Monday, November 25, 2024
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हम इन गुमनाम 14 लाख भारतीय सैनिकों के बारे में कुछ जानते भी हैं

जब यह पता चला कि 11 नवंबर को प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने के 100 साल पूरे हो गए तो लगा कि किसी ने यह गीत बहुत सही लिखा कि इट हैपंस इन इंडिया, यह सिर्फ भारत में ही होता है। जिस युद्ध को कभी दुनिया के तमाम युद्धो का युद्ध कहा जाता था और जिसमें भारत की इतनी अहम भूमिका रही उसमें इस देश के शहीदो को हमने हमेशा के लिए भुला दिया!

ध्यान रहे जब पराधीन भारत के मालिक अंग्रेंजों ने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के साथ मुकाबला करने का फैसला किया तो इस देश में स्वतंत्रता अभियान चला रही कांग्रेंस व उसके नेताओं ने अंग्रेंजो के इस वादे पर यकीन कर लिया था कि अगर भारतीयों ने युद्ध में उसका साथ दिया तो वे हमें और ज्यादा प्रशासनिक स्वतंत्रता देंगे। इसके लिए बड़ी तादाद में भारतीय सैनिको को भर्ती किया गया था। इनमें से ज्यादातर लोग किसान परिवारों से थे व उन्हें बाद में प्रशिक्षण दिया गया।

उनका वेतन उनके परिवारों को दिया जाता था। उन्हें अपने घरों से ही नहीं बल्कि देश से भी बहुत दूर ऐसी अनजान जगहों पर लड़ने (मरने) भेजा जाता था जहां कि वे भाषा तक नहीं जानते थे। वहां के हालात उनके बेहद खिलाफ थे। वे बेल्जियम, फ्रांस, पूर्वी अफ्रीका तक गए। वाइप्रेस (बेल्जियम) में तो उनका सामना जर्मन की विषैली गैसो से हुआ और बड़ी तादाद में भारतीय सैनिक मारे गए।

उस युद्ध में भारत से 14 लाख भारतीय हिस्सा लेने के लिए विदेश भेजे गए। इनमें से ज्यादातर नौसिखिया थे। इनमें विभिन्न राज्यों के शासकों की सेनाओं में भर्ती लोगों में शामिल सैनिको के अलावा हरियाणा व पंजाब के लोग भी थे। 1914 से 1921 के बीच करीब 7,40,000 लोग मारे गए जबकि 64,350 लोग घायल हुए। मारे गए लोगों का हिंदू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार होना तो दूर रहा उन्हें पास के खेतों में जमीन के अंदर गाड़ दिया जाता था।

हजारो लोग अपने जख्म न भर पाने के कारण वर्षों बाद मारे गए। तब ब्रितानियों द्वारा रंगभेद नीति का इस स्तर पर पालन किया जाता था कि अस्पताल में भर्ती भारतीय सैनिको को अंग्रेंज नर्स नहीं देखती थी। उनकी देखभाल फ्रांसीसी नर्से करती थी। मुझे याद है कि मेरे मामाजी ने भी प्रथम विश्वयुद्ध में हिस्सा लिया था। जब लोग उनके यहां जाते तो वहां दो तरह के कंबल होते थे लाल व काला। लाल कंबल काफी अच्छा होता था व अपेक्षाकृत ज्यादा गर्म व मुलायम होता था। वे बताते थे कि अस्पताल में लाल कंबल अंग्रेंजो को व काला कंबल जोकि कम गर्म व अपेक्षाकृत खुदरा होता था, वह भारतीय सैनिको को दिया जाता था।

उस समय एक भारतीय सैनिक को 14 रुपए माहवार, घुड़सवार को 14 रुपए महीने, घोड़े के लिए 20 रुपए महीना व विदेश भत्ता जोकि करीब 10 रुपए माह होता था दिया जाता था। इनके अलावा राजशाही के चलते तमाम ऐसे राज परिवार के लोगों ने भी युद्ध में हिस्सा लिया। इनमें इंदौर राज्य के महाराजा सर प्रताप सिंह, पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बाबा भूपिंदर सिंह, बीकानेर के महाराजा सर गंगा सिंह बहादुर, किशनगढ़ के राजा मदन सिंह, वहापुर पन्ना के राजकुमार हीरासिंह, कूच बिहार के महाराज कुमार हीतेंद्र सिंह आदि शामिल थे।

