इन दिनों कवि सम्मेलन के नाम पर फूहड़ता, वाट्सप के चुटकुले और घिसी पिटी कविताएं सुनाने का ऐसा दौर चल रहा है कि काव्य के रसिक श्रोता जब कवि सम्मेलनों में जाते हैं तो सिर पीट कर वापस आ जाते हैं। मुंबई में तो कुछ गिरोहबाज कवियों ने कवि सम्मेलनों के मंच पर ऐसा कब्जा कर रखा है कि वे शहर में किसी अच्छे कवि को घुसने ही नहीं देते, यहाँ होने वाले कवि सम्मेलनों में सी कवि को बुलाया जाता है जो कवि किसी खास ठेकेदार कवि के गिरोह का सदस्य होता है।
लेकिन इसके बावजूद मुंबई में ऐसे मंच और ऐसे कवि हैं जो रसिक श्रोताओं के लिए स्तरीय रचनाएँ लिखते हैं और श्रोता भी जी भरकर उनकी रचनाओं का स्वाद लेते हैं।
मुंबई के ठाकुर विलेज में स्थित ताड़केश्वर गौशाला में श्रीमद् भागवत परायण के दौरान कृष्णार्चनम के नाम से ऐसा ही एक यादगार, ज़ोरदार और कृष्ण भक्ति से परिपूर्ण ऐसा कवि सम्मेलन हुआ जिसका कवि और श्रोता दोनों ने ही जमकर आनंद लिया।
श्री भागवत परिवार के समन्वयक श्री वीरेन्द्र याज्ञिक ने स्व. हरिवंश राय बच्चन की अमर कविता मधुशाला के पदों में अपनी बात जोड़ते हुए मधुशाला शब्द को गौशाला में बदलकर इस आयोजन की शानदार शुरुआत की।
मृदुभावों के अंगारों पर आप बनाया हाला
प्रियतम आपके ही हाथों में काव्यार्चन का प्याला…
कवि सागर त्रिपाठी जिस किसी भी मंच पर हों, उनकी कविताएँ और ग़ज़लें सागर की लहरों की तरह श्रोताओं को हर रस में ऐसा भिगो देती है कि कविता, श्रोता और कवि तीनों ही एकाकार हो जाते हैं।
कवि सम्मेलन का संचालन करते हुए श्री सागर त्रिपाठी ने कहा कि कृष्ण का बृज पर ऐसा जादुई असर है कि बृज रस को समझने के लिए काव्य के नवरस भी कम पड़ जाते हैं। इसीलिए वात्सल्य के रूप में दसवाँ रस खोजा गया। उन्होंने कहा कि कृष्ण भाव को समझने के लिए हमारी दो आँखें पर्याप्त नहीं, और अगर तीसरी आँख हो तो वो भी नहीं, इसको समझने के लिए मन की दो आँखों का होना भी ज़रुरी है।
इस अवसर पर श्रोताओं में से एक गृहिणी श्रीमती कामिनी अग्रवाल ने अपनी एक रचना पढ़ने की अनुमति माँगी और उन्होंने ओ मेरे श्याम मुझको बुलाले से कवि सम्मेलन का भक्तपूर्ण शुभारंभ किया।
कवि सम्मेलन में विनोदम चतुर्वेदी ने उत चलत चांद से कविता प्रस्तुत करते हुए कृष्ण के विविध मनोभावों को इतनी रमणीकता से प्रस्तुत किया कि कृष्ण और चाँद दोनों ही श्रोताओं के दिलो-दिमाग में बैठ गए।
ग़ज़ल से अपनी पहचान बनाकर देश भर में छाए हुए और मुंबई के जाने माने मंच संचालक श्री देवमणि पांडेय ने अपनी कविता प्रस्तुत की तो उनकी हर लाईन पर उन्हें श्रोताओँ की ज़बर्दस्त वाहवाही मिली।
डगर पे प्रेम की चलना तो मुश्किल काम होता है
किसी से डोर जुड़ जाए तो दिल बदनाम होता है
अगर है प्यार सच्चा तो सराहेगी उसे दुनिया,
जिसे राधा कोई चाहे वही घनश्याम होता है
बंसी की धुन पर रीझ कर राधा ने ये कहा
अब किसको भला याद मेरा नाम आएगा
कान्हा ने हंसकर कह दिया अब हर ज़बान पर
मेरे नाम से पहले तुम्हारा नाम आएगा
चार दिनों के इस जीवन में कुछ ऐसे भी काम करो
सुबह सुबह जब आंख खुले तो हंसकर राधेश्याम कहो
देवमणि जी ने काव्य मंच पर राधा—कृष्ण के प्रेम और अध्यात्म का जो असर पैदा किया वो कवि सम्मेलन के अंत तक छाया रहा।
इसके बाद पं. नवीन चतुर्वेदी ने आज के माहौल और कृष्ण प्रेम के साथ अपनी कविता में कई सवाल उठाए..
