राजधानी दिल्ली के बहुप्रतीक्षित सिग्नेचर ब्रिज का करीब 14 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद उद्घाटन होना भी दिल्ली की जनता को एक सुकून दे रहा है। यमुना नदी के ऊपर बने इस ब्रिज से उत्तर और उत्तर-पूर्वी दिल्ली के बीच सफर करनेवाले लोगों को न केवल सुविधा होगी बल्कि समय की भी काफी बचत होगी। इसके साथ ही वजीराबाद पुल के ऊपर ट्रैफिक का बोझ भी कम होगा। यह ब्रिज दिल्ली की शान को बढ़ाने वाला एक खूबसूरत आयाम है, जो दिल्ली की संस्कृति में चार चांद लगायेगा। इसके माध्यम से पर्यटन को भी बढ़ावा मिल सकेगा। पेरिस के एफिल टावर की तर्ज पर बने इस ब्रिज के टॉप से शहर के विशाल दृश्य को देखकर आनन्दित हुआ जा सकेगा। चार एलिवेटर्स के जरिए विजिटर्स को ब्रिज के टॉप पर ले जाया जा सकेगा, जिसकी कुल क्षमता 50 लोगों की होगी। यह एक अनूठा, विलक्षण एवं दर्शनीय ब्रिज है।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सिग्नेचर ब्रिज का उद्घाटन करके इसे दिल्ली की आप सरकार की उपलब्धियों में शामिल कर लिया है, भले ही इसका पूरा श्रेय उनको नहीं दिया जा सकता, पर उन्होंने इस ब्रिज को पूरी तत्परता से बनाने में पूरा जोर लगाया, जिसके लिये वे बधाई के पात्र है। पर विडंबना यह है कि इसके पूरा होने के बाद कई राजनीतिक दलों के बीच इसे जनता को सौंपने का श्रेय लेने की होड़ मच गई, और इसका श्रेय लेने के लिये सभी दौड़ पड़े। क्योंकि यह ब्रिज दिल्ली के वोट बैंक को हथियाने का एक सशक्त माध्यम है। लेकिन चिन्तनीय प्रश्न यह है कि आखिर ऐसे विकास कार्यों का श्रेय किसी एक व्यक्ति या दल क्यों मिले? हाल ही प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने तीन हजार करोड़ की लागत से राष्ट्रीयता के महानायक, प्रथम उपप्रधानमन्त्री तथा प्रथम गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की स्मृति में बने स्टैच्यू ऑफ यूनिटी का उद्घाटन किया और उसका सारा श्रेय लिया। मगर यह ध्यान रखने की बात है कि अगर कहीं विकास से संबंधित कोई भी काम होता है, तो वह किसी भी रूप में किसी भी शासक की जनता पर कृपा नहीं होती है। यह लोगों का अधिकार होता है और उसे पूरा करना सरकारों की जिम्मेदारी है। अक्सर चुनाव की आहट के साथ ऐसी योजनाओं को तीव्र गति दी जाती है और उसका राजनीतिक लाभ लिया जाता है। सिग्नेचर ब्रिज को वोट बैंक हथियाने का हथियान बनाना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा।
विडम्बनापूर्ण स्थितियां तो तब भी बनी जब सिग्नेचर ब्रिज के उद्घाटन के मौके पर राजनीतिक हंगामा देखा गया और सत्ताधारी आप सहित विपक्षी पार्टी भाजपा के नेताओं के बीच टकराव तक के हालात पैदा हो गए, जिनका इस तरह के राष्ट्रीय विकास के कार्यक्रमों के साथ जुड़ना एक त्रासदी ही कही जायेगी। यह राजनीति की विसंगति ही है कि दलों को किसी क्षेत्र के विकास से कोई मतलब हो या नहीं, उसका श्रेय लेने की होड़ मच जाती है।
दूर से ‘नमस्ते’ की मुद्रा में दिखने वाला यह ब्रिज उपयोगिता के लिहाज से तो बेहद अहम है ही, इसकी डिजाइनिंग भी खूबसूरत है। यानी एक तरह से दिल्ली के लिए यह एक शानदारी उपलब्धि है। देश का पहला केबल स्टाइल ब्रिज है। दूसरे चरण में इस ब्रिज को पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित किया जाएगा। ब्रिज के ऊपर प्रभावी ग्राफिक्स के माध्यम से आधुनिक और प्रगतिशील भारत को प्रदर्शित किया गया है। ब्रिज पर 154 मीटर हाई ग्लास व्यूइंग बॉक्स है जो कुतुब मीनार की ऊंचाई से करीब दोगुनी है। 575 मीटर लंबा यह ब्रिज सेल्फी स्पॉट भी होगा। आठ लेन की यह सिग्नेचर ब्रिज वजीराबाद रोड को आउटर रिंग रोड से जोड़ता है। जिससे गाजियाबाद की तरफ जानेवालों को कम से कम 30 मिनट का समय बचेगा। ब्रिज के मुख्य पिलर की ऊंचाई 154 मीटर है। ब्रिज पर 19 स्टे केबल्स हैं, जिन पर ब्रिज का 350 मीटर भाग बगैर किसी पिलर के रोका गया है। पिलर के ऊपरी भाग में चारों तरफ शीशे लगाए गए हैं। यह ब्रिज यहां के आसपास की अर्थव्यवस्था को रफ्तार देगा क्योंकि इसे देखने के लिये न सिर्फ एनसीआर और देशभर से बल्कि दुनियाभर के लोग आएंगे। इसका निश्चित तौर पर सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय असर होगा। निस्संदेह यह ब्रिज दिल्ली की जनता के लिए बेहद उपयोगी है।
