लक्ष्मी को धन का पर्याय मान लिया जाता है। किन्तु धन से कुबेर भी जुड़ा है। कुबेर, अर्थात ‘कुत्सित शरीर वाला’, राक्षसराज रावण का भाई। धन का पर्याय होकर भी कुबेर पूजा भारतीय परंपरा में कहीं नहीं। हिन्दू परंपरा किसी भी तरह धन की चाह नहीं करती। केवल ‘लाभ’ नहीं, वरन ‘शुभ लाभ’ चाहती है। परंपरा से भारतीय व्यापारी इसे समझते रहे हैं। इसीलिए पहले यह देश धनवान ही नहीं, ज्ञानवान और यशस्वी भी था।
माता लक्ष्मी मात्र धन की देवी नहीं हैं। वह ‘श्रीरंगधामेश्वरी, त्रैलोक्यकुटुम्बिनी सरसिजां, प्रसन्नवदनां, सौभाग्यदां, भाग्यदां’ हैं। वह प्रसन्नवदन, सौभाग्य और भाग्य प्रदान करने वाली भगवान विष्णु के समीप रहने वाली, उन की प्रिया, कमला, तीनों लोकों की माता हैं। धर्माचरण युक्त धन-वैभव के साथ लक्ष्मी की पहचान है। अधर्म, लोभ और अनैतिकता से अर्जित धन के साथ लक्ष्मी का कोई संबंध नहीं।
यहाँ धर्म रिलीजन का पर्याय नहीं। सच्चे हिन्दू अर्थ में सदाचार ही धर्म है। अतः जहाँ अधर्म, लोलुपता और भष्टाचार हो, वहाँ से लक्ष्मी तुरंत चली जाती है। इसी अर्थ में वह चंचला हैं। धर्म-विहीन धन आसुरी, अशुभ वस्तु है। इसीलिए ऐसे धनस्वामी प्रसन्न और सौभाग्यवान नहीं होते। वे तनावग्रस्त, अप्रसन्न होते हैं। क्योंकि उन के पास से लक्ष्मी चली गई हैं।
अतः ‘शुभ लाभ’ लिखते हुए अर्थ का स्मरण रहना चाहिए। कैसे भी बैलेंस-शीट को लक्ष्य मानना सौभाग्यपूर्ण नहीं। घोटाले, रिश्वतखोरी, मिलावट और अनाचार से जुड़ा धन पाप-पूर्ण, इसलिए अशुभ है। ऐसे धनार्जन के चक्कर में जो लोग जेल जाते हैं, केवल वही दंड नहीं भोगते। स्वतंत्र दिखने वाले भी कष्ट भोगते हैं। कुसंगति, डिप्रेशन, झगड़ालूपन, भय, रोगी विलासी जीवन, और दिशाहीनता जैसे रोग असंख्य धनिकों में देखे जाते हैं। उन के धन में लक्ष्मी का, कल्याण का, सौभाग्य का वास नहीं है। वे अपने अशुभ धन के दास हो जाते हैं। अधिकाधिक लालसा, धन-रक्षा की चिंता, सामाजिक अकेलापन, कुरुचि, अशांति आदि अनेक दुर्गुणों से ग्रस्त उन का जीवन विषाक्त हो जाता है। उन्हें ध्यान से देखें। तब उन जैसा होने की इच्छा नहीं हो सकती। नहीं होनी चाहिए।
इस के विपरीत जो धर्माचरण छोड़े बिना धनार्जन करते हैं, वे अधिक स्वस्थ, प्रसन्न और शांत होते हैं। गरीब लोग भी। पैदल चलती मजदूरिनें अधिक प्रसन्न और उदार नजर आती हैं। बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर चलती धनिकाओं के चेहरे पर वैसी सहज प्रसन्नता बहुत कम दिखती है।
अतः अधर्म से दूर रहने वाले ही लक्ष्मी के सच्चे उपासक हैं। उन्हें कल्याण और अभय का प्रसाद मिलता है। अधिक धनी होने से अधिक प्रसन्न होने का कोई संबंध नहीं। अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों ने भी कुछ पहले ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ के आधार पर दुनिया के कई देशों का सर्वेक्षण किया था। उन्हें फिलीपीन्स जैसे गरीब देश में सब से अधिक प्रसन्न लोग मिले। भारत भी प्रसन्नता सूची में बहुत ऊपर था। आज भी असंख्य भारतीय मानते हैं कि किसी भी तरीके से धन, पद पाना उचित नहीं। उन की प्रसन्नता कुछ मूल्यों पर भी आधारित है। ऐसे लोग अमीर भी हैं, गरीब भी। सदाचार और धर्माचरण को सर्वोपरि मानने वाले ही प्रसन्न रह सकते हैं। उन्हें ही लक्ष्मी-कृपा प्राप्त रहती है। यह सब केवल सैद्धांतिक बातें नहीं। व्यवहार में भी यहाँ इन का पालन होता रहा है। अंग्रेजों ने सर्वेक्षण में पाया था कि दक्षिण भारत के कई धनी-मानी मठ दान के धन को एक सीमा के बाद जमा नहीं रखते थे। उसे कुंभ मेले में गरीबों में बाँट कर कोश खाली कर लेते थे। पुनः अर्जन शुरु होता था और लोक-कल्याण के विविध कामों में उपयोग होता रहता था। इस प्रकार, सभी धन माँ भगवती का है, और मनुष्य केवल उस के ट्रस्टी के रूप में उपभोग उपयोग करें, यह व्यवहार में भी मान्य रहा है।
