अनुच्छेद 35ए को खत्म किए जाने की अफवाहों के चलते जम्मू-कश्मीर में कई स्थानों पर स्वतःस्फूर्त बंद देखा गया . इस दौरान पत्थरबाजों और सुरक्षा बलों के बीच छिटपुट झड़पें भी हुईं. खबरों के मुताबिक कई मस्जिदों के लाउडस्पीकर पर अनुच्छेद 35-ए के खत्म होने की घोषणा की गई और लोगों से बंद का आह्वान किया गया.
अनुच्छेद 35ए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली कई याचिकायें सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं. इनमें एक याचिका दिल्ली स्थित ‘वी द सिटिजंस’ नाम की एक गैर-सरकारी संस्था की भी है. इसमें संविधान के अनुच्छेद 35ए और अनुच्छेद 370 को यह कहते हुए चुनौती दी गई है कि इन प्रावधानों के चलते जम्मू-कश्मीर सरकार राज्य के कई लोगों को उनके मौलिक अधिकारों तक से वंचित कर रही है.
जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अनुच्छेद 370 पर तो अक्सर सवाल उठाए जाते हैं लेकिन अनुच्छेद 35ए शायद ही कभी चर्चा का विषय बनता है. इसका मुख्य कारण है कि लोगों को इस अनुच्छेद की जानकारी ही नहीं है. यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर विधानसभा को कई तरह के विशेषाधिकार तो देता है लेकिन इसके चलते वहां के लाखों लोग हाशिये पर भी धकेल दिए गए हैं. अनुच्छेद 35ए और इसके प्रभावों को शुरुआत से समझते हैं.
1947 में हुए बंटवारे के दौरान लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत आए थे. देश भर के जिन भी राज्यों में ये लोग बसे, आज वहीं के स्थायी निवासी कहलाने लगे हैं. लेकिन जम्मू-कश्मीर में स्थिति ऐसी नहीं है. यहां आज भी कई दशक पहले बसे लोगों की चौथी-पांचवी पीढ़ी शरणार्थी ही कहलाती है और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित है.
एक आंकड़े के अनुसार, 1947 में 5764 परिवार पश्चिमी पकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे. इन हिंदू परिवारों में लगभग 80 प्रतिशत दलित थे. यशपाल भारती भी ऐसे ही एक परिवार से हैं. वे बताते हैं, ‘हमारे दादा बंटवारे के दौरान यहां आए थे. आज हमारी चौथी पीढी यहां रह रही है. लेकिन आज भी हमें न तो यहां होने वाले चुनावों में वोट डालने का अधिकार है, न सरकारी नौकरी पाने का और न ही सरकारी कॉलेजों में दाखिले का.’
यह स्थिति सिर्फ पश्चिमी पकिस्तान से आए इन हजारों परिवारों की ही नहीं बल्कि लाखों अन्य लोगों की भी है. इनमें गोरखा समुदाय के लोग भी शामिल हैं जो बीते कई सालों से जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं. लेकिन सबसे बुरी स्थिति वाल्मीकि समुदाय के उन लोगों की है जो 1957 में यहां आकर बस गए थे. उस समय इस समुदाय के करीब 200 परिवारों को पंजाब से जम्मू-कश्मीर बुलाया गया था. कैबिनेट के एक फैसले के अनुसार इन्हें विशेष तौर से सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त करने के लिए यहां लाया गया था. बीते 60 सालों से ये लोग यहां सफाई का काम कर रहे हैं लेकिन इन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता. ऐसे ही एक वाल्मीकि परिवार के सदस्य मंगत राम बताते हैं, ‘हमारे बच्चों को सरकारी संस्थानों में दाखिला नहीं दिया जाता. किसी तरह अगर कोई बच्चा किसी निजी संस्थान या बाहर से पढ़ भी जाए तो यहां उन्हें सिर्फ सफाई कर्मचारी की ही नौकरी मिल सकती है.’
यशपाल भारती और मंगत राम जैसे जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लाखों लोग भारत के नागरिक तो हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता. लिहाजा ये लोग लोकसभा चुनाव में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर में पंचायत से लेकर विधानसभा तक किसी भी चुनाव में भाग लेने का अधिकार इन्हें नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनकड़ बताते हैं, ‘ये लोग भारत के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन जिस राज्य में ये कई दशकों से रह रहे हैं वहां के ग्राम प्रधान भी नहीं बन सकते. और इनकी यह स्थिति उस संवैधानिक धोखे के कारण हुई है जिसे हम अनुच्छेद 35ए के नाम से जानते हैं.’
