अंग्रेजों ने 1757 से ले कर 1947 तक हिंदू धर्मं ग्रंथों के संर्दभों, उनकी नैतिक मान्यताओं, आचार-विचार, परंपरा, विरासत को अपनाते हुए एंग्लो-हिंदू कानून बनाए। तभी निज सिविल कोड की आईपीसी धाराओं में शादी के सात फेरों की प्रतिज्ञा, पवित्रता का ध्यान रख व्यभिचार को जुर्म माना। सो, सन् 1757 से 1947 के करीब दो सौ वर्षों में अंग्रेजों ने रिश्ते, आचरण-व्यवहार, वैल्यू, आचार-विचार में हिंदू प्रजा पर न्याय व्यवस्था के जरिए जिस तरह राज किया उस पर आज यदि समग्रता से विचार करें तो वह हिंदू धर्म-समाज का मुझे अब स्वर्णकाल समझ आ रहा है। सोचें, इसी काल में छह सौ या एक हजार साल की गुलामी, बिखराव के बाद हिंदुओं में पहली बार अपने धर्म-समाज पर विचार, अपने राज, अपनी राजनीति की राज्येंद्रियां जागीं। अखंड या आजाद भारत का विचार बना। हिंदू समाज में स्वंयस्फूर्त सुधारों के आंदोलन हुए। जात व्यवस्था को तोड़ने के संकल्प हुए। जात तोड़ो, छुआछूत खत्म करो, जैसे विचारों के सौ फूल खिले। लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता आजादी का भभका बना। और वह सब था हिंदुओं के उच्च वर्ग मतलब ब्राह्मण-बनियों की बदौलत।
वाह! बात-बात में क्या बात निकली जा रही है! शादी के बीच व्यभिचार के एक फैसले ने सोचने के कई आयाम बना डाले। न्याय व्यवस्था की इस सीरिज में अब यह विचार आधारपूर्णता से पुख्ता बनता है कि अंग्रेजों के चलते हिंदुओं को क्या खूब पंख लगे जो हम हिंदुओं में समाज, धर्म सुधार, स्वतंत्रता, समानता के सौ तरह के फूल खिले और ब्राह्मण-बनियों के नेतृत्व याकि बौद्विक नेतृत्व का वह गजब कमाल था, जिसने समाज को अधिक समरस बनाया। ब्राह्मण-बनियों ने खुद दलितों के उत्थान का, शोषण को मिटाने का बीड़ा उठाया। और कोई माने या न माने 1947 से पहले ब्राह्मण-बनियों की पहल, उन्हीं से बनी सर्वानुमति थी, जिसने दलित आरक्षण, लैंगिक समानता, सभी वयस्कों के मताधिकार जैसे अधिकार आजाद गणतंत्र में उतारे।
पृष्ठभूमि, बैकग्राउंड में इस सबकी वजह क्या थी? कोई सहमत हो या न हो, मेरा मानना है कि वह हिंदू महामनाओं का हिंदू धर्म की उस गंगा का हिस्सा होना था, जो भारत भूभाग में जीवन और समाज की अनिवार्यता है। अंग्रेज ने हिंदू धर्म ग्रंथों, उससे समाज-निज व्यवहार की संहिताओं की चेतना बनवाई तो उसी से फिर अपने आप यह विचार गंगा शुरू हुई कि हिंदू कैसे हो स्वतंत्र, कैसे वह बेखौफ बने, कैसे हिंदू की दबी-कुचली-गुलाम राज्येंद्रियां जाग्रत हों और वह, उसका समाज, वक्त अनुसार सुधरे व बदले।
अधिकांश विद्वान मानते हैं कि सब अंग्रेज प्रभाव, बदलते वक्त के चलते हुआ। पर यह आंशिक सत्य है। बड़ा कारण हिंदू चेतना, बोध का जगना था। तिलक हो या गांधी मतलब गरमपंथी नेता हों या नरमपंथी, कम्युनिस्ट एसए डांगे हों या समाजवादी नरेंद्र देव, लोहिया, क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद हो या अंग्रेज रंग-ढंग में ढले नेहरू हों, विचारक स्वामी दयानंद हों या महर्षि अरविंद, हिंदुवादी वीर सावरकर हों या पंडित मदन मोहन मालवीय सभी किस्म के तमाम ब्राह्मण-बनियों और बाकी जातियों के भी प्रतिनिधि नेताओं ने उस वक्त जो सोचा उसमें हूक हिंदू होने के अस्तित्व से थी। यदि आप महात्मा गांधी को स्वतंत्रता आंदोलन का नंबर एक नेतृत्वकर्ता मानें तो गांधी ने तो आजादी की लड़ाई में हिंदू धर्मं ग्रथों की सीख, उसके आचार-विचार, प्रतीकों, व्यवहार को ही मंत्र बनाया था। सब नेता तब हिंदू चेतना लिए हुए थे।
मतलब 1757 से ले कर 1947 के बीच भारत याकि हिंदुओं का राजनीतिक विकास, हिंदू जागृति, धर्म ग्रंथ मीमांसा, मनुस्मृति से चले आ रहे सामाजिक कायदे, धर्म आधारित जीवन संहिता, रिश्ते-व्यवहार के लिए बने एग्लो-हिंदू कानून हों या रामराज्य, ग्राम स्वराज की तमाम तरह की बातों, कर्म व अवधारणाओं में मर्म था हिंदू का। गुठली थी हिंदू धर्म के चिंतन की। तभी हिंदू की इतिहास चेतना बनी। सपने बने। राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य बने।
