भारत का भद्रलोक अब ऐसा लगता है कि अंग्रेजी के पिंजरे के बाहर झांकने लगा है। जापान के साथ मिलकर भारत जो बुलेट ट्रेन बना रहा है, उसके कर्मचारी, अधिकारी और इंजीनियर अब जापानी भाषा सीखने में लगे हुए हैं। उन्हें प्रशिक्षण के लिए जापान जाना है और बाद में कुछ समय तक जापानियों के साथ मिलकर उस बुलेट ट्रेन को चलाना है। उन्हें पता चल गया है कि उनका काम अंग्रेजी से नहीं चलेगा। उन्हें जापानी सीखनी ही पड़ेगी।
इसीलिए आजकल हर दूसरे दिन शाम को एक घंटे की जापानी भाषा की कक्षा में सारे अधिकारी बैठकर जापानी बोलने का अभ्यास करते हैं। जापानी ऐसी नौंवी भाषा है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाती है। उसकी लिपि कठिन है लेकिन भाषा को सीखना उतना कठिन नहीं है। भारतीय रेल-अधिकारी कुछ ही दिनों में अब थोड़ी-थोड़ी जापानी समझने और बोलने लगे हैं। जो भी अधिकारी इस भाषा को ठीक से नहीं सीख पाएगा, वह प्रशिक्षण के लिए जापान नहीं भेजा जाएगा।
यदि भारत सरकार इसी तरह के नियम अन्य प्रमुख विदेशी भाषाओं के लिए बना दे तो भारत के विदेश व्यापार और कूटनीतिक व्यवहार में जमीन आसमान का अंतर आ जाएगा। दुनिया के सभी देशों के साथ हमारे व्यापार और कूटनीति की एक मात्र भाषा अंग्रेजी है। बाकि देश की भाषा नहीं जानने के कारण हमारे व्यापारी ठगे जाते हैं और हमारे राजनयिक अयोग्य सिद्ध हो जाते हैं। मैंने दर्जनों देशों में जाकर देखा है कि हमारे राजदूत उस देश की भाषा ही नहीं जानते, जिसमें उन्हें नियुक्त किया जाता है।
मुझे कई बार चीन और जापान जाते समय जहाज में अपने व्यापारी बताते हैं कि वहां के दुभाषियों को उन्हें काफी मोटी फीस देनी पड़ती है और चालाकी भरे अनुवाद के कारण कई बार उनकी ठगाई भी हो जाती है। दुनिया के सभी शक्तिशाली ओर मालदार देशों में उनका काम उनकी भाषा में ही होता है लेकिन भारत-जैसे पूर्व-गुलाम देशों में अभी तक वही गुलाम पिछड़ापन चला आ रहा है।
हमने अंग्रेजी को आज भी भारत की राष्ट्रभाषा और दुनिया की विश्व भाषा बना रखा है। इसलिए हम नकलचियों का देश बन गए हैं। विदेशी भाषा के तौर पर अंग्रेजी के इस्तेमाल में कोई बुराई नहीं है लेकिन उसके पिंजरे में खुद को बंद रखने के कारण भारत जो उड़ान भर सकता था, आज तक नहीं भर पाया। गरुड़ बुलबुल बन गया है।