भय से ग्रस्त नहीं कब तक पीर छुपाएँ हम
बतलाओ तो नटवर नागर कब तक रस्म निभाएँ हम
इन्द्रों का जब जी आए ओले बरसा देते हैं
बिना तुम्हारे गिरधारी कैसे गिरिराज उठाएँ हम
अपनी एक कविता में उन्होंने हनुमानजी को लेकर देश भर में चल रहे विवादों का जवाब देते हुए कहा
कवयित्री कुसुम तिवारी ने इन शब्दों के साथ अपनी भाव प्रस्तुति दी-
ये माना कि नाता छूट गया
शाखों से रिश्ता टूट गया
मन से जो माँगी डोर प्रीत की
उसको जोड़ न पाओगे
मधुकर तुम वापस आओगे
श्री बनमाली चतुर्वेदी ने अतल, वितल, भूतल, सुतल सतलोक पाताल
थिरिक थिरिक सब नाचते, जब नाच्यो गोपाल कविता से एक अलग रंग प्रस्तुत किया।
सागर त्रिपाठी ने राधा कृ़ष्ण की नोक-झोंक प्यार, तकरार और हमजोली को सुंदर उपमाओं से अभिव्यक्त करते हुए श्रोताओं को मथुरा वृंदावन की कुंज गलियों में पहुँचा दिया। राधा कृष्ण की बाँसुरी को लेकर सौतिया डाह से भर जाती है और कृष्ण को उलाहना देने लगती है तो कृष्ण भी राधा को अपने जवाब से लाजवाब कर देते हैंं।
ब्रज के बिहारी बात इतनी हमारी सुनो
बिनु कहे मन की खटाई नहीं जायेगी
कान्हा के अधर पर सौत सी ठहर गई
बाँसुरी निगोड़ी हरजाई नहीं जायेगी
भोली नहीं राधा रानी मन में है अब ठानी
साँवरे से रास तो रचाई नहीं जायेगी
राधा की कलाई थाम बिहँसि कन्हाई कहें
राधा बिन बँसरी बजाई नहीं जाएगी
भंग का रंग जमा है चकाचक
नाचै कपाल पे भंग की गोली
जैसी मदमस्त कर देने वाली कविताओं से श्रोताओं की वाहवाही लूटी। समय की सीमा से कवियों और श्रोताओं का रस आस्वाद अधूरा रहा मगर अतृत्प होते हुए भी श्रोता इन श्रृंगारिक और अध्यात्मिक रचनाओँ से अभिभूत थे।
श्री बनवारी चतुर्वेदी ने बृज भाषा के भक्ति रस के छंद का पाठ कर बृज की मिठास से परिचय कराया।
नन्द को दुलारो सुत प्यारो ब्रज वासिन को
कोऊ कहें कारो पर जग उजियारौ है
वेद नाही पायो भेद ताही की वो नाल छेद
आंगन मे गाढ़ि तापै अगियानो बारो है
भक्तन कौ जीवन औ गोपिन कौ प्रान धन
ग्वालन को बंधु धेनु धन रखवारो है
जसुधा कौ लाल बृज गोपिन को ग्वाल
जा कों लखत निहाल होत जीवन हमारो है
यह मुंबई में या किसी भी काव्य मंच पर शायद पहला मौका था जिसमें कवियों ने अध्यात्मिक कविताओं का पाठ किया और श्रोता उसमें डुबकी लगाते रहे।
इस कार्यक्रम की संकल्पना श्री नवीन चतुर्वेदी और बनवारी चतुर्वेदी की थी और उनका ये पहला ही प्रयोग एक मिसाल बन गया।