और वह हिंदू मर्म 15 अगस्त 1947 की आधी रात को हवा में उड़ गया। अंग्रेजों के बनाए कानून जरूर बने रहे लेकिन हिंदू विरासत, संस्कार, नैतिक आग्रह का मर्म उड़ गया। संविधान सभा, संविधान, गणतंत्र और न्याय व्यवस्था याकि भारत राष्ट्र-राज्य का जन्म तब वैसे ही हुआ जैसे बाइबल में पृथ्वी का जन्म बतलाया गया है। मतलब सब कुछ तुरत-फुरत, अचानक निर्मित। धर्म, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, संस्कार सबको स्लेट से पोंछ खाली स्लेट पर एक नई रचना याकि बाइबल की कहानी की तरह छह दिन में पृथ्वी याकि भारत राष्ट्र का अस्तित्व में आना। प्रगतिशीलता, स्वतंत्रता, समानता जैसे जुमलों, उसके पश्चिमी टैंपलेट पर संविधान की वह किताब बनी, जिस पर पुरातनपंथ के नाम पर पुराना सब खारिज और शुरू हुआ प्रजा, राज्य, व्यवस्था का एकदम आदेशात्मक अंदाज में संचालन।
जाहिर है अंग्रेजों के 1757 से 1947 तक का राज हिंदू गुठली से प्रस्फुटित था। उसके बाद ठीक विपरीत 15 अगस्त 1947 के बाद सौ टका आयातित टैंपलेटों, जुमलों, अवधारणाओं, प्रगतिशीलता की नकल पर लिखित, कागजी, संविधान रचना हुई। अब जरा तुलना करें हिंदू गुठली पर बने एंग्लो-हिंदू न्याय व्यवस्था के 200 साल के अनुभव बनाम कागजी संविधान के 70 साल के अनुभव के फर्क पर! पिछले 70 सालों में बतौर राष्ट्र, उसकी व्यवस्था, और उसके नागरिकों खास कर सौ करोड हिंदुओं के आचरण का हमारा जो अनुभव है उसके सत्य पर जरा सरसरी निगाह से भी विचार करें। क्या उसकी हकीकत यह नहीं है कि 70 सालों में समाज अधिक बिखरा है? परस्पर लूट- खसोट, जिसकी लाठी उसकी भैंस की व्यवस्था बनी है। जातियों में लठ्ठमार है। घर-परिवार रिश्तों में टूट, स्वच्छंदता, भ्रष्टता का ट्रेंड है। बतौर कौम, बतौर धर्म, बतौर राष्ट्र मूर्खताओं में जी रहा है या झूठ, फरेब और शोषण! आजाद भारत की कथित सेकुलर, समतावादी, आजाद, प्रगतिशील बातों ने देश को ऐसे खंडहर में परिवर्तित किया है कि जिस भी खांचे, जिस क्षेत्र, महल के जिस भी हिस्से पर गौर करेंगे तो भूतहा प्रेत-नृत्य मिलेगा और खौफ, निराशा, हताशा, लड़ाई में लोगों की सांस अटकी मिलेगी।
ये शब्द अतिवादी लग सकते हैं। लेकिन सोचें कि किस क्षेत्र में, किस व्यवहार में, किस रिश्ते में हम उस ईमानदारी, सत्यवादिता, सद्भाव, समरसता, समभाव, सद्विचार का अनुभव करते हैं जो हिंदू गुठली का मूल हुआ करता था। पहले धर्म और भक्ति मार्गदर्शक भी थी। सनातनी आचार-विचार लिए हुए थी। लेकिन 70 सालों के कायदों-नियम ने तो धर्म को भी भ्रष्ट, शोषक, गुमराह करने वाला बना दिया है।
इस सबका याकि पिछले 70 सालों के ढर्रे का कुल परिणाम सवा सौ करोड़ लोगों के जीवन की बेहाली है। लूट की भूख है। मूर्ख बनाने के मंत्र हैं। समानता के नाम पर सामाजिक खुन्नस है। अधिकार और आजादी के नाम पर कदाचार- यौनचार की स्वच्छंदता और बेलगाम भूख है। सबसे त्रासद और आने वाले पीढ़ियों के मद्देनजर वह सिनेरियो है, जिसमें लावारिस हिंदू की अगली पीढ़ियों के लिए जीवन और अधिक लावारिस होगा। सुकून, शांति, प्राप्ति की बजाय आने वाले वक्त में जीना भूख, झगड़े, कलह के अदालती चक्करों से भरा हुआ होगा।
हां, हम हिंदुओं के निज जीवन को सुकून, शांति, अध्यात्म की बजाय 70 सालों ने थानों, अदालतों की तरफ शिद्दत से धकेला है। हर बात को कानूनी कार्रवाई का बंधक बना डाला है। इसके चलते अगले सौ-पांच सौ सालों याकि आने वाली पीढ़ियों में घर-परिवारजनों के रिश्ते मेरी मर्जी मेरा सेक्स, लैंगिक समानता, भूख, दहेज, तलाक आदि के चलते थाना, अदालत, जेल में जैसे चक्कर लगाएगा वह हिंदू चेतन, अवचेतन को और गुलाम, भयाकुल बनाने वाला होगा। फिर भले वह किसी भी जाति का है। यदि इसकी अभी बानगी देखना चाहे तो किसी दिन दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट या महानगरों की परिवार अदालतों के बाहर कोर्ट शुरू होने के वक्त की भीड़ को देखें। उसमें रिश्ते तोड़े नौजवान चेहरों को, बड़े-बूढ़ों की बेबसी व लाचारी को देखेंगे तो समझ आएगा 70 साल की न्याय व्यवस्था ने संस्कार, नैतिक बल, मूल्य, जीने का क्या तरीका बनाया? हम हिंदू आज जीने के कैसे धर्म में जी रहे हैं?
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