मुंबई ऐसा शहर हैं जहाँ कला-संस्कृति, संगीत से लेकर ग्लैमर की जगमगाती दुनिया के हर रंग के आयोजन होते हैं। यहाँ फिल्मी चकाचौंध से भरे कार्यक्रमों में तो भीड़ हो जाना कोई खास बात नहीं लेकिन ध्रुपद जैसी शुध्द शास्त्रीय शैली के गायन को सुनने के लिए शनिवार की शाम वर्ली स्थित नेहरु सेंटर का सभागार खचाखच भरा हो तो सुखद आश्चर्य होता है।
मुंबई के कोने-कोने से आए सुधी श्रोताओं ने भोपाल से आए उमाकांत व रमाकांत गुंदेचा बंधु के ध्रुपद गायन को सुनने के लिए दो घंटे तक बैठे रहे श्रोताओं के लिए ये एक ऐसा शास्त्रीय अनुभव था जो अद्भुत, सुहावना, रंजक होने के साथ ही ध्यान की गहराई में गोते लगाने जैसा था। वर्ण, अलंकार, गान क्रिया, यति, वाणी, लय, आदि जहां ध्रुव रूप में परस्पर एक दूसरे से गुँथे रहे, उन गीतों को ध्रुवा कहा जाता है तथा शास्त्रीय नियमों का पालन कर इसे गाए जाने पर ये ध्रुपद बनाता है।
गुंदेचा बंधुओं ने अपने गायन से इन शास्त्रीय तत्वों से ध्रुपद के रस से श्रोताओं को जिस तरह भिगोया उसका आस्वाद लंबे समय तक उनके मन को रससिक्त बनाए रखेगा। गुंदेचा बंधुओं की प्रस्तुति का कमाल ये था कि स्वर मानों उनके कंठ से नहीं भावों की गहराई से निकलकर श्रोताओं के मन की गहराई को सम्मोहित कर रहे थे। कुल मिलाकर ये प्रस्तुति एक गहरे ध्यान की अनुभूति जैसी थी।
इस कार्यक्रम का आयोजन जयपुर जेम्स चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा संचालित संस्था उगम द्वारा किया गया था। जयपुर जेम्स के श्री पद्म सचेती व श्रीमती मंजू सचेती को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि एक जौहरी के रुप में खदानों से निकले हीरे की परख करने के साथ ही उनका परिवार मुंबई में शास्त्रीय संगीत के गुणी कलाकारों की पहचान कर उनकी साधना, कला और शास्त्रीय संस्कारों से मुंबई के रसिक श्रोताओं से जोड़ने में अहम भूमिका निभाता है। जयपुर जेम्स चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा इस अवसर पर शास्त्रीय संगीत सीखने वाले कई छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्ति भी प्रदान की गई।
कार्यक्रम का शुभारंभ पद्मभूषण मुस्तफा खान, पद्म भूषण एन राजम, पं. शिव कुमार शर्मा, पं. हरिप्रसाद चौऋषिया व श्री पद्म सचेती ने दीप प्रज्ववित कर किया।
गुंदेचा बंधुओं ने अपने गायन की शुरुआत परंपरागत आलाप से की और स्वरों को विलम्बित लय में विस्तार करने नोम, तोम के साथ जोड़, झाला के रूप में इसे ऊँचाई तक ले जाते हुए उपस्थित श्रोताओं के साथ एक ऐसा सरस तादात्म्य स्थापित किया कि कार्यक्रम के अंत तक श्रोता ध्रुपद की इस अद्भुत रसवर्षा से भीगते रहे।
