1993 में मुंबई आतंकी हमले के एक मुख्य दोषी याकूब मेमन को फांसी से बचाने के लिए अनेक बुद्धिजीवियों, नेताओं और प्रोफेसरों ने राष्ट्रपति से एक अपील जारी की है। रोचक तथ्य यह है कि इनमें अनेक वे बुद्धिजीवी भी शामिल हैं, जिन्होंने जून 2002 में एक और सामूहिक अपील जारी की थी। वह अपील थी : डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति न बनाने की!
जी हां, अभी जो लोग लगभग तीन सौ निरीह लोगों की हत्या में संलग्न प्रामाणिक आतंकी योजनाकार याकूब मेमन के पक्ष में खड़े थे, उन्हीं स्वनामधन्य बुद्धिजीवियों, नेताओं ने डॉ. अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाए जाने का विरोध भी किया था। यह शिक्षात्मक प्रसंग है, जिससे हमें नकली बौद्धिकों की असलियत पहचाननी चाहिए। उनकी समझ, योग्यता और वास्तविकता की असलियत। डॉ. कलाम का विरोध करते हुए इन्हीं लोगों ने कहा था कि डॉ. कलाम का रुख 'सामाजिक मुद्दों पर बचकाना और भटकाने वाला" है और इनका राष्ट्रपति बनना 'शांति, सेक्युलरिज्म और लोकतंत्र के हित में नहीं होगा।"
उस बयान को सालों बीत चुके हैं। तबसे डॉ. कलाम ने देश के लिए जो किया और अपने जीवन के अंतिम क्षण तक जो कुछ वह करते रहे, क्या उसके प्रकाश में हमें इन बुद्धिजीवियों, नेताओं का मूल्याकंन नहीं करना चाहिए, जो डॉ. कलाम को अशांति, सांप्रदायिकता और तानाशाही का पक्षधर बताते थे? क्या ठीक उसी मूल्यांकन से हमें यह भी नहीं समझना चाहिए कि अभी याकूब मेमन जैसे लोगों को माफी देने की पैरवी का मतलब क्या होगा? यही लोग अफजल गुरु के लिए भी धरने पर बैठे थे, जिसने संसद पर आतंकी हमले को अंजाम दिया और जिसका उसे कोई पछतावा भी नहीं था।
इसलिए याकूब मेमन, अफजल के पक्ष में और डॉ. अब्दुल कलाम के विरुद्ध खड़े होने वाले बुद्धिजीवियों, नेताओं की वास्तविक भूमिका को हमें समझना चाहिए। अभी याकूब के पक्ष में अपील करते हुए एक ने यह भी कहा कि 'याकूब को माफी दे देना डॉ. कलाम को श्रद्धांजलि देने जैसा होगा।" यह बिलकुल झूठी बात है और ऐसे बुद्धिजीवियों के घातक अज्ञान और समाज-विरोधी भूमिका का प्रमाण भी।
वास्तव में स्वयं डॉ. कलाम ने ही ठीक आतंकवादी घटनाओं पर ही कहा था : 'न भूलो, न क्षमा करो।" सच कहें तो यही मानवतावादी और व्यावहारिक दर्शन है। आतंकवादियों को माफी का मतलब है आगे पुन: हमलों को निमंत्रण देना। जो देश जिहादियों, नक्लसियों, आतंकवादियों के प्रति कठोर रहे हैं, वहीं लोग अधिक सुरक्षित रहे हैं। इसके विपरीत जिन देशों ने ऐसे लोगों के प्रति नरम रवैया दिखाया, वहां की जनता निरंतर आतंकी हमले झेलने के लिए अभिशप्त रही है। भारत इसी का उदाहरण है। कश्मीर से केरल और असम से महाराष्ट्र तक कितने आतंकी प्रहार हम पर हुए हैं, इसका हिसाब वे बुद्धिजीवी कभी नहीं करते। दिखाने पर भी वे इसका दोष 'इंडियन स्टेट" पर डालने की धृष्टता करते हैं। यानी उसी पर, जिससे अभी वे याकूब को माफी दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
दरअसल डॉ. कलाम के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी उनकी शिक्षाओं को राष्ट्रीय जीवन और नीति-निर्माण में स्थान देना। साथ ही, स्वयं उनके जीवन-व्यवहार से सीखना। जिस तरह उन्होंने जीवनपर्यंत केवल देश, समाज और मानवता के हित की चिंता की, उससे एक दार्शनिक, संन्यासी की छवि बनती है।
राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ. कलाम ने जो आचरण और आदर्श प्रस्तुत किया, वह प्लेटो के 'फिलॉसफर-किंग" (दार्शनिक राजा) से बखूबी मिलता है। प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य के खाके में शासक-संरक्षक के जो गुण बताए थे, वे सभी के सभी राष्ट्रपति कलाम के कार्य-व्यवहार में मिलते हैं। निजी संपत्ति और परिवार से दूर रहना तथा सदैव समाज की भलाई के लिए सोचना एवं कार्य करना। ठीक यही राष्ट्रपति कलाम ने अपने कार्यकाल और उसके बाद भी जीवन की अंतिम सांस तक किया।
क्या उन विख्यात मार्क्सवादी प्रोफेसरों, सेक्युलरवादी नेताओं ने कभी अपनी भूल मानी कि डॉ. अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने का विरोध करके उन्होंने गलती की थी? कि उनका मूल्यांकन भ्रामक था? कि कलाम को युद्धवादी, अंधराष्ट्रवादी, सैन्यवादी और पता नहीं कितनी भयानक प्रवृत्तियों का प्रतीक बताना भारी अज्ञान था? जी नहीं, उल्टे उन्होंने 2007 में डॉ. कलाम को दूसरा कार्यकाल देने का भी पुन: विरोध किया था। उन्हें डॉ. कलाम का स्वतंत्रचेता, सत्यनिष्ठ और कर्तव्यनिष्ठ होना ही पसंद नहीं था। इसीलिए कलाम के बदले उन्होंने पार्टी-बंदी निभाने वाले 'प्रोफेशनल" कांग्रेसी को राष्ट्रपति बनाया।
साथ ही, डॉ. कलाम के उदाहरण से भी सीख लेनी चाहिए कि सही जगह पर सही व्यक्ति नियुक्त करने का कौटिल्य-सिद्धांत या प्लेटो-सिद्धांत कितना कारगर है! अपने जीवन में डॉ. कलाम ने जो कहा, किया वह गंभीरता से शोध करने और समुचित निष्कर्ष निकालने का विषय है। पहली बार ऐसा राष्ट्रपति देश को मिला, जिसने नई पीढ़ी को छूने में और प्रेरित करने में अभूतपूर्व सफलता पाई। यदि राष्ट्रपति कलाम एक प्रतिशत बच्चों, युवाओं में भी अच्छाई, कर्तव्यनिष्ठा, राष्ट्रप्रेम और आदर्श के बीज बोने में सफल हुए हों तो उन्होंने देश को भविष्य में अपने जैसे असंख्य नागरिक देने का उपाय कर दिया। उन्होंने समाज के हर तबके में कर्तव्यबोध पैदा करने का प्रयत्न किया।
हमारे देश में प्रतिभाओं, चरित्रवान लोगों की कमी नहीं है। समस्या है उन्हें ढूंढ़ने तथा उचित स्थान देने की। इसकी कभी, कोई चिंता नहीं हुई। ठीक जगह पर ठीक व्यक्ति रहे, इसके लिए स्वतंत्र भारत में आरंभ से ही कोई उपाय नहीं किया जा सका। हर महत्वपूर्ण पद को लाभ देने-लेने का पुरस्कार मात्र मान लिया गया। प्रथम प्रधानमंत्री ही किसी के विशेष प्रिय-पात्र होने के कारण पद पा गए थे। फिर उन्होंने अपने चहेतों को महत्वपूर्ण स्थानों पर रखने की राजनीतिक संस्कृति की नींव डाल दी। धीरे-धीरे वह घातक रोग राज्यतंत्र के हर अंग में फैल गया। यह एक असुविधाजनक, किंतु कड़वा सच है। योग्य के बदले प्रिय पात्र हमारी राजनीति का दिशा-निर्देशक बन गया। प्रिय व्यक्ति, जाति या समुदाय को प्रश्रय। उसी राजनीतिक संस्कृति को सेक्युलरवाद, जनवाद आदि कहा गया। डॉ. कलाम का विरोध और याकूब मेमन का समर्थन उसी गांधी-नेहरूवादी संस्कृति का नमूना है, जिसकी जड़ें हमारे बौद्धिक-राजनीतिक जीवन में गहरे जमी हैं। नई सरकार को इसे निर्मूल करने पर भी ध्यान देना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
साभार- http://naidunia.jagran.com/