प्रेम के गीत गुनगुनाने वाली मखमली आवाज़, जो जाफरान की तासीर से तरन्नुम बना देगी, कश्यप की घाटी, पानी की नगरी या शंकराचार्य की भूमि के रूप में, लालचौक से क्रांति कहती जमीं हो चाहे, डल झील से टपकते पानी की बात होगी, शिकारों और तैरनेवाले घर (हाउस बोट) की सर्द रातों को याद किया जाएगा, चश्मे शाही में पत्थरों से रिसते पानी की चाह होगी, मुगल गार्डन को जेहन में उतारा जायेगा, फूलों के महकने को जब जीवन में उतरता देखा जाएगा, तब बेशक वादी की बर्फ से लेकर कहवे की महक का जायका लेकर कश्मीर की क्यारियों को ही याद किया जाएगा।
समृद्धशाली इतिहास का झरोखा हो चाहे विस्तृत पौराणिक कहानियों में वादी का जिक्र, सभी जगह केवल प्रेम गीत ही गुंजायमान होते है, ऐसे धरती के स्वर्ग के जीवन यापन का मुख्य आधार यहाँ के सौंदर्य को निहारने आने वाले पर्यटक ही तो है। पानी से निकलने वाला स्थान यानी कश्मीर जिसकी वादियों में बसा है समृद्ध इतिहास और यहाँ का सौंदर्य स्वमेव ही पर्यटकों को आकर्षित करता है। प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालक राज्य रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान शिव की पत्नी देवी सती रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक ऋषि कश्यप और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी वितस्ता (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम सतीसर से कश्मीर पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था, इसी से कश्मीर नाम निकला।
कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास कल्हण के ग्रंथ राजतरंगिणी से मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ आर्य राजाओं का राज था। मौर्य सम्राट अशोक और कुषाण सम्राट कनिष्क के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट ललितादित्य ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा। कश्मीर शैवदर्शन भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहां के महान मनीषीयों में पतञ्जलि, दृढबल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज आदि हैं। यह धारणा है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं योग वासिष्ठ यहीं लिखे गये।
स्थानीय कहानियों के माध्यम से यहाँ के लोगों का विश्वास है कि इस फैली हुई घाटी के स्थान पर कभी मनोरम झील थी जिसके तट पर देवताओं का वास था। एक बार इस झील में ही एक असुर कहीं से आकर बस गया और वह देवताओं को सताने लगा। त्रस्त देवताओं ने ऋषि कश्यप से प्रार्थना की कि वह असुर का विनाश करें। देवताओं के आग्रह पर ऋषि ने उस झील को अपने तप के बल से रिक्त कर दिया। इसके साथ ही उस असुर का अंत हो गया और उस स्थान पर घाटी बन गई। कश्यप ऋषि द्वारा असुर को मारने के कारण ही घाटी को कश्यप मार कहा जाने लगा। यही नाम समयांतर में कश्मीर हो गया। निलमत पुराण में भी ऐसी ही एक कथा का उल्लेख है। कश्मीर के प्राचीन इतिहास और यहां के सौंदर्य का वर्णन कल्हण रचित राज तरंगिनी में बहुत सुंदर ढंग से किया गया है। वैसे इतिहास के लंबे कालखंड में यहां मौर्य, कुषाण, हूण, करकोटा, लोहरा, मुगल, अफगान, सिख और डोगरा राजाओं का राज रहा है। कश्मीर सदियों तक एशिया में संस्कृति एवं दर्शन शास्त्र का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा और सूफी संतों का दर्शन यहां की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।
मध्ययुग में मुस्लिम कश्मीर आए और यही के निवासी हो गये। मुसल्मान शाहों में ये बारी बारी से अफ़ग़ान, कश्मीरी मुसल्मान, मुग़ल आदि वंशों के पास गया। मुग़ल सल्तनत गिरने के बाद से सिख महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में शामिल हो गया। कुछ समय बाद जम्मू के हिन्दू डोगरा राजा गुलाब सिंह डोगरा ने ब्रिटिश लोगों के साथ सन्धि करके जम्मू के साथ साथ कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया। डोगरा वंश भारत की आज़ादी तक कायम रहा।
भारत का यह ख़ूबसूरत भूभाग मुख्यतः झेलम नदी की घाटी (वादी) में बसा है। भारतीय कश्मीर घाटी में छः ज़िले हैं: श्रीनगर, बड़ग़ाम, अनन्तनाग, पुलवामा, बारामुला और कुपवाड़ा। कश्मीर हिमालय पर्वती क्षेत्र का भाग है। जम्मू खण्ड से और पाकिस्तान से इसे पीर-पांजाल पर्वत-श्रेणी अलग करती है। यहाँ कई सुन्दर सरोवर हैं, जैसे डल, वुलर और नगीन। यहाँ का मौसम गर्मियों में सुहावना और सर्दियों में बर्फ़ीला होता है। इस प्रदेश को धरती का स्वर्ग कहा गया है। एक नहीं कई कवियों ने बार बार कहा है: गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त।