इसके बाद राग भूपाली में तू ही सूर्य तू ही चांद, तू ही पवन, तू ही गगन, तू ही आकाश की परंपरागत बंदिश से श्रोताओं को ध्रुपद के एक नए रंग का आस्वाद मिला। राग दुर्गा में आदि शिव शक्ति महामाया, महाकाली, कल्याणी, चंड मूल महिषासुर मर्दनी, उमा गौरी तरन तारन की प्रस्तुति से श्रोताओं को शास्त्रीय संगीत की धारा में बहाते रहे। प्रस्तुति का समाहार उन्होंने राग चारुकेशि में कबीर दासजी के भजन झीनी झीनी रे चदरिया से करते हुए गायन के शिखर को छू लिया।
तानपुरा पर जुलकर नाईन और अपराजिता चक्रवर्ती की संगत जहाँ स्वरों को प्रवाहमान बना रही थी वहीं पखावज पर श्रीमंत छतच्रपति सिंह जू देव के पटु शिष्य श्री अखिलेश गुंदेचा और ज्ञानेश्वर देशमुख ने गुंदेचा बंधुओँ के स्वरों से ताल मिलाते हुए एक दूसरे से भी संगत करते रहे।
गुंदेचा बंधु किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उम्र के जिस दौर में लोग अपने कैरियर को ऊँचाई देने के लिए बेहतरीन नौकरी की तलाश में लगे रहते हैं, उस दौर में गुंदेचा बंधुओं ने ध्रुपद जैसी, शास्त्रीय गायन शैली को सीखने में अपनी जवानी होम कर दी और आज पूरी दुनिया में ध्रुपद की गायन गंगा से लाखों-करोड़ों रसिक श्रोताओं को डुबकी ही नहीं लगवाई है बल्कि भोपाल में ध्रुपद सीखने के लिए गुरुकुल ही स्थापित कर दिया है ताकि दुनिया का कोई भी व्यक्ति यहाँ आकर ध्रुपद सीख सके।
गुंदेचा बंधुओं को ध्रुपद सीखने के लिए कई पापड़ बेलने पड़े और जब उन्होंने ध्रुपद के माध्यम से अपने आपको स्थापित कर लिया तो पहला काम ये किया कि ध्रपुद सीखने वाले किसी भी जिज्ञासु को कहीं भटकना न पड़े। इसके लिए एक ऐसे सर्वसुविधायुक्त गुरुकुल की स्थापना की जहाँ गुरू-शिष्य परंपरा के माध्यम से कोई भी आकर ध्रपुद सीख सके। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में तीन एकड़ के क्षेत्र में गुंदेचा बंधुओं ने गुरु-शिष्य परंपरा से ध्रुपद सिखाने के लिए 4 नवंबर 2004 में ध्रुपद गुरुकुल की स्थापना की।
आज उनके इस ध्रुपद गुरूकुल में भारत सहित दूसरे देशों से आए 40 छात्र-छात्राएँ ध्रुपद की बारिकियाँ पूरी श्रध्दा और निष्ठा से सीख रहे हैं। इन छात्रों में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके बांगालादेश से आया छात्र भी है तो वकालात की पढ़ाई करने वाले छात्र भी। यानि जिन छात्र-छात्राओं ने अपने कैरियर की एक अच्छी-भली राह चुन ली थी, वो सब छोड़कर इन योग्य गुरूओं के मार्गदर्शन में गुरूकुल के अनुशासन में रहकर ध्रुपद सीख रहे हैं। इस गुरुकुल में उन्होंने संगीत से जुड़ी पुस्तकों के साथ ऑडियो-वीडियो लाइब्रेरी की खी सुविधा भी उपलब्ध कराई है।
वर्ष 2012 में उमाकांत गुंदेचा और रमाकांत गुंदेचा को ध्रुपद में विशेष योगदान के लिए पद्मश्री से अलंकृत किया गया।
कर्नाटक के डागर घराने ने ध्रुपद गायकी को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उस्ताद स्व. फरीद उद्दीन और स्व. मोईन उद्दीन डागरने ध्रुपद को आज के दौर में एक नई ऊंचाई प्रदान की। गुंदेचा बंधु स्वर्गीय डागर बंधुओं के ही पटु शिष्य हैं।