Friday, November 22, 2024
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क्या आने वाली दुनिया को देशों की सरकारें नहीं बल्कि एक नई विश्व व्यवस्था चलाने वाली है?

कॉन्सपिरेसी थिअरीज़ यानी तमाम चीजों और घटनाओं के पीछे षडयंत्र होने की बात मानने वालों की एक दुनिया है. और एक दुनिया उन लोगों की है जिन्हें अखबार में लिखा हर हर्फ़ सच्चा लगता है. एक तीसरी दुनिया उन लोगों की है जो पहले सबकुछ सुनना चाहते हैं, सवाल करना चाहते हैं और सच की तह तक पहुंच जाना चाहते हैं. आप इनमें से किस दुनिया के निवासी हैं, आप ही तय कर सकते हैं.

इस आलेख में एक ऐसी कॉन्पिरेसी थिअरी की पड़ताल की जा रही है जिसके मुताबिक चंद ताकतवर लोग पूरी दुनिया पर राज करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके मुताबिक दुनिया में तमाम देश और उनकी सरकारें होने के बावजूद एक ऐसी अधिनायकवादी (टोटैलिटेरियन) व्यवस्था भी स्वरूप ले रही है जो इस तरह के फैसले लेने की हालत में होगी कि किसी देश का अगला राष्ट्रपति कौन बनेगा. या फिर ईरान और कोरिया जैसे किसी देश पर प्रतिबंध लगाए जाएंगे या नहीं. इस थिअरी का नाम है न्यू वर्ल्ड ऑर्डर थिअरी या एनडब्ल्यूओ. इस नई विश्व व्यवस्था को चलाने वाले लोगों में, ताकतवर नेताओं के अलावा, बड़े बैंकर्स, बड़ी फार्मास्युटिकल और हथियार बनाने वाली कंपनियों के मालिक और मीडिया संस्थानों को चलाने वाले लोग शामिल हो सकते हैं.

कहा जाता है कि न्यू वर्ल्ड ऑर्डर का ज़िक्र सबसे पहले ब्रिटिश लेखक एचजी वेल्स ने 1940 में इसी नाम से छपी अपनी किताब में किया. इसके बाद उनके समकालीन अंग्रेज लेखक और पत्रकार एरिक आर्थर ब्लेयर यानी जॉर्ज ऑरवेल ने 1949 में छपे अपने उपन्यास 1984 में इस नई दुनिया का खाका खींचा था. हालांकि ठीक ऐसी ही डरा देने वाली कहानी एक और ब्रितानी लेखक एल्डॉस हक्सले 1932 में छपे अपने उपन्यास ब्रेव न्यू वर्ल्ड में सुना चुके थे.

यहां सवाल पूछा जा सकता है कि न्यू वर्ल्ड ऑर्डर की बात करने वाले ये सब लोग ब्रिटिश ही क्यों थे. जवाब यह है कि 1918 में खत्म हुए पहले विश्व युद्ध ने सबसे ज़्यादा नुकसान ब्रिटेन को ही पहुंचाया था. पहले विश्वयुद्ध से पहले दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत रहा ब्रिटेन युद्ध के बाद लगभग दिवालिया हो गया था. ज़ाहिर है ऐसे में घबराए हुए शासन की हरकतों पर नज़र रखने वाले इन लेखकों को अंदाज़ा हो रहा था कि आगे दुनिया किस रास्ते जाने वाली है.

और फिर ऑरवेल पत्रकार भी थे. उन्होंने बीबीसी के साथ काम किया था, दुनिया के बड़े-बड़े लोगों से साक्षात्कार किया था. वे ज़रूर देख पा रहे होंगे कि एक के बाद दूसरे विश्वयुद्ध में धंस चुकी दुनिया के कई नायक आखिर अब क्या करना चाहते हैं.

लेखक और पत्रकार तो सिर्फ इस नई विश्व व्यवस्था की बात कर रहे थे, लेकिन देखना ज़रूरी है कि पहले विश्व युद्ध के बाद दुनिया के सबसे ताकतवर लोग क्या कर रहे थे. यहां हमें 1920 में बनी पहली अंतर्राष्ट्रीय संस्था – लीग ऑफ नेशंस – को याद करना होगा. जनवरी 1918 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने अपने चौदह सूत्रीय भाषण में आने वाले समय में शांति बनाए रखने के कुछ उपाय सामने रखे. इनमें हथियारों की कमी, समुद्र के खुले इस्तेमाल, उपनिवेशों के सही बंटवारे और व्यापार में बराबरी के अलावा एक खास सूत्र और था – लीग ऑफ नेशंस नाम की ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था जो सभी छोटे-बड़े देशों की राजनैतिक स्वतंत्रता और भौगोलिक स्वायत्तता की दोतरफा गारंटी सुनिश्चित करेगी.