सिग्नेचर ब्रिज भले ही आज बनकर तैयार हुआ है लेकिन इसके पीछे आप सहित पूर्व की सरकारों की सालों की अथक मेहनत, सूझबूझ एवं दूरदृष्टिता है। एक से ज्यादा पार्टियों ने दिल्ली पर शासन करते हुए इसकी परिकल्पना से लेकर इसे तैयार करने तक में हर स्तर पर अपनी भूमिका निभाई है और इसे वह शक्ल दी है जिसे उपयोगिता और सौंदर्य की कसौटी पर बेहतरीन कलाकृति की तरह देखा जा रहा है। सिग्नेचर ब्रिज की परिकल्पना को साकार करने में जो भी लोग लगे हुए थे, भले ही वे किसी भी राज्य या देश में शासन की व्यवस्था का हिस्सा हो, लेकिन ऐसे कार्यों का श्रेय किसी एक दल या व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। एक आदर्श शासन व्यवस्था में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन-सी योजना किस खास पार्टी की सरकार ने बनाई है। उसे योजना पर अमल करके उसे अंजाम तक पहुंचाना ही सरकारों का दायित्व होता है। जनता ने इसी दायित्व के निर्वाह के लिये उन्हें चुना है। किसी भी शहर एवं देश की संस्कृति एवं खूबसूरती को बढ़ाने में ऐसे विकास कार्यो एवं स्थलों की ऐतिहासिक भूमिका होती है। लेकिन हम इन राष्ट्रीय प्रतीकों एवं स्मारकों को संकीर्ण राजनीतिक लाभ के नाम पर धुंधला देते हैं और संकीर्ण स्वार्थ की दीवारें खड़ी कर देते हैं। हम आज कई और दीवारें बना रहे हैं-राजनीतिक स्वार्थों की, मजहबों की। यहां तक कि दीवारें खड़ी करके ”नेम-प्लेट“ लगाकर ईंट-चूने की अलग दुनिया बना रहे हैं। हम जोड़ने की बजाय तोड़ने की कोशिश ही करते हैं और यह कोशिश करते हुए हम ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं कि इन स्थलों एवं स्मारकों के दरवाजे भी खुले नहीं रख सकते। तब दिमाग कैसे खुले रख सकते हैं। नई व्यवस्था की मांग के नाम पर पुरानी व्यवस्था के खिलाफ जंग की- एक नई संस्कृति पनपा रहे हैं। व्यवस्था अव्यवस्था से श्रेष्ठ होती है, पर व्यवस्था कभी आदर्श नहीं होती। आदर्श स्थिति वह है जहां व्यवस्था की आवश्यकता ही न पड़े।
एक नई किस्म की वाग्मिता पनपी है जो किन्हीं शाश्वत मूल्यों पर नहीं बल्कि भटकाव के कल्पित आदर्शों के आधार पर है। जिसमें सभी नायक बनना चाहते हैं, पात्र कोई नहीं। भला ऐसी शासन व्यवस्था किस के हित में होगी? सब अपना बना रहे हैं, सबका कुछ नहीं। और उन्माद की इस प्रक्रिया में एकता की संस्कृति का नाम सुनते ही सब संघर्ष करने को मचल उठते हैं। राजनीति क्रूर, अमानवीय और जहरीले मार्गों पर पहुंच गई है। बहस वे नहीं कर सकते, इसलिए हाथ और हथियार उठाते हैं। संवाद की संस्कृति के प्रति असहिष्णुता की यह चरम सीमा है। विरोध की संस्कृति की जगह संवाद की संस्कृति बने तो समाधान के दरवाजे खुल सकते हैं। दिल भी खुल सकते हैं। बुझा दीया जले दीये के करीब आ जाये तो जले दीये की रोशनी कभी भी छलांग लगा सकती है। तभी सिग्नेचर ब्रिज जैसे एक नहीं, अनेक रोशनी के झरोखे राष्ट्रीयता को गौरवान्वित कर सकेंगे। सिग्नेचर ब्रिज जैसे कामों को किसी खास पार्टी के नाम से जानने के बजाय राष्ट्रीयता के विकास के रूप मानना चाहिए और इसे सामूहिक उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। अन्यथा हमारा प्रयास अंधेरे में काली बिल्ली खोजने जैसा होगा, जो वहां है ही नहीं।
(ललित गर्ग)
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