हिंदी जगत विशेष
हिंदी पत्रकारिता की भाषा : कुछ विचार, चंद सवाल
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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हिंदी है युग-युग की भाषा,
हिंदी है युग-युग का पानी।
सदियों में जो बन पाती है,
हिंदी ऐसी अमर कहानी।
हिंदी वह दर्पण है जिसमें,
हर दर्शन ने मुँह देखा है।
प्रकाश जिसको वंदन करता,
हिंदी वह उज्ज्वल रेखा है।
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इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का उत्तरार्ध साक्षी है कि हम कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, मीडिया, सोशल मीडिया के साथ-साथ अब डिजिटल इंडिया की नई पुकार के मध्य, भाषा और संस्कृति के नए परिवेश के निर्माण की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। किन्तु, इस संक्रमणकाल में 2020 का हमारा दृष्टिपथ, विकास की अनंत अपेक्षाओं के मध्य अपनी भाषा से जुड़ी अजेय आशा के संरक्षण के समक्ष चुनौती बनकर खड़ा है। यह चिंता ही नहीं, चिंतन का भी विषय है कि हिंदी के सामान्य प्रयोग से लेकर विविध क्षेत्रों में उसकी अभिव्यक्ति के प्रामाणिक व पाम्परिक मूल्य क्षरित होते जा रहे हैं।
अकस्मात नहीं है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हिंदी को अपने अस्तित्व की रक्षा की चिंता घेरे हुए है। जिस ज्योति को देश के स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रीय नवजागरण के रूप में राजनीतिक मंच पर लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी और अन्य अनेक जनसेवकों व सरस्वती के साधकों ने जलायी और भाषा-साहित्य के मंच पर भारतेंदु, प्रेमचंद और मैथिलीशरण गुप्त आदि ने संभाली, पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपना सर्वस्व बलिदान कर जिसका आलोक दिगंत तक पहुंचाया उस ज्योति को अखंड रखना हम सब का नैतिक दायित्व ही नहीं राष्ट्रीय कर्तव्य भी है।
पत्रकारिता की भाषा का भी मनोवज्ञान है। व्यवहार में भी उससे कुछ अपेक्षाएँ सदैव रही हैं। सर्वमान्य तथ्य है कि पत्रकारिता की भाषा को सीधा, सरल और सहज होना चाहिए।उसे अपने मूल उद्देश्य से भटकना नहीं चाहिए। लेकिन, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कतिपय अपवादों को छोड़ दें तो आज हिंदी पत्रकारिता की भाषा दुर्दम्य संकटकाल का सामना कर रही है। खबरों की यात्रा, भाषा से पूरी तरह बेखबर चल रही है। हिंदी की शुद्धता की प्रतिज्ञा का तो प्रश्न ही नहीं रह गया है। अगर यह कहें कि उसकी अशुद्धता को लेकर प्रतिस्पर्धा-सी चल पड़ी है तो अतिशतयोक्ति न होगी।
हिंदी पत्रकारिता भी भाषा आज अंग्रेजियत से जुदा नहीं है। अखबारों में तो आजकल हिंदी के शीर्षकों के बीच भी अंग्रेजी के शब्द, अंग्रेजी वर्णमाला के अनुरूप ही जड़ देने ही होड़-सी मची हुई है। ऐसा करना आम बात है। भविष्य में कहीं यह न हो कि भाद्गाा की शुद्धता शब्द पर बात करना भी एक अशुद्ध कर्म मान लिया जाए। श्री राजकिशोर का यह मंतव्य झकझोर देने वाला है कि टीवी चैनलों में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जो शुद्ध हिंदी के प्रति सरोकार रखते हैं। प्रथमतः तो ऐसे व्यक्तियों को लिया ही नहीं जाता। ले लेने के बाद उनसे माँग की जाती है कि वे ऐसी हिंदी लिखें और बोलें जो ऑडिएंस की समझ में आए। इस हिंदी का शुद्ध या टकसाली होना जरूरी नहीं है। चूँकि अच्छी हिंदी की माँग नहीं है और समाचार या मनोरंजन संस्थानों में उसकी कद्र भी नहीं है, इसलिए हिंदी सीखने की कोई प्रेरणा भी नहीं है। हिंदी एक ऐसी अभागी भाषा है जिसे न जानते हुए भी हिंदी की पत्रकारिता की जा सकती है।