ये महाराज न सिर्फ टेक्स के रूप में इस युद्ध का पूरा खर्च उठा रहे थे बल्कि अपने सैनिको का वेतन भी दे रहे थे। 1462 लाख पौंड इस मद में सरकार को दिए। इसके अलावा 1,72,615 जानवर भी दिए। इनमें 85,953 घोड़े, 65398 खच्चर 5261 बैल व 5692 दुधारू पशु शामिल थे। उन्होंने हजारों टन रबड़, धातु व गोला बारूद भी अंगेंजो को लड़ने के लिए दिया।

इसके लिए बड़े पैमाने पर जबरन भर्ती की गई। अंग्रेज पंजाब के लोगों को मार्शल नस्ल का मानते थे। उन्होंने वहां के जिलादारों व लंबरदारों पर भर्ती की जिम्मेदारी सौंपी। उन लोगों ने उन परिवारों की सूची तैयार की जिनके एक से ज्यादा बेटा थे। उन्होंने उन्हें अपने बेटा भर्ती करवाने के बदले में आयकर में छूट देने की बात कहीं। भर्ती न करने वालों पर भारी जुरमाने किए गए। मुल्तान के कुछ हिस्सों में तो डराने के लिए पानी की सप्लाई तक बंद कर दी गई। इनमें से बहुत सारे लोगों के पास यूरोप की सर्दी का मुकाबला करने के लिए गर्म कपड़े तक नहीं थे। वे वहां की ठंडी खंदको में मर गए। बड़ी तादाद में भारतीय फ्लू का शिकार हुए। जहां एक और अंग्रेज सैनिको को समय-समय पर घर जाने के लिए छुट्टी मिल जाती थी वहीं भारतीय इससे वंचित थे क्योंकि उनके घर हजारो किलोमीटर दूर थे।

युद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेजो द्वारा अपना स्वायतत्ता का वादा पूरा करना तो दूर रहा उन्होंने रोलेट एक्ट लाकर देश में सेंसरशिप लागू की और 1919 में जनरल डायर ने अमृतसर के 50,000 लोगों पर बिना चेतावनी के गोली चलवाई जिसमें असंख्य लोग मारे गए। इससे उनके प्रति विरोध बनने लगा। सबसे ज्यादा दुर्दशा अंग्रेंजो की ओर से लड़ने वाले भारतीय सैनिको की हुई। इन लोगों को देश ने कोई सम्मान नहीं दिया और उन्हें अंग्रेंजो का पिठ्ठू मानते हुए उनका सैनिक सम्मान, उनकी वीरता को लेकर कोई विशेषाधिकार नहीं दिया गया। जबकि इन लोगों को 12 विक्टोरिया मिले थे व पहला मेडल भारतीय खुदाबख्श को मिला था।

उनकी याद में अंग्रेंजो ने 1931 में इंडिया गेट बनवाया जिस पर 13,258 शहीदो के नाम लिखे गए। जब 1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के युद्ध के बाद वहां काले पत्थर के चबूतरे पर सीएनजी द्वारा जलने वाली अमर जवान ज्योति की स्थापना कर 26 जनवरी को अज्ञात शहीदो को श्रद्वाजंलि देने का सिलसिला शुरू किया तो कुछ लोगों ने इसकी काफी आलोचना की। उनका कहना था कि यह तो अंग्रेंजो के लिए लड़ने वाले सैनिको को श्रद्धांजलि देना है। जहां फ्रांस, बेल्जियम, इंग्लैंड ने अपने शहीदो की याद में तमाम यादगार जगहें बनाई वहां भारत में आज तक इसकी अनदेखी की जाती रहीं। अब इंडिया गेट के पास 400 करोड़ की लागत से वार मेमोरियल बनाया जा रहा है। सच कहा जाए तो प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिको पर यह कहावत पूरी तरह से सही साबित होती है कि मैं पापन ऐसी मटी, कोयला भर्र न राख। वे सब तो अनाम शहीदो में शामिल हो गए। उनकी न तो समाधि बनी न ही कब्र और न ही देशवासियों ने उन्हें कभी शहीदो का नाम दिया। इससे ज्यादा उनकी अपेक्षा व दुर्गति क्या होगी कि उपराष्ट्रपति वैकेंया नायडू ने उन्हें फ्रांस में याद किया।

 

 

 

 

 

( विवेक सक्सेना वरिष्ठ पत्रकार हैं और राजनीतिक, सामाजिक से लेकर साहित्यिक विषयों पर रोचक व शोधपूर्ण लेख लिखते हैं)

साभार- https://www.nayaindia.com/ से

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