सभी की जिंदगी में चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां आती हैं। कुछ लोग इनसे हार मानकर स्वयं को ‘भगवान की मर्जी’ के सहारे छोड़ देते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इन कठिन चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के लिए कठिन संघर्ष करते हैं। वे अंततः जीत हासिल करते हैं और दूसरों के लिए एक मिसाल कायम करते हैं। ऐसी ही एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं लतिका कपूर।
जब वे महज तीन महीने की ही थीं तब उनके माता-पिता को पता चला कि उनकी पहली ही संतान को सेरेब्रल पालसी है। मां-बाप को जब इस बिमारी और उसके असर का पता चला तो वे परेशान हो गये। यह सवाल उन्हें परेशान करने लगा कि लतिका अब अपनी आगे की जिंदगी कैसे जियेंगी और आगे उनका क्या होगा।
लेकिन होनहार लतिका ने शीघ्र ही मां-बाप को ये एहसास करा दिया कि उनके पैर उनका साथ भले ही नहीं दे रहे, लेकिन उनका दिमाग सामान्य बच्चों से कहीं ज्यादा तेज है। बस फिर क्या था।
मां-बाप का साथ मिला तो लतिका ने समाज की हर नकारात्मकता को पीछे छोड़ते हुए अपना मुकाम हासिल कर लिया। आज कोई उनकी योग्यता को नहीं परखता, बल्कि वे दूसरों की योग्यता परखती हैं और उन्हें नौकरी देती हैं। आज वे बहुराष्ट्रीय कम्पनी नेस्ले में एचआर हैं।
क्या कहती हैं लतिका
लतिका कपूर (34) कहती हैं कि कोई भी पूर्ण नहीं होता। किसी की कमी दिख जाती है, किसी की नहीं दिखती। बस, कमियों के सामने झुकने की बजाय अपनी राह तलाशने और अपनी मंजिल पर पहुंचने की जिद होनी चाहिए। लतिका ने अमर उजाला को बताया कि जब उन्होंने पढ़ाई शुरू की तब स्कूल उन्हें एडमिशन देने को तैयार नहीं थे। साथ पढ़ने वाले बच्चे दोस्ती करने को तैयार नहीं थे। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
एमआर विवेकानंद मॉडल स्कूल से शुरूआती पढ़ाई के बाद गुरुनानकदेव विश्वविद्यालय से बीबीए किया। इसके बाद कॉल सेंटर से जॉब शुरू किया। जल्दी ही उन्हें रॉयल बैंक ऑफ़ स्कॉटलैंड में काम करने का मौका मिला। आज वे नेस्ले इंडिया की एचआर हैं और अपनी कम्पनी के लिए लोगों के टैलेंट को परखती हैं और उन्हें नौकरी देती हैं।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
अशक्त लोगों के लिए काम करने वाले संगठन ‘वी द पीपल इंडिया’ के चेयरमैन कबीर सिद्दीकी ने कहा कि सेरेब्रल पालसी में मस्तिष्क से हाथ-पैर या किसी अन्य अंगों को सन्देश मिलना बंद हो जाता है। मांसपेशियों में अकड़न या कमजोरी आ जाती है जिससे लोग कोई काम नहीं कर सकते। लेकिन लतिका जैसे युवाओं ने यह साबित कर दिखाया है कि अगर मजबूत इरादे हों तो दिव्यांगता को पीछे छोड़ा जा सकता है।
साभार- https://www.amarujala.com/ से