हिंदी पत्रकारिता का इतिहास गवाह है कि पत्रकारिता की भित्ति तैयार करने वाली पीढ़ी का भाषा-स्वाभिमान कितना प्रखर था। उनमें पुष्ट विवेक था कि हिंदी की शुद्धता और उत्थान का प्रश्न हिंदी भाषी समाज के उत्थान का प्रश्न है। यही कारण है कि समाचार पत्रों की भाषा के प्रति के मूर्धन्य संपादक व पत्रकार सदा सजग रहे। क्षमा याचना सहित मुझे लगता है कि हिंदी पत्रकारिता में आज शुध्दता तो विरल है किन्तु अशुद्धता को वायरल करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी जा रही है। शायद हम यह भूल गए हैं कि पत्रकारिता और भाषा का रिश्ता मौलिक और गहरा है। तभी तो हम यह लिखने, बोलने और प्रसारित करने में कोई संकोच नहीं करते हैं कि बच्चों में झूठ बोलने की हैबिट को दूर करें। या फिर प्रजेंट टाइम में अधिकांश पेरेंट्स अपने चिल्ड्रन्स के झूठ बोलने की हैबिट से परेशान हैं। इतना ही नहीं साइकेट्रिस्ट ने इस हैबिट को दूर करने के कुछ टिप्स बताए, जो पेरेंट्स के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। और रही सही कसर तब पूरी हो जाती है जब हमें हिंदी माध्यमों में यह भी पढ़ाया जाता है कि बच्चों से ऐसे क्वैश्चन नहीं करना चाहिए, जिनके आंसर में झूठ बोलना पड़े। बच्चे से फ्रैंडली रिश्ता बनाएं। वगैरह, वगैरह !
अब जरा सोचें तो सही है पत्र-जगत की हिंदी आखिर कहाँ जा रही है ? हिंदी में इस समय इस पर भी जोर दिया जा रहा है कि आम बोलचाल की भाषा को ही पत्रकारिता की भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाए। साथ ही, बहुत सारे संस्करणों के साथ हिंदी समाचार-पत्रों का दायरा जितना विस्तृत होता जा रहा है, उस पर क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों का प्रभाव हावी हो रहा है। ये क्षेत्रीय भाषाएं भी अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं से बहुत से शब्द लगातार ले रही हैं। फिर समाचार सामग्री को तुरंत परोसने के उतावलेपन में भाषा पर विशेष ध्यान देने की प्राथमिकता बहुत पीछे चली गई है। ऐसे में, हिंदी के अपने शब्द भंडार से सही शब्द ढूंढ़ने की फुरसत किसके पास है। भाषा के गलत प्रयोगों की भरमार कभी, कहीं भी देखी जा सकती है। वर्तनी की एकरूपता की तो अब चर्चा तक नहीं होती। ‘जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य’ अर्थात् पत्रकारिता अब सारे अनुशासनों को भूल चुका है।
कहना न होगा कि हिन्दी पत्रकारिता की यह दशा चिंताजनक व चिंतनीय भी है। इस प्रसंग में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की यह धारणा पुष्ट होती है कि हिंदी को विकृत करना एक लाक्षणिक प्रयोग है। इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि हिंदी में अनुचित शब्दों का अनुचित ढंग से प्रयोग करके कोई उस भाषा को बिगाड़ता है। वस्तुतः बिगाड़ता यदि है तो उस जन समूह को जिसकी भाषा हिंदी है। आज के हालात पर क्या कहें ? पत्रकारिता की मूल मर्यादा और भाषा अनुशासन की तो बात करना भी जैसे अपराध की तरह है।
हिंदी की अस्मिता के आजीवन सम्पोषक रहे स्व.वियोगी हरि के इन शब्दों के साथ इस आलेख का समाहार करना उपयुक्त प्रतीत होता है – जब हिंदी उपेक्षित और अपमानित थी, तब उसको इसलिए शक्ति मिलती थी कि वह विद्रोह की भाषा थी और अनवरत संघर्ष उसे मांजता था। अब उसे हमें मांजना है, नहीं तो वह मैली होगी। तूफान में नाव को तैरते रखना ही सबसे बड़ा कर्तव्य होता है, लेकिन जब तूफान नहीं होता तब केवल तैरने से ही नाव कहीं नहीं पहुँच जाती, उसे खेना होता है, और ठीक दिशा में खेना होता है, जिसके लिए नक्शों की आवश्यकता होती है, और दिग्दर्शकों की, और कर्णधारों, और समर्थ मल्लाहों की।
हिंदी पत्रकारों की नई पीढ़ी को पत्रकारिता की भाषागत नाव को सही दिशा में खेने के विवेक के प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना होगा।
अंत में भवानी प्रसाद मिश्र जी के शब्दों में बस इतना ही –
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।
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लेखक शासकीय दिग्विजय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, राजनांदगाँव में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हैं)
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