राजधानी दिल्ली में किसान आंदोलन के नाम पर किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले जितनी संख्या में लोग जुटे, जिस तरह का प्रदर्शन हुआ, संसद तक कूच के लिए रामलीला मैदान से जो लंबी कतारें दिखीं वो पहली नजर में सुखद आश्चर्य पैदा करने वालीं थीं। अगर किसानों के नाम पर इतनीं संख्या में लोग सरकार के दरवाजे पर दस्तक दें तो इसे सामान्य तौर पर अच्छा संकेत ही माना जाएगा। किसानों के हाशिए पर जाने के कारणों में एक यही था कि कभी इनका कोई ऐसा संगठन खड़ा नहीं हुआ जो सरकारों को उद्योग एवं कारोबार के समानांतर कृषि के लिए नीतियां बनाकर उसे क्रियान्वित करने को मजबूर कर सके। टिकैत आंदोनल को छोड़कर कभी ऐसा संघर्ष नहीं हुआ जिसने सरकार को नैतिक रुप से दबाव में लाया हो। इस पृष्ठभूमि में यदि राजधानी दिल्ली में अलग-अलग बैनरों से इतने लोग आएं और उनकी आवाज सरकारों तक पहुंचे तथा मीडिया उन्हें पूरा महत्व दे, उन पर टीवी चैनलों में बहस हों, अखबारों में संपादकीय व विश्लेषणात्मक लेख लिखे जाएं तो इसे बदलाव का कुछ संकेत माना ही जा सकता है।
किंतु, इसके दूसरे पक्ष पर नजर डालें तो उम्मीद और उत्साह ठंढा होने लगता है। किसी आंदोलन के कई पहलू होते हैं। मसलन, उसमें किस तरह के लोग शामिल हैं, उनकी मांगे कितनी वाजिब और व्यावहारिक हैं, उनका नेतृत्व कैसे लोगों के हाथों हैं, अपने लक्ष्यों को लेकर आंदोलनकारी कितने स्पष्ट और सजग हैं, जिनके लिए आंदोलन है उनका प्रतिनिधित्व कितना है, उसमें कहीं निहित स्वार्थी या छद्म वेशधारी तो नहीं हैं आदि आदि। सबसे पहले मांगों की ओर आएं। इनकी मांग है कि सरकार खेती-बाड़ी को लेकर अपनी नीतियों में बदलाव करे। किसानों की समस्याओं पर संसद का एक विशेष सत्र तीन सप्ताह के लिए बुलाया जाए जिसमें बहस के बाद दो कानून पास हों। एक, फसलों के उचित दाम की गारंटी का कानून और दूसरा, किसानों को कर्जमुक्त करने का कानून। संसद के विशेष सत्र में स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट पर बहस की मांग भी शामिल है। कृषि संकट पर चर्चा के लिए संबंधित सारे पहलुओं का एजेंडा बनाकर विशेष सत्र बुलाया जाए तो कुछ सार्थक परिणाम निकलने की उम्मीद की जा सकती है। हालांकि कृषि और किसानों से जुड़ी ऐसी कौन सी समस्या है जो संसद में कभी उठी नहीं हो? दूसरे, कृषि मूलतः राज्यों का विषय है। केन्द्र नीतियां बना सकतीं हैं, उनके लिए राशि आवंटन कर सकती हैं, पर उसे धरातल पर उतारने का जिम्मा राज्यों का ही है। इसलिए संसद सत्र के साथ राज्य विधायिकाओं का सत्र भी बुलाया जाना चाहिए। जो नेता इस आंदोलन के मंच पर आए वो अपने राज्य सरकारों से ऐसा करने के लिए कह सकते हैं।
जितने नेता मंच पर भाषण देने आए उनके भाषणों में संसद का विशेष सत्र बुलाने के लिए काम करने का वायदा था ही नहीं। हां, कर्ज माफी की बात सबने की। कर्ज माफी की मांग करना आसान है, पर न यह व्यावहारिक है और न किसानों की समस्याओं का निदान ही है। कर्ज माफी हमेशा गलत मानसिकता को जन्म देती है। समय पर किश्त अदा करने वाले किसानों को धक्का लगता है। चालू किस्म के लोग कृषि के नाम पर कर्ज लेकर दूसरे कामों में खर्च करते हैं और लौटाने की नहीं सोचते क्योंकि उन्हें उम्मीद रहती है कि सरकार माफी कर ही देगी। 2008 में यूपीए 1 सरकार ने 65 हजार करोड़ से थोड़ा ज्यादा का कर्ज माफ किया था। इतनी राशि की व्यवस्था करने में ही सरकार परेशान हो गई। कर्ज माफी होगी तो आम जनता के कर से ही उसकी पूर्ति होगी। यह झूठ है कि उद्योगपतियों के कर्ज माफ कर दिए गए। एक भी उद्योगपति का कर्ज सरकार ने माफ नहीं किया है। बिहार, झांरखंड, पूवी उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल का बड़ा क्षेत्र ऐसे जगह हैं जहां किसानों में बैंक से कर्ज लेने की प्रवृत्ति अत्यंत कम है। उनको कर्ज माफी से कोई लेना-देना नहीं। वस्तुतः स्थिति ऐसी पैदा हो जिसमे किसानों को कर्ज की जरुरत ही न पड़े। कर्ज माफी की प्रवृत्ति खतरनाक है।