हमारे आधुनिक ऋषि, ज्ञानी भी इसे अभिव्यक्त करते रहे हैं। तुलसीदास और बड़े हिन्दू ज्ञानी कभी बादशाह अकबर के यहाँ नहीं गए। गालिब ने गरीब होकर भी वैसी नौकरी नहीं की, जहाँ सम्मान न दिखा। कवि निराला भी ऐसे ही थे। भूखे रहकर भी अतिथि-सत्कार धर्म निभाते थे। कवि अज्ञेय ने एक विश्वविद्यालय की बड़ी कुर्सी का त्याग केवल इसलिए कर दिया, क्योंकि उन्होंने देखा कि वह बिना किसी काम वाली कुर्सी थी, और खाली मोटी तनख्वाह लेना उन्हें स्वीकार्य न हुआ। हनुमान प्रसाद पोद्दार जैसे अनेक व्यापारी, उद्योगपति हुए, जिन्होंने सारा धन सामाजिक कल्याण में अर्पित कर दिया।
आज जैसे-तैसे धन कमाने की भूख केवल यहीं नहीं, पूरी दुनिया का रोग हो गया है। पर दूसरों के पास धर्म-युक्त वैभवशाली जीवन का व्यवस्थित दर्शन नहीं है, जो भारत के पास है। हम इसे दूसरों की ही नकल में छोड़े दे रहे हैं, यह दोहरी विडंबना है। हम देख कर भी नहीं देखते, कि बेशुमार धन-दौलत अर्जित करने वाले अमेरिकी, यूरोपीय भी ज्ञान व शांति की खोज में भारत ही आते हैं। अनायास नहीं कि जीवन का अर्थ ढूँढने वाले सब से बड़ी संख्या में भारत ही आते हैं। यहाँ पाखंडी, लालची बाबाओं की भरमार दूसरी बात है। किन्तु इस से यह तथ्य नहीं बदलता कि वह ज्ञान-भंडार भारत में ही है, जिस की जरूरत संपूर्ण मानवता को है। यही आभास पाकर दुनिया भर के अभीप्सु यहाँ आते हैं। हिन्दू धर्म-चेतना में ही वह आकर्षण है।
इस चेतना में वैभव और धर्म-युक्त जीवन का ऐसा समन्वय है, जो विश्व में कहीं नहीं। ‘शुभ लाभ’ इसी समन्वय का सूत्र हैः “अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थच चिन्तयेत्। गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत।।” अर्थात्, स्वयं को अजर-अमर मान कर विद्या और धन का अर्जन करो। यह अर्जन कभी बंद न करो। किन्तु साथ ही, धर्म का आचरण यह मान कर करो, जैसे मृत्यु ने तुम्हारे केश पकड़ रखे हैं! किसी भी क्षण मृत्यु संभावित है – यह ध्यान रखते हुए धर्माचरण से क्षण भर भी विचलित न होओ। यही धर्म-युक्त जीवन और लक्ष्मी-सरस्वती की अनन्त उपासना का सूत्र है। यह हमारे शास्त्र ही नहीं, लोक में भी व्याप्त रहा है। ‘काल गहे कर केश’ के रूप में जिसे लोग कहावत में भी जानते हैं।
इसी से यह भी स्पष्ट है कि हिन्दू चिंतन ने कभी दरिद्रता को महिमामंडित नहीं किया। गाँधीजी ने यहाँ भी गलती की, और गरीबी में भगवान वाला ईसाई मत प्रचारित किया। हिन्दू परंपरा लक्ष्मी-पूजक है। यदि रावण की लंका सोने की थी, तो दशरथ की अयोध्या भी अत्यंत वैभवशाली थी। अंतर धर्माचरण का था।
अतः जो लोग गाँधीजी की तरह धन को ही गड़बड़ी की जड़ मानते हैं, वे गलत हैं। गरीब भी पापी, लोभी, अधर्मी हो सकता है। उसी तरह धनवान भी शुद्ध, सात्विक, धर्म-निष्ठ हो सकते हैं, होते रहे हैं। धन एक शक्ति है। ईश्वरीय शक्ति। इसे गलत हाथों से निकाल कर सही हाथों में देना, इस का पुनरुद्धार करना आवश्यक है। इसे भगवान का कार्य समझ कर करना चाहिए। दरिद्रता की पूजा और अपरिग्रह भारतीय ज्ञान-परंपरा नहीं है।
मनुष्य के हाथ में धन ईश्वर का न्यास है। इसलिए उस में आसक्ति न रहे। धर्म-भाव से धनार्जन करना तथा भागवत भाव से इस का उपयोग करना ही हिन्दू मार्ग है। यह विस्मृत न हो, वरन देदीप्यमान रूप में हमारे चित्त मानस पर अंकित रहे, लक्ष्मी-पूजन करते हुए यही हमारी अभीप्सा होनी चाहिए।
(लेखक भारतीय धर्म, दर्शन और अध्यात्म से जुड़े विषयों पर गंभीर व शोधपूर्ण लेख लिखते हैं)
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