अमेरिका व ईरान के संबंध हालांकि गत् चार दशकों से तनावपूर्ण चल रहे हैं। परंतु पिछले दिनों अमेरिका द्वारा मध्यपूर्व में विमानवाहक युद्धपोत यूएसएस अब्राहम लिंकन तैनात करने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि इन दोनों देशों में किसी भी समय युद्ध भी छिड़ सकता है। अमेरिका ने इससे पहले लंबे समय तक ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए। इतना ही नहीं बल्कि अमेरिका ने ईरान के अनेक सहयोगी देशों को भी ईरान से अलग-थलग करने की कोशिश की। ईरान द्वारा की जाने वाली तेल की बिक्री को बाधित किया। कई देशों को ईरान से तेल न लेने के निर्देश दिए गए। कई देशों से ईरान से व्यापार प्रतिबंधित कराए गए। यह सब केवल इसलिए किया गया ताकि ईरान को आर्थिक रूप से कमज़ोर किया जा सके। अमेरिका ईरान की वर्तमान सरकार को अस्थिर कर वहां सत्ता परिवर्तन कराना चाहता है। कुल मिलाकर अमेरिका की यही मंशा है कि वह आर्थिक व सामरिक सभी मोर्चों पर ईरान को कमज़ोर करे। गौरतलब है कि अमेरिका द्वारा थोपे गए युद्ध व अस्थिरता की मार झेलने वाले इराक व सीरिया जैसे देशों के बाद ईरान ही मध्यपूर्व में इस समय सबसे मज़बूत देश है। ज़ाहिर है अमेरिका अपनी अंतर्राष्ट्रीय नीति के तहत दुनिया के किसी भी देश को शक्तिशाली देश के रूप में देखना नहीं चाहता। खासतौर पर उन देशों को तो कतई नहीं जो इसराईल व अरब की तरह अमेरिका की खुशामदपरस्ती न करते हों। ईरान 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद अब एक ऐसे देश के रूप में स्थापित हो चुका है जहां के लोग अमेरिका की आंखों से आंखें मिलाकर बात करने का साहस रखते हैं। वे अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद शिक्षा,साईंस,टेक्नोलजी तथा सामरिक क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ते जा रहे हैं।
वैसे भी अमेरिका व ईरान के मध्य पैदा हुई तल्$खी का इतिहास लगभग 40 वर्ष पुराना है। 1979 से पूर्व शाह रज़ा पहलवी जो ईरान के बादशाह थे जो पश्चिमी स यता के पैरोकार होने के साथ-साथ अमेरिका की कठपुतली बनकर रहा करते थे। अमेरिका को ईरान का वह दौर पसंद था। परंतु उस दौर में ईरान के लोग पथभ्रष्ट हो रहे थे। वहां का समाज पश्चिमी स यता में डूबता जा रहा था। अनेक गैर इस्लामी तथा गैर इंसानी कृत्य हुआ करते थे। तानाशाही के उस दौर में अनेक धर्मावलंबी लोगों को तरह-तरह के ज़ुल्म व ज़्यादतियों का सामना करना पड़ता था। इसी दौर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे आयतुल्ला खुमैनी की ईरान वापसी हुई। खोमैनी ईरानी समाज के पश्चिमीकरण के लिए तथा धीरे-धीरे अमेरिका पर बढ़ती जा रही निर्भरता के लिए शाह को ही जि़ मेदार मानते थे। यदि हम शाह पहलवी के पूर्व के ईरान पर भी नज़र डालें तो 1953 से पहले भी ईरान में मोह मद मूसा देगा की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार थी। उन्होंने ही ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था। परंतु उस समय भी अमेरिका व ब्रिटेन ने साजि़श रचकर ईरान की लोकतांत्रिक मूसा देगा सरकार को अपदस्थ करवाकर शाह रज़ा पहलवी को सत्ता सौंप दी थी। ज़ाहिर है ऐसे में अमेरिका की कठपुतली बने शाह ने ईरान के भविष्य का हर फैसला अमेरिकी हितों तथा उसकी इच्छाओं के अनुरूप ही लेना था।
अमेरिका 1979 की इस्लामी क्रांति के फौरन बाद ईरान में घटी उस घटना को भी नहीं भूल पा रहा है जिसने अमेरिका के विश्व के सर्वशक्तिमान होने के भ्रम को तोड़ दिया था। शाह के त$ तापलट के फौरन बाद जैसे ही ईरान व अमेरिका के राजनयिक संबंध समाप्त हुए उसके साथ ही ईरानी छात्रों के एक बड़े समूह ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर अपना नियंत्रण कर लिया। दूतावास में 52 अमेरिकी नागरिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया। ईरान के लोग उस समय तत्कालीन राष्ट्रपति जि मी कार्टर से शाह पहलवी को वापस ईरान भेजे जाने की मांग कर रहे थे। उस समय शाह न्यूयार्क में कैंसर का इलाज करवा रहे थे। बाद में मिस्र में शाह पहलवी का देहांत हो गया। परंतु अमेरिकी बंधकों को ईरानी छात्रों ने उस समय तक नहीं छोड़ा जबतक कि अमेरिका में जि मी कार्टर का शासन समाप्त नहीं हुआ और रोनाल्ड रीगन अमेरिका के नए राष्ट्रपति नहीं बने। अमेरिका उस समय से लेकर अब तक यही मानता आ रहा है कि ईरान की इस्लामी क्रांति तथा इस्लामी क्रांति के प्रमुख आयतुल्ला खुमैनी का भी इस पूरे बंधक प्रकरण में पूरा समर्थन व योगदान था। 