किसानों को उचित मूल्य मिलें इससे तो कोई इन्कार कर ही नहीं सकता। केन्द्र ने लागत का डेढ़ गुणा मूल्य तय किया है जो मांग के अनुसार सी 2 नहीं है, किंतु उसके पास अवश्य है। केन्द्र पैदावारों का एक अंश खरीद सकता है। उसके बाद राज्यों की भूमिका दो स्तरों पर होतीं हैं। एक स्वयं खरीदने में तथा दूसरे निजी खरीद में उचित मूल्य दिलाने में। मध्यप्रदेश सरकार ने भावांतर योजना चालू की। इसी तरह की योजना केन्द्र की भी है। उसमें कुछ किसानों को मिल जाता है, पर कई बार मंडियों में अपने नाम से पर्ची बनाकर भी चालाक लोग इसका लाभ उठा लेते हैं। वहां किसान संगठनों और नेताओं की आवश्यकता है। सरकार ने राष्ट्रीय कृषि बाजार यानी इ-नाम चलाया है जिसके वेबसाइट पर किसान, व्यापारी जुड़ रहे हैं। उसे ताकत देने की आवश्यकता है। एक बात समझ लेना होगा कि सरकारें पूरा पैदावार खरीदने लगे तो एक दिन अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। इसलिए व्यावहारिक रास्ता यही है कि इ-नाम को बढ़ावा दिया जाए, उसे लोकप्रिय किया जाए और किसानों को उससे जोड़ा जाए। कृषि से जुड़े छोटे और मंझोले उद्योग खड़े हों। इसमें किसानों के पैदावारों के प्रसंस्करण से अतिरिक्त आय होगी। इसके लिए कौशल विकास योजना से उनको प्रशिक्षण दिया जाए। किसानों के जीवनयापन का खर्च घटे इसके लिए स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा एवं अन्य आवश्यकताओं का गुणवत्तापूर्ण ढांचा खड़ा हो। सरकार इस दिशा में काम कर रही है उसे धरातल पर उतारने के लिए संघर्ष के साथ निर्माण कार्यकर्ता के रुप में काम करने की आवश्यकता है। खेती का खर्च घटे इसलिए प्रकृति के अनुसार खेती जिसे जैविक खेती से लेकर शून्य बजट खेती आदि का नाम दिया गया है उसको फैलाया जाए। इन सबके लिए सरकार के विरुद्ध वीर रस की शैली मे नारा लगाने और भाषण देने की जरुरत नहीं है।
वास्तव में किसानों की वास्तविक समस्यायों की अत्यंत ही सतही समझ इन मांगों में दिखाई दी और उसके पीछे भी एक विचारधारा का प्रभाव ज्यादा है। आजादी के बाद से आर्थिक नीतियों में किसानों की अनदेखी के कारण कृषि समस्या इतनी जटिल हो गई है कि इसका निदान ऐसे कूच या मांग पत्रों से संभव नहीं। क्या किसी को इल्म है कि जो कृषि स्वावलंबी थी वह परावलंबी हो चुकी है? सदियों के अनुभवों और सामाजिक शोधों से विकसित हमारी पूरी कृषि प्रणाली अर्थनीतियों के कारण नष्ट हो चुकी हैं। पहले बीजों का संरक्षण, फसल बुवाई से लेकर कटाई, खाद्यान्नों, सब्जियों के संरक्षण, कृषि यंत्रों का निर्माण एवं उनकी मरम्मती, पशुपालन तथा कृषि में उसके व्यापक उपयोग के तौर-तरीके तथा विशेषज्ञता एक पीढी से दूसरी पीढ़ी प्रवाहित होते रहते थे। तकनीक, ज्ञान और आधारभूत संरचना, जो स्थानीयता से संबद्ध थे लुप्त हो चुके हैं। किसान हर काम के लिए दूसरे पर निर्भर है। किसानों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि काम के लिए मजदूर नहीं मिलते। काम करने वाले या तो दूसरे रोजगार के लिए शहर चले गए या कुछ और काम कर लिया। जो बचे हैं उनको मनरेगा जैसी भ्रष्ट योजना से 100 दिन के रोजगार की मजदूरी काम की महज खानापूर्ति या बिना काम किए ग्राम प्रधान को अंशदान देकर प्राप्त हो जाता है। फिर 2 रुपए किलों गेहूं और 3 रुपए किलो चावल उपलबध है। तो वे काम करने आएंगे क्यों? इसके विरोध में बात करने वालों को गरीब विरोधी से लेकर सामंतवादी सोच तक की गाली दे दी जाती है। किंतु कुषि का यह ऐसा संकट है जिसके बाद ही दूसरा संकट आरंभ होता है।
कहने का तात्पर्य यह कि किसानों को दुर्दशा से मुक्त करने तथा कृषि को सम्माजनक एवं लाभकारी बनाने के लिए संघर्ष से ज्यादा निर्माण और जागरण के लिए काम करने की जरुरत है। दिल्ली के आंदोलन में ईमानदार और सच्ची भावना से काम करने वालों का हम सम्मान करते हैं, पर यह एनजीओ संस्कार का उदारवादी सक्रियतावादी बुद्धिजीवियों का प्रदर्शन तक सीमित हो गया। ऑल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के संयोजक माकपा नेता हन्नान मोल्लाह ने प्रदर्शन में देश के 207 छोटे-बड़े किसान संगठनों के शामिल होने की बात की। 207 संगठन कहां से आ गए? मैंने इतने समय लोगों के बीच काम किया है। किसानों का एक वास्तविक संगठन ढूंढे नहीं मिलता था। सरकार विरोधी राजनीतिक दलों ने इसे पूरा राजनीतिक रुप दे दिया। सरकार को उखाड़ फेंकने से ही यदि किसानों की समस्याओं का समाधान होना है तो कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। पश्चिम बंगाल में माकपा ने किसानों के साथ कैसा बर्ताव किया उसे भुलाया जा सकता है क्या?
अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208