पर हुआ यह कि अमेरिका खुद कभी इस संस्था का हिस्सा नहीं बना. अमेरिकी खुद को ऐसे संगठन का हिस्सा बनाने के लिए तैयार नहीं हुए जिस पर यूरोप, खासकर ब्रिटेन, का दखल था. दूसरे विश्व युद्ध के बाद अक्टूबर 1945 में बने संयुक्त राष्ट्र और अप्रैल 1949 में बने अंतर्राष्ट्रीय सैन्य संगठन नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन यानी नेटो को नई विश्व व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई संस्थाओं की तरह भी देखा जाता रहा है.

थिअरिस्टों के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र ने यूरोप को विश्व युद्ध में हुए नुकसान से उबारने और अमेरिका की स्थिति मजबूत करने का काम किया. वे यह भी कहते हैं कि विश्व युद्ध के बाद के सबसे बड़े संघर्ष जैसे इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष संयुक्त राष्ट्र के फैसले से ही पैदा हुए हैं. 1950 के कोरियाई युद्ध में अमेरिका का कोरिया पर हमला भी संयुक्त राष्ट्र की सहमति से ही हुआ था.

लेकिन इससे भी बड़ा आरोप संयुक्त राष्ट्र की सिक्योरिटी काउंसिल पर लगता है. सिर्फ 15 देश ही इसके सदस्य हैं और इनमें से भी पांच – अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन – ही स्थाई हैं. बाकी दस दो साल के लिए चुने जाते हैं और इसके बाद भी इन अस्थाई सदस्यों के पास वीटो पावर नहीं होती. उदाहरण के लिए अगर काउंसिल निर्णय लेती है कि संयुक्त राष्ट्र की शांति सेनाएं किसी देश पर कार्रवाई करेंगी. ऐसे में स्थाई सदस्य अपनी वीटो पावर का इस्तेमाल करते हुए ऐसा होने से रोक सकते हैं. जबकि सिक्योरिटी काउंसिल के बाकी सदस्यों के पास ऐसा करने का कोई रास्ता नहीं होता.

इसी तरह शीत युद्ध की घबराहट से पैदा हुआ नेटो भी शुरुआत में 12 उत्तरी अमेरिकी और यूरोपीय देशों के बीच का समझौता था. इसके मुताबिक इनमें से किसी भी देश पर हमला होने की स्थिति में सभी देश मिलकर उसके लिए लड़ेंगे. मई 1955 में सोवियत संघ ने एकजुट होकर वारसा पैक्ट के ज़रिए एक और सैन्य संगठन बना लिया. इसके बाद दुनिया लगभग दो हिस्सों में बंट गई थी – सोवियत खेमा और अमेरिकी खेमा.

लेकिन दुनिया को एक सरकार के नीचे लाना सिर्फ सेना या राजनीतिक संस्था के बस की बात नहीं. इसके लिए अर्थव्यवस्थाओं का नियंत्रण हाथ में लेना भी ज़रूरी था. थियरिस्ट्स के मुताबिक इस काम के लिए 1944 में विश्व बैंक बना दिया गया और दिसंबर 1945 में इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड. अमेरिका के जैफ्री सैक्स जैसे अर्थशास्त्री आरोप लगाते रहे हैं कि आइएमएफ छोटे और आर्थिक रूप से कमज़ोर देशों के साथ मनमानी करता रहा है. कुछ अर्थशास्त्री तो यहां तक आरोप लगाते हैं कि दुनिया भर की तमाम आर्थिक समस्याओं के लिए आइएमएफ ज़िम्मेदार हैं. तर्क यह भी दिया जाता है कि आइएमएफ की नीतियां किसी देश विशेष की मदद करने में पूरी तरह से इसलिए भी अक्षम हैं क्योंकि वे किसी विशेष समस्या या स्थिति को संज्ञान में लिए बिना काम करती हैं.

आइएमएफ पर लगने वाला सबसे प्रमुख आरोप फिर वही है – यह संस्था अमेरिका और यूरोपीय देशों और उनके कॉरपोरेशंस लिए पक्षपाती रुख अपनाती है. और यह भी कि यह संस्था किसी देश की अर्थव्यवस्था से ज़्यादा वहां की सबसे बड़ी कंपनियों को तरजीह देती रही है. इसी तरह विश्व बैंक पर भी आरोप हैं कि यह संस्था बढ़ती मुद्रास्फीति, आर्थिक असमानता और राष्ट्रीय ऋणों के लिए ज़िम्मेदार है. और इन संस्थाओं पर कोई बड़ी निगरानी करने वाली संस्था भी नहीं है.

अब बात करते हैं कुछ ऐसी संस्थाओं और समूहों की, जिनकी निगरानी तो दूर, उनके सदस्यों और बैठकों को भी नामुमकिन होने की हद तक गोपनीय रखा गया है. इनमें से सबसे ताकतवर समूह है बिल्डरबर्ग समूह. इसके बारे में हम किसी कॉन्पिरेसी थिअरिस्ट की बजाय भारत के पूर्व रॉ चीफ की ज़ुबानी सुनते हैं.