1979 की क्रांति के बाद अमेरिका ने ईरान को सबक सिखाने का एक दूसरा रास्ता यह चुना कि उसने ईरान के पड़ोसी देश इराक को ईरान के विरुद्ध उकसाकर 1980 में ईरान पर आक्रमण करवा दिया। आठ वर्षों तक चले इस इराक-ईरान युद्ध में एक अनुमान के अनुसार दोनों ही देशों के लगभग पांच लाख लोग मारे गए थे। कहा जाता है कि इसी युद्ध में इराक द्वारा ईरान के विरुद्ध रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया गया था जिसका प्रभाव ईरान पर का$फी लंबे समय तक देखा गया। इसी युद्ध के बाद ईरान ने परमाणु हथियारों की संभावनाओं की ओर देखना शुरु किया था।
वर्तमान समय में ईरान को इज़राईल जैसे उस पड़ोसी देश से पूरा $खतरा है जो परमाणु शस्त्र संपन्न देश है। सऊदी अरब का शाही घराना गत् कई दशकों से अमेरिका की गोद में बैठकर न केवल ईरान के विरुद्ध साजि़शें रच रहा है बल्कि प्रत्येक ऐसे मानवाधिकार विरोधी कार्य कर रहा है जिसकी अन्य देशों में किए जाने पर अमेरिका निंदा किया करता है। अमेरिका न तो इज़राईल के $िफलिस्तीनियों पर किए जा रहे अत्याचार की आलोचना करता है न ही सऊदी अरब शासन द्वारा किए जाने वाले ज़ुल्म पर अपनी कोई प्रतिक्रिया देता है। पूरे विश्व में लोकतंत्र की हिमायत करने वाले अमेरिका को सऊदी अरब में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने या चुनाव कराने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। अमेरिका को केवल चीन,रूस,उत्तर कोरिया,ईरान,वेनेज़ुएला,सीरिया,यमन,मिस्र जैसे देश ही दिखाई देते हैं। यदि हम पूरे विश्व के मानचित्र पर नज़र डाल कर देखें तो हम यही पाएंगे कि दुनिया के जिन-जिन देशों ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने की कोशिश की तथा अमेरिका के आगे नतमस्तक होने से इंकार किया वही देश अमेरिका की नज़रों में न केवल अलोकतांत्रिक हैं बल्कि उन्हीं देशों में मानवाधिकारों का हनन भी हो रहा है । दुनिया यह भी जानती है कि अमेरिका किसी भी स्वाभिमानी व आत्मनिर्भर राष्ट्र का सगा दोस्त नहीं है। इराक जैसे देश का उदाहरण सबके सामने है।
अब अमेरिका ने ईरान को उसके द्वारा चलाए जाने वाले परमाणु कार्यक्रम को लेकर घेरना शुरु कर दिया है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ईरान को शैतान की धुरी का नाम दे चुके हैं तो दूसरी ओर अमेरिका का परम सहयोगी देश इज़राईल भी अपने लिए ईरान को ही सबसे बड़ा ख़तरा मान रहा है। अमेरिका द्वारा मध्य-पूर्व के समुद्री क्षेत्र में अपने दो विमानवाहक युद्धपोत तैनात करने के बाद ईरान ने अपने-आप को 2015 में हुए अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौते से आंशिक रूप से अलग कर लिया है। अमेरिका पिछले वर्ष ही स्वयं को इस समझौते से अलग कर चुका था। इस बीच यह भी खबर है कि अमेरिका ने बड़ी सं या में बी-52 लड़ाकू विमानों को भी इस क्षेत्र में भेज दिया है। अभी कुछ ही दिन पूर्व ईरान के रेव्यूलेशनरी गार्ड कॉर्पस को भी अमेरिका ने आतंकवादियों का गिरोह बताते हुए उसे काली सूची में डाल दिया थी। इन सब तेज़ी से बदलते घटनाक्रमों के बीच पिछले दिनों अमेरिकी विदेश मंत्री माईक पंपीओ अपनी जर्मनी की यात्रा को रद्द करके अचानक इराक़ की राजधानी बगदाद जा पहुंचे। ऐसा माना जा रहा है कि उन्होंने अमेरिका व ईरान के बीच बनते जा रहे जंग के माहौल के संबंध में ही इराकी नेताओं के साथ बैठक की है। यदि अमेरिका ईरान पर युद्ध थोपता है तो पूरे विश्व पर इसका क्या दुर्भाव होगा यह तो वक्त ही बताएगा परंतु यह तो तय है कि अमेरिकी थानेदारी की बढ़ती सनक पूरे विश्व को अस्थिरता तथा संकट की ओर ले जा रही है।
Tanveer Jafri ( columnist),
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