार को भी परिवर्तित करती है। क्रेडिट सुइस में हमने इस बदलाव के आर्थिक निहितार्थ को समझने के लिए एक अध्ययन किया। उम्मीद के मुताबिक ही इस अवधि में डेटा की खपत में नाटकीय वृद्घि देखने को मिली। प्रति व्यक्ति मासिक डेटा उपयोग करीब आठ गुना बढ़कर 6.5 जीबी तक जा पहुंचा। अब देश के मोबाइल नेटवर्क दावा करते हैं कि उनके पास दुनिया की कुछ शीर्ष दूरसंचार कंपनियों के सम्मिलित डेटा से अधिक डेटा है। इन कंपनियों का यूं गर्व करना कुछ हद तक उचित है लेकिन भारत में प्रति व्यक्ति डेटा इस्तेमाल अभी भी विकसित देशों की तुलना में बेहद कम है। निकट भविष्य में काफी दिनों तक हालात ऐसे ही बने रहने की उम्मीद है। ऐसा इसलिए क्योंकि दुनिया भर में अधिकांश डेटा खपत फिक्स्ड लाइन नेटवर्क के जरिये होती है, जबकि भारत में इस दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हो सकी है। दुनिया के कई देशों में प्रति व्यक्ति मोबाइल डेटा खपत भारत की तुलना में आधी से भी कम है। परंतु कुल डेटा खपत के मामले में वे 15 गुना तक आगे हैं।
इसके बजाय डेटा खपत की चिंता किए बगैर उसका इस्तेमाल करने वालों की तादाद में हुई बढ़ोतरी अवश्य उल्लेखनीय है। हमारा अनुमान है कि सन 2020 तक करीब 55 करोड़ भारतीयों के पास डेटा और वीडियो सक्षम मोबाइल होंगे। वर्ष 2016 के आरंभ में यह तादाद बमुश्किल 20 करोड़ थी। ऐसा हर उपयोगकर्ता एक कामगार के साथ उपभोक्ता भी है। आइए एक नजर डालते हैं कुछ बातों पर: पांच साल पहले हमने देश में आकार ले रहे खामोश बदलाव की बात की थी। जिक्र यह था कि कैसे ग्रामीण सड़कों, बिजली और फोन आदि के विस्तार के साथ उत्पादकता में ऐसा बदलाव आ रहा है जो पहले कभी देखा नहीं गया। एक बड़ी उपभोक्ता वस्तु निर्माता कंपनी के साथ इस रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान कंपनी के सीईओ ने कहा कि ये बदलाव रोमांचक हैं लेकिन इन बदलावों से लाभान्वित हो रहे परिवारों के बीच हम अपने ब्रांड को कैसे आगे बढ़ाएंगे? वे टेलीविजन नहीं देखते।
यह सही मायनों में एक बड़ी बाधा है। देश में टेलीविजन की पहुंच बीते एक दशक में बहुत अधिक बढ़ी है लेकिन एक तिहाई घरों में आज भी टीवी नहीं है। जिन घरों में टीवी है उनमें भी 95 फीसदी में केवल एक टीवी है। अमेरिका में औसतन प्रति परिवार तीन टीवी हैं। देश में प्रति व्यक्ति टीवी देखने की अवधि भी दुनिया में सबसे कम है।
सस्ते वीडियो सक्षम फोन हैं मददगार
अगर हर उपयोगकर्ता अपने फोन पर एक से डेढ़ घंटे भी रोज वीडियो देखता है तो इससे प्रतिदिन 55 करोड़ से 1.1 अरब स्क्रीन घंटे की अवधि तैयार होती है। यह टीवी के जरिये तैयार होने वाली मौजूदा एक अरब स्क्रीन घंटों से काफी अधिक है। हमारा अनुमान है कि वीडियो विज्ञापनों की मदद से जिस ग्रामीण खपत को निशाना बनाया जा सकता है, वह 27 फीसदी से बढ़कर 95 फीसदी हो सकती है। इससे न केवल दायरा विस्तारित होगा बल्कि छोटे विज्ञापनदाता भी तयशुदा दर्शकों तक पहुंच सकेंगे। कोई चाहे तो ऐसा विज्ञापन अभियान चला सकता है जो कुछ हजार लोगों को ध्यान में रखता हो। वह मास मीडिया का इस्तेमाल करने से बच सकता है जो अक्सर काफी महंगा साबित होता है। इससे लागत में कमी आएगी और ब्रांडिंग का दायरा बढ़ेगा। देश की संचार संपन्न श्रम शक्ति से भी अहम प्रभाव निकलने की उम्मीद है। यह वर्ष 2016 के 33 फीसदी से बढ़कर 2020 तक 96 फीसदी हो जाएगी।