इस इतिहास के बाद भी पर्यटन और हस्तशिल्प कश्मीर का परपंरागत उद्योग है। कश्मीर के प्रमुख हस्तशिल्प उत्पादों में काग़ज़ की लुगदी से बनी वस्तुएं, लकड़ी पर नक़्क़ाशी, कालीन, शॉल और कशीदाकारी का सामान आदि शामिल हैं। हस्तशिल्प उद्योग से काफ़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित होती है। हस्तशिल्प उद्योग में 3.40 लाख कामगार लगे हुए हैं। उद्योगों की संख्या बढ़ी है। करथोली, जम्मू में 19 करोड़ रुपये का निर्यात प्रोत्साहन औद्योगिक पार्क बनाया गया है। ऐसा ही एक पार्क ओमपोरा, बडगाम में बनाया जा रहा है। जम्मू में शहरी हाट हैं जबकि इसी तरह के हाट श्रीनगर में बनाए जा रहे है। राग्रेथ, श्रीनगर में 6.50 करोड़ रुपये की लागत से सॉफ्टेवयर टेक्नोलॉजी पार्क भी शुरू किया गया है। पर्यटन, कश्मीरी अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा है। धरती के स्वर्ग के नाम से मशहूर, कश्मीर के पर्वतीय परिदृश्य सदियों से पर्यटकों को आकर्षित करते रहे हैं। डल झील, श्रीनगर पहलगाम, गुलमर्ग, यूसमार्ग और मुग़ल गार्डन आदि पर्यटकों को आकर्षित करने वाले स्थल है।
कश्मीर के पर्यटन उद्योग पर नज़र डाली जाए तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कश्मीर में आने वाले पर्यटकों में बड़ा हिस्सा हिंदुस्तान के हिन्दीभाषी राज्यों से आता है। सरकारी आंकड़ों पर नज़र डाले तो भी यह बात सिद्ध होती है कि ७० प्रतिशत से ज्यादा पर्यटक हिन्दीभाषी होते है। और ऐसे में कश्मीरी यदि अपने राज्य में हिन्दी विद्यालयों का विरोध करेंगे तो निश्चित तौर पर वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे है। क्योंकि भाषा का किसी मजहब या जाति से कोई वास्ता नहीं होता है। कश्मीरी बच्चें यदि हिन्दी भाषा नहीं सीखेंगे तो कैसे वे हिंदुस्तानी पर्यटकों से संवाद स्थापित कर पाएंगे। जब संवाद में कठिनता होगी तो पर्यटक आना भी कम हो जायेंगे इसका उदाहरण दक्षिण भारत है। जहाँ संवाद माध्यम में हिंदुस्तानी भाषा का शामिल नहीं होना ही पर्यटकों को वहाँ न जाने पर मजबूर कर चूका है और बीते ३ दशकों में दक्षिण भारत के पर्यटन उद्द्योग पर भारी बट्टा लगा है।
यही हाल आने वाले समय में कश्मीर का भी हो सकता है क्योंकि जिस तरह कश्मीर में हिन्दी को लेकर हालत पैदा किए जा रहे है, बच्चों को हिन्दी न सिखने के लिए दबाव बनाया जा रहा है, यहाँ तक कि हिंदी के उत्थान के लिए कार्य करने वाली संस्थानों को सहयोग न करना, बैंक, रेडियों, शासकीय उपक्रमों द्वारा हिंदी की स्वीकार्यता पर प्रश्न लगाना कश्मीर के भविष्य यानी समृद्ध पर्यटन पर हमला करना है। और यदि कश्मीर में हिन्दी की स्वीकार्यता लाई जाती है और हिन्दी को बढ़ावा दिया जाता है तो वहाँ सांस्कृतिक समन्वय भी स्थापित होगा और इससे पर्यटक भी आना चाहेंगे और वर्तमान हालातों पर भी काबू पाया जा सकता है क्योंकि तब कश्मीरी केवल रोजगार की तरफ ही बढ़ेंगे, और व्यस्त व्यक्ति के पास लड़ाई-झगड़ों के लिए समय नहीं होता।
पर्यटन विभाग के अनुसार जुलाई 2015 और सितंबर 2015 तक लगभग 3 लाख पर्यटक कश्मीर आए, लेकिन इस साल इसी अवधि में पर्यटकों की संख्या न बराबर रही है। इस साल 1ली से 12 अगस्त तक की अवधि के दौरान 10,059 पर्यटक घाटी में आए जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान 89,243 पर्यटक कश्मीर आए थे। अब इसी पर गौर किया जाए कश्मीर की आधी समस्या सुलझाई जा सकती है। कश्मीर की सबसे बड़ी समस्या के मूल कारण में मंदा होता पर्यटन उद्योग भी है। यदि यहाँ पर्यटन पुनर्जीवित हो जाए तो संभवत कश्मीरियों की व्यावसायिक व्यस्तता उन्हें अन्य किसी झंझटों में उलझने नहीं देगी। और व्यावसायिक व्यस्तता के लिए कश्मीरियों को हिन्दी भाषा से जोड़ कर हिंदी में दक्ष होना होगा। अपने बच्चों को भी हिन्दी भाषा सिखने पर जोर देना होगा तभी कश्मीर के पर्यटन उद्योग के अच्छे दिन आ सकते है।
[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान,भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]
डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’
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