‘जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र’ के निदेशक आशुतोष भटनागर बताते हैं, ‘14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा एक आदेश पारित किया गया था. इस आदेश के जरिये भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35ए जोड़ दिया गया. यही आज लाखों लोगों के लिए अभिशाप बन चुका है.’ आशुतोष आगे कहते हैं, ‘अनुच्छेद 35ए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा तय कर सके और उन्हें चिन्हित कर विभिन्न विशेषाधिकार भी दे सके. यह अनुच्छेद परोक्ष रूप से विधानसभा को यह अधिकार भी दे देता है कि वह लाखों लोगों को ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा से बाहर रख सके और उन्हें हमेशा के लिए शरणार्थी बनाए रखे.’
अनुच्छेद 35ए (कैपिटल ए) का जिक्र संविधान की किसी भी किताब में नहीं मिलता. हालांकि संविधान में अनुच्छेद 35ए (स्मॉल ए) जरूर है, लेकिन इसका जम्मू-कश्मीर से कोई सीधा संबंध नहीं है. जगदीप धनकड़ बताते हैं, ‘भारतीय संविधान में आज तक जितने भी संशोधन हुए हैं, सबका जिक्र संविधान की किताबों में होता है. लेकिन 35ए कहीं भी नज़र नहीं आता. दरअसल इसे संविधान के मुख्य भाग में नहीं बल्कि परिशिष्ट (अपेंडिक्स) में शामिल किया गया है. यह चालाकी इसलिए की गई ताकि लोगों को इसकी कम से कम जानकारी हो.’ वे आगे बताते हैं, ‘मुझसे जब किसी ने पहली बार अनुच्छेद 35ए के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि ऐसा कोई अनुच्छेद भारतीय संविधान में है ही नहीं है. कई साल की वकालत के बावजूद भी मुझे इसकी जानकारी नहीं थी.’
भारतीय संविधान का बहुचर्चित अनुच्छेद – 370 जम्मू-कश्मीर को कई विशेष अधिकार देता है. 1954 के जिस आदेश से अनुच्छेद 35ए को संविधान में जोड़ा गया था, वह आदेश भी राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 370 की उपधारा (1) के अंतर्गत ही दिया था. लेकिन आशुतोष कहते हैं, ‘भारतीय संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ देना सीधे-सीधे संविधान को संशोधित करना है. यह अधिकार सिर्फ अनुच्छेद 368 के तहत भारतीय संसद को है. इसलिए 1954 का राष्ट्रपति का आदेश पूरी तरह से असंवैधानिक है.’
अनुच्छेद 35ए की संवैधानिक स्थिति क्या है? यह अनुच्छेद भारतीय संविधान का हिस्सा है या नहीं? क्या राष्ट्रपति के एक आदेश से इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ देना अनुच्छेद 370 का दुरूपयोग करना है? इन्हीं तमाम सवालों को लेकर ‘वी द सिटिजंस’ ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की है.
वैसे अनुच्छेद 35ए से जुड़े कुछ सवाल और भी हैं. यदि अनुच्छेद 35ए असंवैधानिक है तो सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 के बाद से आज तक कभी भी इसकी संवैधानिकता पर बहस क्यों नहीं की? यदि यह भी मान लिया जाए कि 1954 में नेहरु सरकार ने राजनीतिक कारणों से इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल किया था तो फिर किसी भी गैर-कांग्रेसी सरकार ने इसे आज तक समाप्त क्यों नहीं किया? इस मामले को उठाने वाले लोग मानते हैं कि ज्यादातर सरकारों को इसके बारे में पता ही नहीं था शायद इसलिए ऐसा नहीं किया गया होगा.
अनुच्छेद 35ए की सही-सही जानकारी आज कई दिग्गज अधिवक्ताओं को भी नहीं है. लेकिन यशपाल भारती और मंगत राम जैसे लाखों लोगों की स्थिति तो आज भी सबके सामने है. पिछले कई सालों से इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. यशपाल कहते हैं, ‘कश्मीर में अलगाववादियों को भी हमसे ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं. वहां फौज द्वारा आतंकवादियों को मारने पर भी मानवाधिकार हनन की बातें उठती हैं. लेकिन हम जैसे लाखों लोगों के मानवाधिकारों का हनन पिछले कई दशकों से हो रहा है और देश को या तो इसकी जानकारी ही नहीं है या सबकुछ जानकर भी हमारे अधिकारों की बात कोई नहीं करता.’
आशुतोष भटनागर कहते हैं, ‘अनुच्छेद 35ए दरअसल अनुच्छेद 370 से ही जुड़ा है. और अनुच्छेद 370 एक ऐसा विषय है जिससे न्यायालय तक बचने की कोशिश करता है. यही कारण है कि इस पर आज तक स्थिति साफ़ नहीं हो सकी है.’ अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेषाधिकार देता है. लेकिन कुछ लोगों को विशेषाधिकार देने वाला यह अनुच्छेद क्या कुछ अन्य लोगों के मानवाधिकार तक छीन रहा है? यशपाल भारती और मंगत राम जैसे लाखों लोगों की स्थिति तो यही बताती है.
साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से