रोजगार बाजार में क्षमता की समस्या तो रहती ही है। भारत में हर साल लाखों श्रमिकों द्वारा हर वर्ष कई तरह के काम करने से यह और बढ़ जाती है। श्रम शक्ति के आकार और बेरोजगारी को लेकर कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए। देश के लोगों ने गत वर्ष सोशल मीडिया पर 71 अरब घंटे बिताए। कुछ लोगों के लिए यह उत्पादकता को प्रभावित करने वाला हो सकता है लेकिन कई अन्य के लिए यह नेटवर्क के माध्यम से साल में कई कार्य दिवस बढ़ा सकता है। नोबेल पुरस्कार विजेता डेनियल कानमैन एक अध्ययन में बताते हैं कि कैसे पुनरावृत्ति से विश्वास का निर्माण होता है।
दूसरा मामला है आपूर्ति शृंखला का। देश का इन्वेंटरी-जीडीपी अनुपात दुनिया में सबसे अधिक है। यानी थोड़ी बहुत आय अर्जित करने के क्रम में ढेर सारी पूंजी की इन्वेंटरी में फंसा होना। देश की खुदरा शृंखला की प्रकृति बिखराव वाली है और छोटे विनिर्माताओं की परिवहन की दिक्कतों के कारण समस्या और बढ़ जाती है। संबद्घ आपूर्ति शृंखला से योजना निर्माण बेहतर हो सकता है और बची पूंजी को वृद्घि में पुनर्निवेश किया जा सकता है। पैकेटबंद खाने जैसे क्षेत्र में डेटा संचार अहम हो सकता है क्योंकि वह जल्दी खराब होता है। देश में ढेर सारी बेकरी हैं लेकिन उनकी कोई चेन नहीं है क्योंकि बेकरी उत्पाद जल्दी खराब हो जाते हैं।
तीसरा और सबसे बड़ा प्रभाव है सेवा नेटवर्क जो उपयोगिता बढ़ाकर लागत कम कर सकता है। अगर 7 लाख रुपये की कोई कार सात साल में 50,000 किलोमीटर चलती है तो पूंजीगत लागत 14 रुपये प्रति किमी होगी। परंतु सेकंड हैंड कार खरीदने वाला व्यक्ति 3 लाख रुपये में उसे खरीदकर 1.50 लाख किमी चलाता है तो पूंजीगत लागत घटकर 2 रुपये प्रति किमी हो जाएगी। अगर टैक्सी चालक और उपयोगकर्ता संबद्घ हों तो इससे रोजगार तैयार होंगे और परिवहन सस्ता होगा। यही बात होटलों, ब्यूटीशियन, इलेक्ट्रीशियन और प्लंबरों पर भी लागू होती है।
भारतीय उद्यमिता इसके सकारात्मक प्रभावों से काफी लाभान्वित हो सकती है। हमारा अनुमान है कि उपरोक्त बातें ही जीडीपी में 5 फीसदी का योगदान कर सकती हैं। अगर यह तीन वर्ष तक चलता रहा तो जीडीपी वृद्घि में सालाना 1.5 फीसदी की बढ़ोतरी। चार साल में यह वृद्घि 1.2 फीसदी रहेगी। सरकार और निजी क्षेत्र ने बीते चार साल में दूरसंचार बुनियादी ढांचे में जीडीपी का करीब 2 फीसदी निवेश किया है। अगर डेटा कीमतों में गिरावट दूरसंचार उद्योग के लिए कष्टïप्रद है तो भी अर्थव्यवस्था को इससे बहुत लाभ है।
साभार- http://hindi.business-standard.com/ से