अपनी किताब ‘अनएंडिंग गेम अ फॉर्मर रॉ चीफ’स इनसाइट इनटू एसपियोनाज’ में विक्रम सूद लिखते हैं ‘50 साल पहले इस समूह की बैठक में हिस्सा लेने वाले सदस्यों की आमदनी अमेरिका के सभी नागरिकों की कुल आमदनी से ज़्यादा थी. पिछले सालों में पलड़ा बिल्डरबर्ग की ओर ही झुका है.’ वे आगे लिखते हैं, ‘बिल्डरबर्गरों ने गंभीरता से एक विश्व सरकार (बेशक उनके और उनके जैसों द्वारा शासित) का सपना देखा, एक ऐसी विश्व व्यवस्था जहां मिडल क्लास के लिए कोई जगह नहीं है. सिर्फ अमीर और गरीब. यहां शिक्षा और वैश्विक राय पर कड़ा पहरा होगा, और नेटो उनकी वैश्विक सेना के रूप में ऐसा करने में मदद करेगी.’

सूद की किताब के मुताबिक, यह समूह अब भी हर साल मिलता है और मानवता के भविष्य पर चर्चा करता है. बेशक यह चर्चा मानवता की रक्षा के बारे में कम और उनकी अपनी ताकत और उसके भविष्य के बारे में ज़्यादा होती है.

1954 में पहली बार 29 से 31 मई तक चली यह बैठक नीदरलेंड के ऊस्टरबीक में होटेल डी बिल्डरबर्ग में हुई. इस मीटिंग में कुल पचास लोग शामिल हुए, पर अब यह गिनती 120 तक जा पहुंची है. शामिल होने वालों में राजघरानों के लोग, बड़े बैंकों के मुखिया, कुछ देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, मल्टीनेशनल कंपनियों के मुखिया होते हैं, पिछले कुछ सालों में बड़ी आइटी कंपनियों के मुखिया भी इसमें शामिल होने लगे हैं. शुरुआत में इन बैठकों के बारे में कोई जानकारी बाहर नहीं जाती थी. अब शामिल होने वालों की लिस्ट सार्वजनिक की जाने लगी है मगर बैठक में किन मुद्दों पर क्या चर्चा हुई, यह अब भी गोपनीय रखा जाता है.

सूद लिखते हैं कि जॉन मेजर और शायद हैरॉल्ड विल्सन को छोड़ दिया जाये तो 1963 के बाद के सभी ब्रितानी प्रधानमंत्री यह पद मिलने से पहले बिल्डरबर्ग बैठक में बुलाए गए थे. डेविड आइज़नहॉवर के बाद आया हर अमेरिकी प्रधानमंत्री इस समूह से जुड़ा रहा है. इन नामों में बिल क्लिंटन, ग्रीनस्पैन, रॉन कैरी, डोनल्ड रम्सफेल्ड, और बराक ओबामा तक शामिल हैं. वे लिखते हैं कि 2016 और 2017 की बिल्डरबर्ग बैठकों में अमेरिका के सूरक्षा तंत्र से जुड़े, कार्यरत और रिटायर्ड बड़े नामों की काफी बढ़ी हुई मौजूदगी दर्ज की गई. बातचीत के मुद्दे थे ट्रंप प्रशासन, रूस, अटलांटिक देशों के सुरक्षा संबंध, वैश्वीकरण, बढ़ते नाभिकीय हथियार, चीन और मध्य-पूर्व. बाकी एशिया को शायद पश्चिम की दौलत और ताकत बढ़ाने के लिए उतना ज़रूरी नहीं समझा गया.

इस समूह के बारे में सूद की किताब से एक और उद्धरण बहुत मौजूं है. ‘2014 की बिल्डरबर्ग बैठक में बातचीत के मुद्दों में से एक था, ‘जनसंख्या की कीमत कौन चुकाएगा?’ यह सवाल 1974 में एनएसए (नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी) को (हेनरी) किसिंजर (अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री) के लिखे एक लेख तक वापस ले जाता है. 200 पेज के ‘नेशनल सिक्योरिटी मेमोरेंडम 200: इंप्लीकेशंस फॉर वर्ल्डवाइड पॉपुलेशन ग्रोथ एंड इट्स इंप्लिकेशंस फॉर यूएस सिक्योरिटी एंड ओवरसीज़ इंटरेस्ट्स’ में उन्होंने गर्भ निरोध की बात तो की है लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से जनसंख्या नियंत्रित करने के तरीके के तौर पर युद्ध और अकाल की तरफ भी इशारा किया था. अमेरिकियों ने इसे गंभीरता से लिया और किसिंजर के बाद आए (राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) ब्रेंट स्कोक्रोफ्ट ने उस वक्त के सीआइए चीफ (बाद में राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचे) जॉर्ज एच डब्लू बुश की मदद से इस पर अमल किया.’

तो सवाल एक बार फिर वहीं पहुंच जाता है कि क्या वाकई दुनिया के कुछ मुट्ठी भर लोग पूरी दुनिया को एक टोटैलिटेरियन राज्य बनाने की तरफ ले जा रहे हैं? फिलहाल इसका कोई जवाब नहीं है. लेकिन इस सवाल पर काम किए जाने की, इससे जुड़े कुछ और ज़रूरी सवाल उठाए जाने की ज़रूरत से इनकार करना मुश्किल है.

साभार- https://satyagrah.scroll.i से

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